वह खूबसूरत नहीं। ऐसा स्वयं उसे ही लगता था। शायद उसे बार बार यह अहसास करवाया गया हो। बींधा गया हो उसे “काली कलूटी”, “बदसूरत” नामों के शब्द बाणों से।
” क्या पढ़ रही हो?” उसने शालिनी से पूछा था। शालिनी उंगली अपने मुंह पर रख उसे चुप होने का इशारा कर पढ़ती रही। वह चुप हो गई और अंदर चली गई।
दुबली पतली कृशकाय सी थी वह।
गहरे तंबई रंग के उसके चेहरे पर उसकी त्वचा जैसे कस के बंधी पड़ी थी। माथा ऊंचा था। दो चौकस चौकन्नी आंखों के नीचे गालों की हड्डियां ऊपर की ओर हो उठी हुई थीं और होठों के पास से गाल अंदर को थे जो कोणीय से होते हुए पतली ठुड्डी के सहारे लंबी पतली गर्दन में उतर जाते थे। आगे के दो दांत एक के ऊपर एक होने के कारण आगे को निकले थे और चेहरे के रंग से थोड़े और गहरे रंग के अधर पुटों से सफेद झक से ये दांत बाहर को झांकते थे।
दांतों की इसी भंगिमा ने उसके अधरों को अंग्रेज़ी के “ओ ” अक्षर की सदाबहार आकृति प्रदान कर दी थी और उसके पूरे व्यक्तित्व की मासूमियत का केंद्र बिंदु इन्हीं गोल होठों में सिमटा हुआ था।
“बहुत सुंदर हो आप भाभी एकदम मैदे की जैसी गोरी”, उसने शालिनी को कहा था और दादी भी। “मुझे तो पहले लगता था कि दादी आपकी मां हैं। आप बताते नहीं तो पता ही नहीं चलता कि दादी आपकी सास हैं। देखो ना भाभी!! इतनी बुड्ढी हो गई दादी, इतनी बीमार रहती हैं फिर भी कितनी सुंदर लगती हैं। गोरे कितने हो आप दोनों ही। और भैय्या गोरे ही हैं पर ऑफिस जाते हैं न तो धूप में रंग थोड़ा दब गया है। और आपके बच्चे? मैं तो देखी नहीं उन्हें। दीपावली पर आएंगे क्या? कौनसे शहर में पढ़ते हैं? वो भी गोरे होंगे ना खूब?”
“क्या गोरा, क्या काला ? रंग में क्या रखा है। मन अच्छा होना चाहिए, तन का क्या है। एक दिन मिट जायेगा। हां स्वस्थ रहना चाहिए, साफ सुथरा रहना चाहिए”, शालिनी ने थोड़ी दर्शनिकता, थोड़ा बड़प्पन दिखाते हुए कहा।
“अरे भाभी मुझ से पूछो। मेरा रंग देखो। क्या अच्छा है इसमें। पैदा होते ही मां बाप, दादी ने सिर पीट लिया था। एक तो लड़की और वह भी काली। तभी तो देखते ही नाम सुर …मिया रख दिया मेरा। सुरमा होता है ना भाभी। काला सुरमा!! उसी से नाम बना दिया सुर …मिया । बस वही नाम रख दिया।”
उस दिन पता चला शालिनी को कि जिस नाम को वह “सुरम्या” का अपभ्रंश समझ रही थी, वह तो उस कृष्णवर्णा के काले रंग के पर्याय से उपजा नाम था।
सुरमिया शालिनी की सास की चौबीस घंटे की देखभाल के लिए रखी गई तथाकथित नर्स थी। तथाकथित इसलिए कि नर्स उपलब्ध कराने वाली एजेंसी यही कहकर इन लड़के लड़कियों को उपलब्ध कराती कि वे प्रशिक्षित नर्स हैं लेकिन वे सिर्फ नहलाने, धुलाने, कपड़े बदलना ही जानते थे। दवाई देना, रक्तचाप नापना, ऑक्सीजन लगाना, शुगर नापना, ये सब उन्हें ऑटोमैटिक मशीन से भी नहीं आता था। सिखाना पड़ता था और चूंकि सब बारहवीं तक पढ़े होते, सीख ही जाते। असली काम तो मरीज को उठाने, बैठाने, साफ करने, नहलाने, खिलाने, पिलाने का ही होता। एजेंसी द्वारा इनके शोषण की कहानी तो अलग ही कहानी है।
पिछले तीन वर्षों में अब तक ऐसी तीन नर्सें आ चुकी थीं। सुरमिया चौथी नर्स थी। शालिनी को ही इनके खाने पीने, सोने का इंतजाम करना पड़ता। इन्हें दवा, देखभाल का काम सिखाना पड़ता। उसकी सास तो बिलकुल ही बिस्तर पर थी। फिर इन पर नज़र भी रखनी होती। इसलिए शालिनी थोड़ी झुंझला भी जाती। फिर इनके ख़ुद को नर्स समझने के नखरे भी सहने पड़ते। आदत सी हो गई थी शालिनी को। उनसे किसी बहुत पढ़ी लिखी, समझदार बात की उम्मीद तो अब शालिनी को भी नहीं रह गई थी। बारहवीं पास को भी पढ़ने लिखने समझने में बड़ी परेशानी होती पर सुरमिया!! सुरमिया अलग थी। छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके के किसी गांव से आई थी वह। आते ही दवाई, रक्तचाप आदि नापने का काम उसने शालिनी की आशा के विपरीत जिस पेशेवर नर्स की भांति संभाला कि शालिनी ने जहां एक ओर शांति का अनुभव किया वहीं उसे थोड़ी ईर्ष्या भी हुई कि उसके मार्गदर्शन के बिना कैसे उस बाइस तेईस साल की लड़की ने काम संभाल लिया। उसका उच्च शिक्षित होने का रौब दाब जो कम हो गया था।
पूछने पर पता चला कि सुरमिया ने जीव विज्ञान में स्नातक किया था। शालिनी भी जीव विज्ञान में ही परस्नातक थी। माध्यम अंग्रेजी ही रहा हमेशा।
अपना ज्ञान बघारते हुए शालिनी ने एक दिन पूछा , ” तो प्लेन बीएससी क्यों की? नर्सिंग में बी एस सी क्यों नहीं की सुरमिया?”
“मां, बाप, बड़े भाई को पड़ी नहीं थी, समझ भी नहीं थी। बीच वाले भाई को थोड़ी चिंता थी। उसने थोड़ी मदद की। मैंने ही किसी से पूछ कर रायपुर में एक कॉलेज में दाखिला लिया नर्सिंग के कोर्स के लिए। नौ दस महीने सब कुछ सिखाया भी कॉलेज वालों ने, फिर पता चला कि कॉलेज की मान्यता ही नहीं थी। किसी राजनीति के कारण मान्यता रद्द कर दी गई। फीस भी गई, साल भी बर्बाद हो गया। तो मैंने फिर भी हार नहीं मानी। लड़ झगड़ कर प्लेन बी एस सी कर ली।”
“फिर किसी अस्पताल में नौकरी भी की। वहां पैसा कम था पर मेरी फीस के पैसे मैंने उसी से निकाल लिए। अनुभव भी हो गया।”
“और शादी के लिए नहीं कहते घर वाले?”
सुरमिया हंस दी, “घरवाले कहते हैं, रूप ना रंग, तुझे कोई क्या ब्याहेगा? बल्कि देखेगा भी क्या कोई तेरी ओर? और मुझे स्कूल, कॉलेज, नौकरी पर भेजने के लिए डरते रहे यही घरवाले कि घर की इज्जत पर दाग न लग जाए कोई। वाह री दुनिया। जिस रूप से रीझती नहीं उसकी इज्जत को लूट मिट्टी में मिला सकती है। और वाह रे मेरे घरवाले। उन्हीं की वजह से तो मैं बन गई हूं “रिबेल विथ ए कौज़” (किसी कारण से विद्रोहिणी)अंग्रेज़ी की इस उक्ति को सुरमिया के मुंह से सुन शालिनी अचकचा के रह गई।
वैसे भी अंग्रेज़ी के कई शब्द बोल बोल कर वह शालिनी को हतप्रभ किए रहती। सुबह की “गुड मॉर्निंग बोथ ऑफ़ यू” से लेकर” गुड नाईट बोथ ऑफ़ यू” हो या किसी “मेडिसिन” की “एक्सपायरी “के कारण उसे “डिस्कार्ड” करने की “एडवाइज”, वह यह सब सहजता से बोल जाती। लेकिन यह सब शालिनी के लिए कभी कभी असहजता का कारण बन जाता। क्योंकि अब इस लड़की की शिकायत या उसकी मजाक वह खुले आम अंग्रेजी में गिटपिट कर अपने पति से नहीं कर सकती थी। लड़की अंग्रेज़ी समझती थी।
पर सुरमिया ही वह इकलौती नर्स मिली थी शालिनी को जो नर्स होने के अभिमान को परे रख घर के दूसरे कामों में भी शालिनी का हाथ अपनी मर्जी से बंटा देती। सूखे कपड़े तह कर देती, छोटे मोटे बर्तन मांज देती, कभी कभी सब्जी काट देती।
शालिनी के पिता शालिनी को डॉक्टर बनाना चाहते थे। पर ऐसा हुआ नहीं। पढ़ने में अच्छी थी शालिनी। वनस्पति विज्ञान में एमएससी कर लिया। फिर बड़े से किसी अफसर का रिश्ता आ गया। शादी हो गई, बच्चे हो गए। कुछ दिन बच्चे पढ़ाए फिर बच्चे अपने आप पढ़ने लगे।
पढ़ी लिखी शालिनी ने इतने साल नया सीखने के नाम पर यही सीखा कि रविवार को तुलसी तोड़ने से दोष लगता है। गुरुवार को कपड़े धोने, बाल कटवाने से घर में दरिद्रता आती है, मुख्य द्वार पर गणेश जी की मूर्ति अकेली नहीं लगाते, अमावस के दिन काली दाल नहीं बनती, सुहागनों को सोमवार को ही सिर धोना चाहिए और भी ना जाने क्या क्या। यह एक विज्ञान की छात्रा रही स्त्री का वर्तमान ज्ञान था जिसने अच्छा घर, वर पा सुख सौभाग्य बनाए रखने के लिए आस्था और अंधविश्वास के बीच की बारीक लकीर कब ध्वस्त की पता ही नहीं चला।
सुरमिया के मुंह से भीगी किशमिश को देख निकले वाक्य, “देखो भाभी ऑस्मोसिस हो गया ना” सुन शालिनी तिलमिला गई। कभी वह रोजमर्रा के क्रिया कलाप में कोई जीवंत उदाहरण देख “कैपिलरी एक्शन” बोल शालिनी को अपदस्थ कर देती तो कभी थर्मोस में रखी कार्बन की छोटी से थैली को देख “सर्फेस टेंशन” का पाठ दुहरा लेती। एक दिन शालिनी उसे कोई भाषण मार रही थी कि कैसे हम नीचे की छोटी छोटी चीजें नहीं देखते और ऊंचाई पर जाने की सोचते हैं। इतने में सुरमिया बोल पड़ी, ” हां
एपीकल बड को देखने से पहले, जाइलम और फ्लोएम को देख लेना चाहिए ही।“
शालिनी निरुत्तर हो गई। उसे खुद पर और सुरमिया पर गुस्सा आ गया। गुस्सा इसलिए कि इतने सालों में शालिनी को किसी ने दिखाया कि कैसे उसने अपने ज्ञान, अपनी शिक्षा को किसी बक्से में बंद कर जंग लगने के लिए किसी कोने में डाल दिया है, वहीं इस बित्ते भर की लड़की ने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने ज्ञान की गंगा सूखने नहीं दी। जब सुरमिया बताती कि कैसे उसके पास किताब खरीदने के पैसे नहीं होते थे और लाइब्रेरी में भी किताबें नहीं थी तब लाइब्रेरी में धूल खा रही अंग्रेज़ी में लिखी किताबों के अनुवाद से ही उसने जैसे तैसे पढ़ाई की। और यही कारण है कि उसे विज्ञान की शब्दावली अंग्रेज़ी में भी पता है, तो शालिनी खुद को बहुत बौना महसूस करती।
इसीलिए जब उस दिन पाठ के बाद उसने सुरमिया को प्रसाद दिया तो सुरमिया फिर से पूछ बैठी, “क्या पढ़ रहे थे आप?”
“सुंदर काण्ड” शालिनी ने सुरमिया को प्रसाद देते हुए कहा। “हर मंगल को पढ़ती हूं। पाठ करते समय उठती बोलती भी नहीं। पहले तो दादी भी करती थी। अब आंखों से दिखता नहीं ना तो उन के लिए मोबाइल पर लगा देती हूं हर मंगल को।”
“सुंदर काण्ड!”
“ओह! तभी इतनी सुंदर हो आप और दादी। आज पता चला! मैं भी पढूंगी अब से सुंदर काण्ड। तब मैं भी सुंदर हो जाऊंगी।”
सुरमिया के मुंह से यह भोली बात सुन शालिनी को हंसी आ गई और दया भी। और साथ ही उसे थोड़ा गुमान भी हो आया सिर्फ अपने रूप रंग का ही नहीं बल्कि इस बात का भी कि उसे धरम, कर्म, शास्त्र, पूजा पाठ के बारे में इस गांव की छोकरी से ज्यादा ज्ञान है, जबकि सच तो यह है कि सुंदर काण्ड की कई चौपाइयों के अर्थ भी नही पता थे उसे। बस हर मंगल को तोते की तरह वह यह पाठ कर लेती थी।
“हां हां तू भी पढ़ लेना सुंदर काण्ड”, उसने बड़ी उदारता से कहा सुरमिया को।
मजाक नहीं था। दादी की सुंदर काण्ड की पुस्तक ले सुरमिया अगले मंगलवार से ही शुरू हो गई ।
तीन चार मंगलवार के बाद एक दिन बोली सुरमिया, “रंग तो गोरा नहीं हुआ मेरा सुंदर काण्ड से भी। शायद इसलिए कि जब दादी को जरूरत होती है बाथरूम जाने की तो मैं बीच में ही उठ, बोल जाती हूं ना।”
शालिनी हंस दी। बोली, “गोरे रंग के पीछे क्यों पड़ी है सुरमिया? देखा नहीं आजकल तो टॉप की हीरोइन, मॉडल,ऊंचे पद पर आसीन लोग चमड़ी के रंग की परवाह किए बिना ही सफल हुए हैं। तो रंग से कुछ नहीं होता। आत्मविश्वास से होता है। ” रोटी बनाते बनाते शालिनी ने यह ज्ञान पेल दिया और सुरमिया ने बिना कोई जवाब दिए ज्ञान सुन लिया। ज्ञान कक्षा उस दिन के लिए समाप्त हो गई।
“अच्छा भाभी मुझे इंग्लिश सिखा दो ना। समझ लेती हूं पर बोलना नहीं जानती”, सुरमिया ने एक दिन शालिनी से कहा।
” बोला कर चाहे टूटी फूटी ही बोले। धीरे धीरे आ जाएगी।”
और सुरमिया का टूटी फूटी अंग्रेज़ी बोलना उसी दिन से शुरू हो गया। शालिनी कभी उसकी अंग्रेज़ी ठीक कर देती, कभी उस पर हंस देती।सच पूछो तो अब सुरमिया शालिनी को अच्छी भी लगने लगी थी। वही तो थी जिसने शालिनी को उसके विस्मृत विषय की याद दिला दी थी।लगभग सवा साल बीत गया और शालिनी की सासू मां एक दिन संसार को अलविदा कह गईं। सुरमिया बहुत रोई उस दिन।अब उसका वहां कोई काम रह भी नहीं गया था। सो वापस चली गई। शालिनी को सुरमिया के जाने का भी बहुत दुख हुआ। थोड़े दिन बाद सब सामान्य हो गया।
दो साल बाद शालिनी अपने पति के साथ कनाडा अपने बेटे के दीक्षांत समारोह में शामिल होने और घूमने गई थी। किसी होटल में मियां बीवी बैठे थे। पति के पास किसी दोस्त का फोन आ गया। शालिनी टेबल पर रखी “द डायवर्सिटी” नाम की मैगजीन उठा पन्ने पलटने लगी। सहसा एक तस्वीर देख वह चौंक गई। तस्वीर की लड़की बहुत जानी पहचानी सी मालूम हुई उसे। अंग्रेज़ी अक्षर “ओ” की आकृति वाले होठों वाली वह लड़की वैसी ही तो लगती थी। वैसी क्या वही तो थी। वही मासूम गोल होंठ। बालों को कई सारी छोटी छोटी चोटियों में बांट ऊंचे जूड़े में खोंसे हुए बकुल के फूल।
नीचे किसी विदेशी फोटोग्राफर के नाम के साथ था फोटो का शीर्षक: ” द इंडिजनस ब्यूटी ऑफ इंडिया”
मॉडल का नाम: “सुरमिया निकोरे”
( फाउंडर ऑफ द मिशन,” वन वरदान: सेव फॉरेस्ट्स)
उस विदेशी पत्रिका के चिकने पन्ने पर यह नाम कितना भव्य लग रहा था, कितना अनूठा, कितना सुरम्य जिसे असल में चमड़ी का रंग देख किसी अवांछित बेटी के लिए रखा गया था। तो क्या सुंदर काण्ड का भोला पाठ फल गया उसे जिसे दुनिया ने असुंदर करार दे दिया था? इत्तेफाक से उस दिन मंगलवार था। “उच्च शिक्षित” शालिनी ने अपने पर्स से सुंदर काण्ड की पुस्तक निकाली। उसे माथे से लगाया। मन ही मन उसने सुरमिया के सुंदर जीवन की प्रार्थना की और अपने बेटे के लिए भी जिसके उज्जवल भविष्य के लिए वह हर मंगल सुंदर काण्ड पढ़ती थी। उस बेटे के लिए जिसे वह कुछ और ही बनाना चाहती थी मगर जिसने कोई और ही विषय, कोई और ही मार्ग चुना और जो आज अपनी असफलताओं से लड़ता हुआ, सफलता की सीढ़ी चढ़ने को तैयार हो रहा था।
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