महाभूत चन्दन राय द्वारा फेसबुक पर लगाई जा रही इन कविताओं पर
निगाह पड़ते ही ठहर गई। मैंने उनसे अनुनाद के लिए इन्हें मांगा और और उन्होंने मेरे
अनुरोध का मान रखा। इस चयन और टिप्पणी के लिए शुक्रिया साथी, हमें नए समय में हमेशा यह साथ चाहिए… ऊर्जा के नए स्रोत में अभी और कवि आने हैं।
***
ऐसे कविता दौर में जबकि आप अपनी सारी बधाईयाँ, सारे पुरस्कार, सारी शब्दावली, अपने चमचों,अपने गिरोहों,अपने गर्भ से पैदा किये नकलनवीसों
को होम कर चुके हों ! जब कविता के रहबर सामूहिक स्वर में बिगुल बजाते हुए रोज अपने किसी आत्मिक को कविता–सम्राट घोषित कर देते हों ! पुरस्कारों के लॉटरी बाजार में कोई एक कविता आपके कवि होने की लॉटरी हो !
ऐसे कविता–समय में जब अग्रज कवियों की साहित्यिक भूमिकाएं संदिग्ध हो ! उनके उत्तरदायित्व निहायती निजी चीज हो ! आलोचनाएँ हतप्रेमी चारणों की तरह महज यशोगान की पीपनी बजाना ही जानती हो ! साहित्यिक अभिरुचियाँ
गिरोहों की तरह काम कर रही हों ! जब शब्दों और विचारों से अधिक किसी साहित्य में दोस्तियों,गुटबाजियों,परिचयों,
तस्वीरों ,ईर्ष्याओं और कुंठाओं के लिए अधिक जगह हो !
जब हमारा कविता–बोध आत्म–केंद्रित, आत्म–मुग्द्ध, परिचय–निष्ठ,पुरस्कार–निष्ठ भर बन कर रह गया हो ! जब हम कविता–निष्ठ न होकर कवि–निष्ठ अधिक हो ! जब पुरस्कार ही किसी
कविता में आपकी अभिरुचि का पाठकीय पैमाना हो !
जब रचनात्मकता परिचयों की मोहताज बन रही हो ! हमारी कविताओ में रचने का शिल्प हो या स्वीकार्यता का शिल्प सब कुछ इकहरा होता
जा रहा हो ! ऐसे साहित्यिक
समय में जब लेखक बहुत अधिक हो और पाठक बहुत कम ! जब पढ़ने का कौशल छिन्न हुआ जा रहा हो !
— सोचिए ऐसे कविता परिवेश में कविता करना कितना खतरनाक होगा ??
मगर हिंदी कविता का साहस देखिये की ऐसे ही कितने संघर्षों, उत्पातों, परम्पराओं के बनने और टूटने की प्रक्रिया से गुजरती हुई हिंदी
कविता खुसरों,कबीर ,तुलसीदास ,वृन्द ,निराला ,प्रसाद ,शमशेर मुक्तिबोध ,पंत,सर्वेश्वर ,राजकमल, धूमिल, अदम,नागार्जुन,केदारनाथ सबको खुद में समाहित करते हुए आगे बढ़ती है और कविता के नए प्रतिमान गढ़ती है !
किन्तु इक्क्सवी सदी की कविता अब तक अपरिलक्षित है ! उसमे एक निष्क्रिय
होती स्थिरता आ चुकी है ! यह अपनी गति प्रवाह
के लिए “ऊर्जा के नए स्त्रोत” ढूँढ रही है जो
उसे एक नवसंचार ,नया परिवेश, नई भाषा,नया आवरण, नई ताकत से भर सके की वह कविता ही नहीं मानवता के नए संकटों से जूझ सके ! उसे अौजारों और हथियारों की नही नए विचारों की दरकिनार है !
यहाँ प्रस्तुत कवितायेँ इक्कीसवी सदी की हिंदी कविता की ऊर्जा
के स्त्रोत की बानगी भर है ! इन कविताओं तक पहुँच पाना इस बात का भरोसा भर नही है की वह कविता
के तमाम संकटों ,दुर्व्यवस्थाओं के बावजूद आप ही बहुत अच्छे से खुद को पोस रही है बल्कि वह अपनी आत्म–निर्भरता और अपनी व्यापकता का दावा भी पेश करती है ! इन कविताओं को
पढ़ना खुद को ऊर्जा से भर देने जैसा ही है और साथ ही इस बात की आश्वस्ति की हिंदी कविता
का यह कोश नए कवि रत्नों से समृद्ध हो रहा है जो इस उत्तर–आधुनिक संस्कृति के भ्रामक
बहकावे से दूर अपनी जगह खुद बना रहे है !
एक पाठक के तौर पर मैं आप से आग्रह करूंगा की यदि आप अपने रचे
के अहंकार से भरे है तो इन कविताओं को न पढ़े ! यदि आप दया से भरे है तो भी इन कविताओं को न पढ़े ! यदि आपके भीतर
इन कवियों के प्रति सहानभूति पनप रही हो तो इन्हे न पढ़े ! यदि आप किसी पुरस्कार समिति के अध्यक्ष, किसी संपादक, किसी निर्णायक
की तरह इनमे श्रेष्ठता की गुंजाइश ढूंढने के लिए इन्हे पढ़ रहे है तो इन्हे न पढ़े !
मगर हाँ यदि आप इन्हे एक पाठक की तरह पढ़ रहे है तो जरूर पढ़े
और कवि को पाठक के मन की बात कहे…
कवि-1 / प्रदीप अवस्थी
मैंने औरों
के प्रति बरती ईमानदारी
इसमें अपने
प्रति ग़द्दारी छिपी थी |
वे प्रेम
जैसा कोई शब्द पुकारते हुए मेरे पीछे दौड़े
मैं यातना
नाम का शब्द चिल्लाते हुए उनसे बचकर भागा |
गिड़गिड़ाते
हुए लोगों की आँखों में झाँककर देखा जाना चाहिए
वे बचाना
चाहते हैं कुछ ऐसा
जो जीवन
भर सालता रहेगा |
कहानियाँ
बस शुरू होती हैं,ख़त्म कभी नहीं
ख़त्म हम
होते हैं |
और मैं
कहना बस यह चाहता था कि
मैं उन्हें
ज़रूर पहचानता हूँ
लेकिन उनके
लिए या अपने लिए क्या हूँ
मैं नहीं
जानता |
***
रोजमर्रा
सोचते हुये,,
मेरा स्वभाव
उल्टा हो जाता है
हर रोज
मैं उल्टा
चलते हुये,, तुम्हारी देहरी
तक
पहुँचता
हूँ
रोज
पत्ते जमीन
से उठकर डालों से जुड़ने लगते हैं।
रफ्तारें
अपनी आवृति में मानो जम जाती हैं,, तब
ठहराव ही
ठहराव दौड़ता है,
वक्त की
साँसो में
“बाहर“,, बाहर की ओर सुकुड़ने लगता है,, जैसे
“भीतर” फैलता चला जाता है मेरा
भीतर की
ओर
इसी भीतर
के भीतर है समय,
समय के
भीतर हूँ मैं
मेरे भीतर
है “ये बाहर“,, जिसके कि भीतर
मैं चले
चला जाता हूँ
उल्टे कदम।
तमाम मंदिरों
से,, मैं
ईश्वर को “मरा मरा” सुनता चलता हूँ।
कुछ बच्चे
खिलौने वापस करके,, अपने घरों में
चले जाते हैं
उल्टे कदम
तुम भी
अपने स्वर–शब्द वापस ले लेती हो
रोज।
***
कवि-3/ आदित्य
कुछ दिन
भटक कर वापस लौट आई कुर्सी की आत्मा
अपनी आत्महत्या
के पूरे उन्नीस दिन बाद
जिसके गले
में लटका फांसी का फंदा
लतर रहा
था जमीन पर गंदा होकर.
आकर, घर लौटकर कुर्सी
की आत्मा
कुर्सी
पर गिर गई निढ़ाल होकर
आत्मा का
स्पर्श मिला
हलचल हुई
कुर्सी के कुछ हिस्सों में
पायों में, हत्थों में
रेंगने
लगे लकड़ी के कीड़े
ज्यों अचानक
थमा हुआ रक्त बहने लगता है नसों में, धमनियों में.
रेंगने
लगे लकड़ी के कीड़े छोटे–छोटे काले–भूरे कीड़े
किर्र–किर्र आवाजें करने लगे
थमे हुए
अंधेरे समय में होने लगा स्पंदन.
कांपने
लगा चेहरा
भुरभुराने
लगे पाये बुरादा बनकर.
अपनी आत्महत्या
के ठीक उन्नीस दिन बाद लौट आई कुर्सी की आत्मा
कि उसकी
लकड़ी से कोई ताबूत न बना दें लोग
किसी जिंदा
या मरे हुए इंसान को दफनाने के लिए.
***
अनुनाद तक पहुँचाने के लिए चंदन भाई और शिरीष जी का शुक्रिया |
सोमेश शुक्ला और प्रदीप जी की कविताये विशेष रूप से पसन्द आई……ऐसी कविताओ के लिए बहुत बधाई
शिरीष सर को भी बधाई !
शुक्रिया आपका इन उम्दा कविताओं को पढ़वाने के लिए
बहुत ही उम्दा
कविताओं के साथ लिखी गयी प्रस्तावना से सहमत हूँ । इन कविताओं में शिल्प की ताजगी है और अपने परिवेश के प्रति सजगता । इन सभी नए रचनाकारों से उम्मीदें हैं , बधाई । धार बनी रहे