शिवम तोमर हिन्दी की अभी प्रकाश में आ रही है युवतर पीढ़ी के सदस्य हैं। उनके सामने एक तयशुदा काव्यभाषा और सुनिश्चित बिम्ब-व्यवहार से अलग कर कुछ दिखाने के लक्ष्य के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक जीवन-स्थितियों को कविता में कहने की चुनौती भी है। इस चुनौती का सामना वे बख़ूबी कर रहे हैं। उनकी कविताऍं अनुनाद पर पहली बार प्रकाशित हो रही हैं। कवि का यहॉं शुभकामनाओं के साथ स्वागत है।
रात एक बेबस ईश्वर है
देश भर में समान मात्रा में फैली हुई
यह अदम्य रात है
इसे भूरे-काले बेघर कुत्तों,
महत्त्वाकांक्षाविहीन चोरों और
अल्पवेतन और अनादर के बीच पिसते हुए
चौकीदारों की सोहबत है
स्ट्रीटलाइट के ऊपर लंगूरों के जैसे बैठी रात
जानती है कि पिंक पी-सी-आर की जीप
कितनी बार अँधेरे में चक्कर लगाती है
उम्रदराज़ यू-पी-एस-सी एस्पिरेंट्स की खिड़कियों पर
उनके सिलेबस की मोटाई से विरक्त
रात उनके कानों में लगी लीड़ से
उनके हिस्से का संगीत सुनती है
बीयर-बार में आमने सामने बैठे दो जन
जब अपनी-अपनी कुढ़न एक दूसरे से साझा कर
मौन को प्राप्त होते हैं
तब रात जानती है कि
उनके पास सोचने को क्या बचता है
रात जानती है
एक सेवानिवृत विधुर का मृत्यु-बोध
और बिस्तर की सिलवटों में सुबकती
एक महिला की सम्मति के बारे में
रात जानती है कि
कैसे एक माध्यम वर्गीय नौकरीपेशा की चिंताएँ
महीने-दर-महीने बदलती हैं
रात एक बेबस ईश्वर है
जो सब कुछ देखते-जानते हुए भी बस चुप रहती है।
***
जल्दबाज़ी एक नया सामान्य है
लगभग हर बार हर जग़ह
सही समय पर पहुँचा हूँ अब तक
कुछ एक-आध वाक़ि’आत को छोड़ दें तो
लंबे-लंबे पैरों को
चलने और दौड़ने के बीच का
तरीका सिखाया
सामान्य से थोड़ा तेज़
अपने स्वार्थ के लिए
भागने से थोड़ा धीमे
ताकि सड़कों पर बदहवास न दिखूँ
समय पर पहुँचने की ऐसी आदत हुई है
कि जल्दी पहुँचकर
दूसरों को शर्मिंदा कर बैठता हूँ
उन्हें लगता है कि उन्हें देर हुई
क्या है जो छूटा जा रहा है
कौन-सी और किस तरह की देर है
जो अब तक हुई नहीं
लेकिन फिर भी
उसका डर बना रहता है
कई बार तो समय पर पहुँचना
न पहुँचना
महत्त्वहीन होता है
और तब भी सामान्य से
तेज़ भागता हूँ मैं
भांजे-भांजियों के पी-पूँ करते खिलौने
उनसे ज़्यादा मेरे हाथों में रहते हैं
आज भी भाती हैं बाल-कहानियाँ
जिनमें शेर चीते भालू
आदमियों की तरह
बातचीत करते हैं
बुढ़िया के बाल बेचने वाला जब गली से गुजरता है
तब उसे एकटक देखता हूँ
एक खुशमिज़ाज गुलाबी रंग
एक खोया हुआ मीठा-सा स्वाद
मेरी इंद्रियों पर इंद्रधनुष-सा फैल जाता है
और मैं स्वयं से सवाल करता हुआ
बालकनी में टंगा रह जाता हूँ कि
” कहीं मैं इस उम्र तक भी
जल्दी तो नहीं आ पहुँचा? “
***
चिड़ियों की चोंच
लाल क़िले के परिसर में
दीवान-ए-आम के पीछे
है संगमरमर की एक दीवार
जिस पर उकेरे गए
सुंदर फूल, पौधे और चिड़ियाँ
ये चिड़ियाँ इतनी असली लगती हैं
कि उनकी ओर बढ़ाये गए
एक कदम पर फुर्र से उड़ जाएँ
उस परिसर में घूमती-उड़ती चिड़ियों
को भी ऐसा ही लगता है
दीवार पर उभरे हुए फूल-पौधे-चिड़ियाँ
सब असली लगते हैं
वे दीवार पर बनी फूल-पत्तियों
को खाने की कोशिश नहीं करतीं
लेकिन असली-सी दिखने वाली
दीवार वाली चिड़ियों को
चोंच मार कर बाहर निकाल लेना चाहती हैं
लाल क़िले की ज़्यादातर चिड़ियों की
चोंच में दर्द रहता है
एक दिन कुछ चिड़ियों की
चोंच टूट कर गिर जाएंगी
और तब शायद
उस दीवार पर रह जाएंगे
सिर्फ फूल-पत्तियाँ
और क़ैद का एक इतिहास
***
मोबाइल टॉवरों के ऊपर बैठे कबूतर
मोबाइल टॉवरों के ऊपर
बैठे रहते हैं कबूतर
अदृश्य सिग्नलों और तरंगों में
चोंच मारते हैं,
कान लगा कर
हमारी बातें सुनते हैं
हमारी निजता की गुप्त दुनिया में
रोशनदान बनाते हैं।
मेरी तुम्हारी फ़ोन पर बात हो रही है
और मैं उस कबूतर को देख रहा हूँ
जो टावर पर बैठा हुआ है
मैं तुमसे बाय कहूँगा
और वह उड़कर मेरी कमरे की खिड़की पर आ पहुँचेगा
गर्दन हिला हिला के
मसखरी भरे गुटरगूँ करेगा
जैसे भाभी हँसती हैं मंद-मंद
मुझे तुमसे बात करते हुए
देख लेने पर।
***
स्वागत है युवा कवि का। एकाध स्थान पर छपाई ओवरलेप हो रही। ठीक कर दीजिये। पाठ में खलल पड़ रहा है मज़ा नहीं आ रहा