हाउसिंग बोर्ड कुम्भानगर शब्द सामने आते ही एक फ़िल्मी गीत मेरे मन में गूंजने लगता है, ‘ये गलियाँ ये चौबारा,यहाँ आना ना दोबारा, कि तेरा यहाँ कोई नहीं।‘ लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं है, उन गलियों में मेरी याद बिछी हुई है। अगर कभी नींद में सपने देखता हूँ तो सपनों में हाउसिंग बोर्ड की गलियाँ जरूर आती हैं जिनमें मेरा बचपन बीता। 1983- 84 के आसपास मैं चित्तौड़गढ़ के एक उपनगर कुम्भानगर के हाउसिंग बोर्ड में रहने आया था और मेरा दाखिला कुछ दूर स्थित स्कूल शिशु घर शाला में करवा दिया गया था। यहाँ से तीसरी कक्षा पास करने के बाद मुझे पुलिस लाइन स्कूल भेज दिया गया क्योंकि एक बार रेलवे फाटक पार करते हुए मैं रेल के नीचे आते आते बचा था। पुलिस लाइन स्कूल में कक्षा चार से आठ तक पढ़ते हुए मेरा रास्ता होता था म –16 से निकलकर म –1 होते हुए करणी माता खेड़े की गली से पुलिस लाइन में प्रवेश करना। इस रास्ते में ही मेरे अनेक मित्र बन गए। परिचय का आलम यह था कि सब लोग एक दूसरे को जानते थे। कोई ऐसा न था जिसका नाम पता दूसरों को न मालूम हो। छोटे शहरों का स्वभाव कहें या भारतीय लोगों का संस्कार, सब सब पर अधिकार महसूस करते थे और दूसरों को ऐसा करने की अनुमति भी देते थे।
हाउसिंग बोर्ड कालोनी के मध्य में एक बगीचे का प्रावधान था, जगह छुटी हुई थी और उम्मीद थी कि यहाँ बच्चों का पार्क बनेगा। तभी अस्पताल में दूध की सप्लाई करने वाले श्रीकिशन अग्रवाल इस कालोनी में रहने आ गए और उन्होंने चन्दा इकट्ठाकर पार्क की जगह पर मंदिर बनवा दिया। उनके पड़ोस में रहने वाले बिरला सीमेंट में काम करने वाले भगत सिंह जैसे कुछ लोगों ने विरोध भी किया कि इस जगह का प्रावधान बच्चों के पार्क के लिए है लेकिन मंदिर तो बन ही गया। अब रोज़ शाम यहाँ आरती पूजा के समय बच्चे इकट्ठे हो जाते और धमाचौकड़ी मचाते। अब सोचता हूँ कि ये बच्चे कौन थे, इनके परिवार कैसे रहे होंगे? समझ आता है कि हाउसिंग बोर्ड कालोनी के अधिकांश निवासी सिंधी समुदाय के थे जो भारत विभाजन के पैंतीस -चालीस साल बाद भी भटक रहे थे। इनमें सिंधी, बिलोची और खत्री लोग थे। ये लोग आर्थिक तौर पर टूटे हुए थे और फिर से खड़े होने की कोशिश कर रहे थे। निम्न समझे जाने वाले तबकों के भी कुछ परिवार थे जो छोटे मोटे काम कर आजीविका चलाते थे। नौकरीपेशा लोग भी थे तो बहुत छोटी नौकरियों वाले। इन्हीं सबसे मिलकर हाउसिंग बोर्ड का समुदाय बनता था। इसी मोहल्ले में खूबचंद जी का परिवार था जो आटा चक्की चलाते थे और भंगार का काम भी करते थे। उनके छोटे भाई शांतिलाल जी ने घर में ही कॉमिक्स की दूकान लगाईं जहाँ मैं स्कूल से आते ही चला जाता और बैठा बैठा कॉमिक्स पढता रहता। यह दौर राज कॉमिक्स के उत्थान का था जिसके चरित्र नागराज और कमांडो ध्रुव आसमानी लोकप्रियता छू रहे थे। मैं लगभग हर रोज वहां जाता और देखने के बहाने दसियों कामिक्स चुटकियों में पढ़ जाता। शांतिलाल जी कबाड़ी का काम भी करते थे, सुबह जल्दी साइकिल लेकर आसपास के गांवों में कबाड़ खरीदने जाते और उन्हें लौटते लौटते दो, तीन या चार बज जाते। मैं भी लगभग इसी समय वहां जाता और उनकी अनुपस्थिति में दर्जनों कामिक्स चाट जाता। वे शायद पच्चीस पैसे एक कामिक्स पढ़ने का लेते थे। मैं पचास दे देता और दस पढ़ जाता।
कुछ अरसा पहले सरस डेयरी के पैक दूध का आगमन हुआ। श्रीकिशन अग्रवाल सहित अनेक लोगों ने क्रमश: इसकी एजेंसी ली और कुछ कुछ दिन चलाते रहे। अग्रवाल जी की गली में ही एक कुल्फी वाले थे जो गर्मी में कुल्फी और बाक़ी मौसम में नमकीन बना कर अपने हाथ ठेले पर घूम घूम कर बेचते थे। ये अपना कुल्फी वाला ठेला कभी पुलिस लाइन स्कूल के बाहर भी लगाते थे। नमकीन बेचते हुए उनका नारा होता था, ई बढ़िया दाल, सेंव, नमकीन। हर रोज़ दोपहर बीतने के बाद लगभग चार-साढ़े चार बजे दूदू का आगमन होता था। दूदू चित्तौड़गढ़ का सबसे लोकप्रिय पागल था। हट्टा कट्टा, अधेड़ और मुस्टंडा। संभवत: वह प्रतापनगर के किसी रास्ते से पैदल चलते हुए म –19 के मोड़ से हाउसिंग बोर्ड में प्रवेश करता था और म-1 से मुड़कर आगे जाता था। अगर उसे कोई दूदू कह दे तो वह मारने दौड़ता था अन्यथा उसे किसी से कोई लेना-देना नहीं था। उसे मामा कहो तो प्यार से बोलता था। एक बार मेरे पड़ोस में रहने वाले जगदीश ने उसे छेड़ दिया। अब क्या था, दूदू बौखला गया और उसे मारने दौड़ा। जगदीश तब बारह-तेरह साल का रहा होगा। दूदू उसके पीछे पीछे दौड़ता हुआ उसके घर में घुस गया। आंटी और बच्चों के अलावा कोई बड़ा-बुजुर्ग घर में नहीं था। सब दूदू से घबरा गए और आंटी के होश फाख्ता। वह गालियाँ तो देता ही था मारपीट भी कर सकता था। क्या पता महिलाओं के साथ और क्या करे? ऐसे में जगदीश के पड़ोस में रहने वाली आशीष की माँ बाहर आईं, वे थोड़ी बड़ी आयु की अनुभवी थीं। उन्होंने जोर से जगदीश को डाँटा और दूदू से कहा, भैया मैं इसे मारूंगी आप जाइये। दूदू उन्हें बहनजी कहता हुआ चला गया।
इसी मोहल्ले की एक गली में सिंधी समुदाय के लोगों ने झूलेलाल जी का मंदिर बनाया। श्रद्धालु स्त्री-पुरुष मकान में बने उस मंदिर में जाते और कीर्तन इत्यादि करते। झूलेलाल जी की नवमी के दिन जुलूस निकलता तो लोग नाचते-गाते वहां भी जाते। मेरे पड़ोस में रहने वाली सनी की दादी हर रोज़ सुबह नहा-धोकर पूजा की थाली लेकर वहां जातीं और कुछ देर पूजा पाठ कर लौट आतीं। एक सुबह वे हर रोज़ की तरह गईं पूजा वगैरह कर निकलीं और हिन्दू पद्धति के हिसाब से मंदिर के बाहर ज़रा देर को बैठीं और फिर भगवान् की तरफ प्रणाम के लिए झुकीं। झुकने के बाद लोगों ने देखा कि वे झुकी ही हैं तो उन्हें हाथ लगाया गया, वे लुढ़क गईं। यह देखते ही हल्ला हो गया, शोर मच गया। उनके बेटे अनिल भैया और सुनील भैया को खबर मिली तो दोनों दौड़े। दादी को उठाकर घर लाया गया तब तक उनका निधन हो गया था। पूरा मोहल्ला इस अप्रत्याशित विदाई से स्तब्ध हो गया।
पुलिस लाइन स्कूल के अधिकांश विद्यार्थी इसी मोहल्ले से आते थे। वे ही नहीं हमारे प्रधानाध्यापक रामप्रसाद व्यास जी भी हाउसिंग बोर्ड से लगी हुई कुम्भानगर बस्ती के निवासी थे। स्कूल के अन्य अध्यापक हरिशंकर शर्मा जी, फतेहलाल मेहता जी, रूपसिंह मोदी जी भी हाउसिंग बोर्ड या इसके आसपास रहते थे। वर्ष 1989 के लोकसभा चुनावों में मेवाड़ के महाराणा वंशज महेंद्र सिंह मेवाड़ चित्तौड़गढ़ लोकसभा से भाजपा के प्रत्याशी बने। वे प्रचार के सिलसिले में देर शाम हाउसिंग बोर्ड में भी आए। मैंने देखा कि पैदल चलते हुए वे हमारे गलियों में घूमे और श्रीकिशन अग्रवाल जी के घर उन्होंने चाय पी, जलपान किया। उनके हाथ में छोटी सी टोर्च थी जिसे जरूरत पड़ने पर वे जला लेते थे। यह 1989 का लोकसभा चुनाव था जिसमें वे विजयी रहे।
इसी मोहल्ले में थोड़ी सी जमीन पर सिकलीगर लोगों ने कब्जा कर लिया था और वे रात दिन लोहा पीटते। उनका पेशा था चाकू, छूरी , तलवार और गृहस्थी के कुछ औजार जैसे चलनी, संडासी बनाना। सस्ता लोहा लाने के लिए वे डामर के खाली डिब्बों को जलाते ताकि डामर साफ़ हो जाए। और जैसा भारतीय मजदूरों का स्वभाव है काम करते हुए तेज आवाज़ में फ़िल्मी और गैर फ़िल्मी गीत टेप रिकार्डर पर बजाते। मोहल्ले के लोग इनसे दुखी रहते और इन्हें अतिक्रमी मानते। इनके विरुद्ध शिकायतें भी होतीं। एक बार यह भी हुआ कि कुछ लोग नगरपालिका अध्यक्ष के पास गए कि इनसे मुक्ति दिलाएं, उन्होंने मुस्कुराकर कहा कि आप ही इनकी ज़मीन खाली करवा लीजिये और सामुदायिक भवन बनवा लीजिये। ये लोग सामुदायिक भवन की मांग भी कर रहे थे। सच्ची बात तो यह है कि इन लोगों की वजह से हाउसिंग बोर्ड में चोर आने की हिम्मत नहीं करते थे और इन लोगों ने ही हमारे त्योहारों को गुलज़ार किया। हरियाली अमावस आने के पंद्रह दिन पहले ये बारिश के गीतों वाले कैसेट बजाना शुरू कर देते थे।
मेरे लिए ये गलियाँ अब सचमुच सपनों की बात हो गई है लेकिन जब चारों लोकों के स्वामी श्रीकृष्ण ने उद्धव से विह्वल होकर कहा था, ‘उधो मोहि ब्रज बिसरत नाहीं‘ , तब मुझ जैसा मामूली मनुष्य अपने बचपन की गलियों को कैसे भूल सकता है ?
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बेहद शानदार संस्मरण। बचपन की याद दिलाने वाला। 👌👌