अनुनाद

शुभा मिश्रा की कविताएं

     

 

   धानरोपनी   

दिल नहीं लगा आज उसका

धानरोपनी के गीतों में

बबुआ की देह तप रही थी आते समय

ज्वर की सिरप पिला आई थी

रोपा न किया तो पेट की आग जलायेगी

अभी जला रही चिंता की आग 

दिन कितना बड़ा लग रहा आज

साँझ ढले घर कितना दूर लग रहा था

खेतों में पानी खाये तलवों के घाव में दर्द नहीं

बबुआ बाट जोह रहा होगा

आरम्भ से अंत तक स्त्री और पृथ्वी

दोनों एक सी हैं….

***

       सुखकर   

दुखों की फेहरिस्त में 

इस नए दुख की उम्र बड़ी लंबी है

ये दुख अब आँखों से नहीं बहता

फेंफड़ों ,लिवर और किडनी

में ढीठ बन बैठा है

ह्रदय तो दुख के बारूद से ढका है

बस पलिता लगाने की देर है

अंतड़ियां अधमरे स्वाभिमान की तरह

कोने में ढही पड़ीं हैं

संशय की खाइयों में लटकी ये गहरी काली 

आत्मसंताप की रात कटेगी भी या नहीं

हे माधव ! तुम विस्मृत न हो 

इसलिए ये दुख है ऐसा तुम सोचते

किन्तु तुमने मुझ अनूठे को चुना

जिसकी हथेली की रेखाओं से

दुग्धाभिषेक होता है

अधरों से मधुस्नान होता है

दिव्यचक्षुओं से जलाभिषेक होता है तुम्हारा

अनाहत चक्र में विषधर दुख बैठा है

वहाँ तो तुम्हारा आसन है प्रिय

तुम तो वहीं रहोगे न जो सुखकर हो ।

***

        अनकहा    

फ़ोन पर वह जो कहता है

जानती है कि कहना कुछ और चाहता है 

 चाहना होती है उन्हीं शब्दों को सुनने की

 जो उसने कहा नहीं

 मर्यादा की तीर से बिंधी वह जानती है

 कामनाएँ चिर युवा होती हैं

उदासी की गठरी हवा में उछाल 

वह छत पर चिड़ियों की कटोरी में पानी रखती है

जीवन संगीत में सभी सुर सही कहाँ लगते हैं

अपनी ठुड्डी पर की तिल को टटोलते हुए

अपनी लीव एप्लीकेशन टाइप करती है

हैरानी है वो अनकहे शब्द टाइप हो जाते हैं

जिसे सुनने की चाहना होती है उसे

ऐसा भी होता है क्या भला ?

***

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top