
प्रेम – 1
अत्यंत बलवती थी उसकी इच्छा
जीवन वरण की
डस गया तभी
प्रेम
पिघला वाहिनियों में
पीड़ा का स्वेद
ज्वर मियादी का
मार ना सका
उसे
मार गया प्रेम
लतर – छतर
जी उठा
निरंतर
माइटोसिस मिओसिस
से
विभक्त होता
उसकी
कोशाओं ऊत्तकों में प्रेम
उसके मुंह लगा स्वाद ऐसा
कि न लगा
और
उसने नहीं
प्रेम ने चुना उसे
माना उसने
वह शापित सम्मोहित
सत्य की सत्ता
जीने की विवशता में
ठानता
विवशता को
उपासना
साधना
तपस्चर्या
जानता
कूद पड़ा
धधकती
प्रेम ज्वाला में
अब
चिरायंध
और युगों
से
उसी वलय में
निश्चेष्ट वह
जपता है
प्रेम की माला
तंग गलियों में बसता
निकला सस्ता
चला गया उपालंभ देकर
प्रेम
वह ‘नार्सिसिस्ट ‘
खुद को समझता
है अब
***
प्रेम – 2
तीली सी पीली पड़ी
ऊष्मा सिरे भर सीली
जीवित मृत
तिरस्कृत
सूखने को
तह में
धूप में गीली
कोयला भर बच जाना
अग्नि की उत्पत्ति
अधोगति
घिसना
रिसना
मात्र तृष्णा
रहा आया
उसका प्रेम
लुप्त
***
प्रेम –3
देना हाथ था
पाना निर्भर
बूझकर
दिया प्रेम
भेजकर
पुष्प प्रिय को उसने जताया
कि
मैंने तुमसे
किया प्रेम
***
प्रेम – 4
कमल सा
भ्रमर गुंजन से
अचंभित आसक्त
शनैः शनैः
हो
प्रस्फुटित
मीठी धूप में
सिंके- पले
नैसर्गिक
भोली चेष्टा विरक्त
रसास्वादन
तुष्टि – पुष्टि
में लीन
संवेदनहीन
स्ट्रीट स्मार्ट प्रेम
उत्सुक आतुर
कैडबरी केएफसी
कॉर्नेटो – कुल्फी फलूदा
मॉल्स कैफ़े कैंटींस
मोमो बर्गर
कि
बार में हुक्का वोदका शेरी शैम्पेन बीयर
हां
बजट पर निर्भर
बाज़ार हो चुका
पैंयां – पैंयां
दो पग धरता
लड़खड़ाता
दस रुपए के
मंगलसूत्र पर
कभी
ठगा जाता था जो
टेडी गुलाब परफ़्यूम
मेकअप ड्रेस
मोबाइल गैजेट्स
सब
कंज़्यूम
कर जाता है
ठेंगा बताना है
‘कब आता है
कब जाता है
पर रहता है जबतक
ये कमबख़्त
जन्नत दिखाता है‘
चार छः डेट्स पर
बदले मूड्स सा
बदलकर टेस्ट
उदित होने से पूर्व
गड़ाप
बीती पार्टी के
शबाब संग
उड़न छू हो जाता है
प्रेम को
हैंगओवर देकर
दुपहरी तक का
***
असल के पीछे का असल
ज्यादातर हमें पता नहीं चलता
असल के पीछे का असल अकसर ख़ामोश खड़ा रह जाता है
तआरुफ़ के इंतज़ार में तालियों वाले तालियां बटोरते हैं
सिक्कों वाले सिक्के
असल बात तो यह है कि दरअसल इन सिक्के वालों और ताली वालों के बीच भी कई हैं इनके टायर जिनकी बदौलत
ये दौड़ रहे हैं
एक झूठ की ज़मीन पर ज़्यादा हाय – तौबा मचाए असल के पीछे का असल तो उसके साथ कोई भी दुर्घटना घट सकती है
सच मानिए
नहीं होता रत्तीभर
गुमान किसी को
जताते तो यही हैं
जैसे मेरी गली और
पीछे की तीन गलियों में
हर साल कई श्वान शावक कुचले जाते हैं
और इन सब
छोटी – छोटी बातों पर
जो कि
छोटे – बड़े शहरों में
अकसर होती रहती हैं
हास्यास्पद है ‘पेटा‘ का
शोर मचाना
भला ये भी कोई बात हुई
बात उठाने की
कि
महिला अगुआ के घर में महिला सताई ना जाए चुपचाप
कोई नशे में है
कोई नशा ढूंढ रहा है
असल के पीछे का असल कभी भूले से मिल भी जाए तो कूड़ेदान के साथवाली दीवार पर
लापता की तलाशवाले
पोस्टर सरीखा
कई बार
बेचारा वह
ताबूत में उठ बैठता है अधमरा
पर
छटपटाकर
घुट जाता है
कतारों में चलती भेड़ों को पड़ने नहीं जाता फ़र्क ।
***
पार्थिव प्रश्न
घटना ने छोड़ा
एक प्रश्न
घटनाक्रम के
किरदारों के संग
घूमती स्पॉटलाइट्स
और प्रश्न
घूमता जा रहा है
शव की
शुष्क श्वेताभ
गर्दन पर उभरी
नीली धारियों में
हाशिए भर
उत्तर के चंद शब्द
घूमता प्रश्न
ज़हन में
तेज़ – तेज़ घुमा रहा
दीवारें – छत
टंगी फ्रेम उतार
मोटे स्केच – पेन से
मैंने पाड़ दीं धारियां
गोया सीखचों के पीछे
तय हो
उसका जाना
और पलट कर
दराज में बंद कर दिया
जैसे बच जाएगा वह
छिपा ले जाएगा पुनश्च
उस प्रश्न का उत्तर
कभी नहीं टंगेगा
फ्रेम में प्रश्न
शब्दघात के अनुत्तरित
रह जाने की पीड़ा
मन की सतह पर
गहरी खराशों में छपती है और पढ़ी नहीं जाती
बिना पढ़े
उत्तर भांपते हैं सब
अलग – अलग।
***