1.
शिकारी की तरह आए तो
प्रेम नहीं है! जाल बिछाए
तो प्रेम नहीं है! आखिर यह
मान लेने में क्या हर्ज़ है
कि प्रेम नहीं होता उन बहुत
सी जगहों पर, जहाँ हम उसे
ढूँढते, तलाशते हैं, टटोलते हैं
हाथों से, और छू पाते हैं हवा
अंतरिक्ष, कभी कभी आकाश
और पाताल भी, और लौट आते
हैं वहीं, जहाँ से हमने शुरु की थी
यात्रा, इन सबके एहसान मंद
हमें हमारा पता, ठिकाना बताने
के लिए!
***
2.
उन सारे मंसूबों पर
ईंट ईंट चढ़ा
जो दूसरे के बलिदान
नहीं, तो घनघोर
समझौते से आते
हों, उस प्रेम के ख़िलाफ़
बगावत करना क्या बुरा है?
***
3.
प्रेम देह पर अलबत्ता हल्के
बुख़ार-सा चढ़ जाए
उचारे जाने का मोहताज
नहीं, लेकिन सुनने में
कितना अच्छा लगता है
प्रेम आसपास है
दूर नहीं!
***
4.
एक ही नाम से बिक रही
है, चाहत और वहशत
बाज़ार में! क्यों काबिज़
करने के इरादे को
प्रेम का लिहाफ़
चढ़ाते हो?
***
5.
इतनी चाहिए होती है
साफ़गोई उन्हें
हम कहां आये
कहां गए
किससे मिले
किससे नहीं
किस प्रयोजन
वो हमसे पूछते नहीं
हमें बताते हैं!
***
6.
जान-बूझ कर चुभती हुई
बातों से जगाया न जाए
ज़रा ये ख़्याल किया जाए
कि क्या अच्छा लगेगा?
क्या ग़लत है यह
अपेक्षा प्रेम से?
यह समझ कि कही जाने वाली
बातों का सीधा गणित क्या
बनता है, इतनी संवेदना कि
अगले से सुनी, बातें याद रह सकें
इतनी ईमानदारी कि अगले की थकान
को अपनी शांत नींद की इच्छा
में महसूस कर सकें
पढ़ सकें दूसरे की कामनाओं
की लिपि, न बुलाया जाए कोई अनुवादक
पढ़ने को प्रिय का मन
प्रिय तुमसे इतनी अपेक्षा
गलत है क्या?
***
7.
मैं चाँद हूँ
सूरज भी
मैं ही तारों की टिमटिमाहट
कहा उसने
‘लेकिन तुम प्रेम होते
तो होता कितना अच्छा
कितनी नेक, भली होतीं
हमारी सुबहें, शामें!
तुम प्रेम होते हुए
क्यों होना चाहते हो
हर कुछ? यों भी
हर कोई बनना चाहता है
चाँद, सूरज और तारा
मेरे ग्रहों को महफ़ूज़
क्यों नहीं छोड़ते लोग?
रखने के लिए दिन और रातों को
चमकदार!?’, मैंने कहा कि
न कहा प्रेम से, प्रेम को
ये तो बताएगा मेरा प्रेम ही
प्रेमी से, मित्र से, धरती और
अंबर से! मैंने हमेशा किया है
ईमानदारी से प्रेम!
***