अनुनाद

मथुरादत्‍त मठपाल की कविताओं का अनुवाद / कृष्‍ण चन्‍द्र मिश्रा

आङ्-आङ् चिचैल है गो !

आङ्-आङ् चिचैल है गो !

हिकौ-हिकौ कुकैल है गो ।

मुखां-मुखां म्वडैन फोकी गे ।

पौन-पाणी सैद विखेल है गो ।।

मनखियं’ पिरैन मनखी केँ लागणे ।

अपणे खून में तितेन लागणे ॥

को थोल सुबास धरी रंगे-

हर हंसि में यां खौंसेन लागणे ॥

बुकै खानेर अपणै छैल है गो ।

आड़्-आड़् चिचैल है गो ॥

कां लुकीणी आज फूलौं’ बास ?

कां हराणी आज पौने’ सांस ?

जुन्यालि को कुण गुमची, भलस्यो,

गगास धरी रै किलै टटास ??

धरती’ पटाड्ण कदू’ तेल है गो !

आड़्-आड़् चिचैल है गो ॥

रामनामी- दुप्वट मैल है गो ।

फकीरी- च्वाल कैल है गो ।

मन्दिर-मस्जिद – गुरुद्वारां में डोईन-

भगवान रंढकौर लं चनैल है गो ।

स्वरगौ’ ग्वैर बज्युण कनैल है गो 

आड़्о- आड़्о चिचैल है गो

को भगीरथ गंग बट्यैंला ?

को दधीचि हाड़ चड्यँला ?

मनख्यो’ सितौं’ सुलाड० लगुनेर-

हणुमन्तों कैं को जनमैंला ?

बखत पट्ट बांजऽ – बैल है गो ।

आड़्о-आड़्० चिचैल है गो ॥

आड़्о-आड्० चिचैल है गो ।

हिको-हिको कुकैल है गो ।

मुखां-मुखां म्वडेन फोकी गे ।

पौन-पाणी सैद बिखेल है गो ॥

 

कविता का हिन्दी भावानुवाद

हर शरीर खुजलीदार हो चुका है

हर एक कलेजे में जलन फैल चुकी है

 हर चेहरे पर मृत्यु कालिमा

 फैल गयी है

 पवन-पानी सब जहरीला हो चुका है।

 

 आदमी आदमी की आंखों में चुभ रहा है

 अपने ही खून में कड़वापन लग रहा है

 किस मुंह में आज अच्छी वाणी बची रह गई-

 हर हँसी में यहाँ जली मिर्च की

 गंध आने लगी है।

 

 अपनी ही परछाई भी

काटने/खाने को आ रही है,

हर शरीर खुजलीदार हो चुका है।

कहाँ छुपी आज फूलों की खुशबू …………….?

कहाँ खो गयी

 आज पवन से प्राणवायु  …………….?

चांदनी किस कोने छुप गयी, भले मानुषो!

 गगास क्यों रह गयी निराश/प्यासी………………………?

धरती का आंगन कितना तप गया है

हर शरीर खुजलीदार हो चुका है।

 रामनामी दुपट्टा मैला हो चुका है

फकीरी का चोला काला हो चुका है

 मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे में भटकने वाला

भगवान अभागा भी धुंधला हो चुका है।

 

स्वर्ग का रास्ता भी बंजर हो चुका है

हर शरीर खुजलीदार हो चुका है 

 कौन सा भागीरथ गंगा को रास्ता दिखाएगें ………?

कौन दधीचि अपनी हड्डियाँ को चढ़ाएंगे…………….?

खोयी मानवता की सीता का पता लगाने-

 कौन हनुमंतों को जन्म देगा…………….?

 वक्त बन्ध्या हो चुका है

हर शरीर खुजलीदार हो चुका है 

हर शरीर खुजलीदार हो चुका है 

हर एक कलेजे में जलन फैल चुकी है

हर चेहरे पर मृत्यु कालिमा

 फैल गयी है

 हवा – पानी ही शायद जहरीला हो चुका है॥

*** 

courtesy : Bhaskar Bhauryal

 

 

 जभत जांलै

जभत जांलै-

तुमरि चुल्याण पाकी

चुव – सिसुणो’साग

पात-पतेलों में धरि-धरि

बाखइ भरी’

कुड़ि-कुड़ियों तक जाने रुंछी ।

जभत जांलैं-

हमर पटाङण में भरी

एक चिलम तमकौ’ धूं

दस-जोड़ी नाखा’ सोरों’ बाटऽ

उरातार-

भ्यार छुटण देखींछी।

और जमत जांलै-

उनरि डौंकोई छां

(पन्त-गौं बटि गैर-गौं तक नी लै पुजौ)

बलघर-पलघर

देई-बांटी-खाई जैंछी।

और-

माल-भराण- डानि-डोलि कैं

अपणि कानी दीणा लिजि

मैं-लै, मैं-लै हुंछी ।

और-

भात-बरयतों में

क्वे खगी दा’क

या क्वे डोई का’क

उनरि ठाड़ि धोति पैरि

और हात मजि तस्याल लिबेर

उण देखीण जालै

जात – बिरादरी

दाव-भात में

हातै नि डौबी दीछी।

और-

रान-रनकुलियां हौव-तांङौ

उनार पेट-मुया’क-

हौवा’ हथिन थामण जालै

गौक सौर ज्यु-ज्याड़ ज्यु या दयोर

चलै दींछी।

और-

निरपंखि – निरबसि

क्वे पदुलि काखी’

छौं-छड़णा’ लिजी

द्वी-चार ख्वर

मुनियण हुं

औप्पै अघी जांछी।

और-

आणा-कांथों पारि मेथी

सतके गौ’क हयूना’ रात

एक्कै आग’ कि-एक्कै चाख’ कि निमैलि में,

होइ-दिवाइयों पारि मेड़ी

अरग गौं’क ख्यलकार दिन

एक्कै खोइ’कि-एक्कै पटाढण’ कि धेलि में,

थुपुड़ी ऊंछी।

ओर-

ओर-

थोलों’ हंसि’र-

अंखां’ आंसि में,

गोरू’ गुथाण’र-

मुदौ तिथाण’ में,

तौली’ भात’र-

द्याप्तां’ जांत में

व्वड़-स्यून-

घटी नि रुंछी।

और

जभत जालैं-

रात हुणि-

अगासै’ गुरमाइ दिखैं

गौँ’ बुडि आमs

गौं भरि कैं

लोक-छीद बतुनै रुछी, कि-

‘चाओ धैं म्यर गेल-पोथिलो,

यो सात बैंणियां’ ल

एक तीला’ बीं

बानि खा, बल।’

तभत जांलैं-

म्यर पहाड़-

पहाड़ हैबेर लै

सकर गरु छी

दादी॥1॥

कविता हिन्दी अनुवाद

जब तलक 

तुम्हारे चूल्हे में पका हुआ 

साधारण सा भोजन भी

पत्तों-दोनों में रख-रखकर 

मुहल्ले भर के घर-घरों तक जाता रहता था 

जब तलक 

हमारे आंगन में 

भरी एक चिलम तंबाकू का धुआं

दस जोड़ी नासिका छिद्रों से

लगातार बाहर छुटता दिखता था 

जब तलक उनकी 

कठौती की  छांछ

पन्त गांव से लेकर गैर गांव तक(बहुत लोगों तक) नहीं भी पहुंचे 

पास-पड़ोस के घरों में दी बांटी खाई जाती थी 

और

 कड़ियों- बल्लियों, अर्थी- डोली को

अपना कंधा देने के लिए 

‘मैं भी’ ‘मैं भी’ होती थी 

और 

भात बरातों में किसी अदने बिरादर के

 खड़ी धोती(लंगोट) पहनकर

हाथ में तसला लेकर आने तक 

जात बिरादरी 

दाल भात को

 हाथ नहीं लगाती थी 

और 

 किसी गर्भवती असहाय विधवा के 

 गर्भस्थ शिशु के

हल का हत्था थामने लायक ।होने तलक

 गांव के ससुर जेठ जी या देवर उसके खेतों में हल लगा देते थे

और

 असहाय(साधनहीन) निरवंशी किसी  महिला की 

मृत्यु के बाद 

छूत (अशौच) छुड़ाने के लिए 

दो चार लोग अपना सर 

मुंडवाने को

 अनायास आगे आ जाते थे 

और

 पहेलियों कथाओं पर उलझी सारे गांव की जाड़ों की रातें 

एक ही आग

 एक ही बैठक की मन्द तपन में

 होली दिवाली पर लिपटे

 सारे गांव की खुशी के दिन 

एक ही खोली

एक ही आंगन की देहरी में

जमा हो जाते थे 

होठों की हंसी आंखों के आंसुओं में

 गाय के गोठ 

मुर्दों के श्मसान घाट में

पतीली के भात 

देव यात्रियों के समूह में 

विभाजन चिन्ह और रेखाएं नहीं थी 

और 

जब तलक आकाश में सप्त ऋषि   को दिखाकर

 गांव की बुढ्ढी अम्मा 

गांव भर 

लीक-सीध बताती रहती थी 

देखो तो मेरे बच्चों 

इन सात बहिनों ने 

एक तिल का दान भी बांट कर खाया था 

सुनते हैं

तब तलक्

 मेरा पहाड़

 पहाड़ से भी 

अधिक भारी था 

  भाई।

***

courtesy : bhaskar Bhauryal

 

बस, चारै ढुङ ।

चार ढुङ ठड्यै द्याला-

दयाप्तां’ थान बणि जानी ।

चार दुङ रड़यै द्याला-

पिरेतों’ समसाण बणि जानी ।

दयाप्त, घत्याई-

योई मन में मनखी-

इनसान के, भगवान बणि जानी ।

योई तन में मनखी-

हैवान संतान बणि जानी ॥

हैबान-संतान

भूत- मसाण बणि जानी ।

बाट, घत्याई-

भ्यो- पखाण बणि जानी ।

मन, बज्याई-

घाट- तिथाण बणि जानी ।

तन, बुस्याई-

कनां’ दिसाण बणि जानी ।

चार ढुङ ठड्यै द्याला-

याप्तां’ थान बणि जानी ।

चार ढुङ रड् ये द्याला–

पिरेतों’ समसाण बणि जानी ।

तब, जिन्दगी’ बांसल के बणाला-

कि, मोहनें’ मोहनि मुरुलि ?

कि राधिका’ रङिलि पिचकारि ?

कि, गोप्यण्यों चुपिलि मथाणि ?

कि, गोपालों’ पहरु जांठि ?

 

योई बांस आपस में घुसी-

अपणां’ आग बणि जान

योई बांस बालड़ि ऐ गे

बज्युणी -बूस्युणी भाग बणि जानी

चार ढुङ ठड्यै द्याला-

व्याप्ता’ थान बणि जानी।

चार ढुङ रड़यै दयाला-

पिरेतों समसाण बणि जानी ॥

बस, चार ढुंग

 

कविता हिन्दी अनुवाद

चार पत्थर खड़े कर दोगे 

देवताओं के थान बन जाएंगे

चार पत्थर गिरा दोगे 

प्रेतों के शमशान बन जाएंगे 

इसी मन में मानव

इंसान क्या भगवान बन जाते हैं 

इसी तन में मानव

हैवान-शैतान बन जाते हैं 

पुकारे हुए देवता भूत-मसान बन जाते हैं

घटाए हुए रास्ते पर्वत-चट्टान बन जाते हैं 

बंजर मन घाट- शमशान बन जाते हैं

निर्जीव तन

कांटों के समान बन जाते हैं 

तब जिंदगी के बांस से क्या बनाओगे

 मोहन की बांसुरी 

या 

राधिका की रंगीली पिचकारी गोपियों की चुपड़ी मथानी 

या

 गोपालों की लाठी 

आग फूकने वाली फूंकनी भी इसी की 

और दुनिया फूंकने वाली अर्थी भी इसी की

 यही बांस आपस में रगड़कर 

अपनों के लिए आग बन जाते हैं 

यही बांस बाल आने पर

 बंजर निर्जीव करने वाले भाग बन जाते हैं 

चार पत्थर खड़े कर दोगे

 देवताओं की थान बन जाते हैं

 चार पत्थर गिरा दोगे

 प्रेतों के शमशान बन जाते हैं

 सिर्फ चार पत्थर……….

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courtesy : Bhaskar Bhauryal

 

बिकास है रौ !

हरि गौ-गाडौं’ भलस्यो-

भल बिकास है रौ ।

पाणि, सभापति ज्यु के मुख देखिणौ-

गौं तौ टटास ले रौ ॥

सबु पैली यां एक इसकूल खुलौ ।

मैंल स्वचौ-

सैद, म्यर गोठी कैं ले अब ज्ञान मिलौ ।

पर, एक दिन दुलपीदा’ल बता-

यो इसकूला’ मास्टरों’

छन्चर हाफ रौं,

(इतवारै’ छुट्टी भइ)

सौमार साफ रौं ।

और, धरमानन्द हेड-संबु कैंतो

हफ्त में द्वी-एक दिन

और लै माफ रौं ॥

सुणण में ऐ रौ-

यो साल हमर जिला’

सर्वोत्तम अनुशासन’ पुरस्कार

हमरै इसकूलक’ पास ऐरौ ॥

हमरि गौं-गाड़ौ…………..

जो छियो सभापति ज्यु’क-

पुराणs गौसाव,

बी में आज-भोव

खुलि रौ असपताव ।

महाराज,

सरकारि असपताव-

न डाक्टरों’ कंकाब ।

न कम्पोटरों’ जंजाव ।

च-घड़ि, नरराम वार्ड-बौयै

उघाड़ि द्यू- द्वार-स्वाव ।

को दिन रत्तै-

के दिन ब्याव ||

अब चौं-

ख्वर में पड़ी हो झमरताव,

या पेट में उलटी हो नाव,

या दगड़े चली हों दस्त-उखाव,

या लिजाणियै ऐ जौ काव,

नररामा’ हातों´ल-

चार सुकिलि गोइयों’ ऐ जां ढाव ॥

अनोपान छोटू जमदार बतं द्यु –

‘महाराज, दबा गरम च्या के संग खाव॥’

झुपुलि काखि

कुरुलि दिदि थे कुणंछी, बल-

‘नरराम और छोटव’ल जै

डांढरी भल भ्यास पेरौ ।’

हमरि गौ-गाड़ों…..

पै बणि हमर गौं तक सड़क ।

मोटर पुजण हैबेर पैलियै

गौं में पुजि गे भड़क |

पिं भै गय बाउ बुड़

हड़क – हड़क ।

हम द्वि नि-पिणियां ल

एक फ्यर विरोध लै करौ-

तब-

चार पिणियाँल छोड़ि नड़क ।

आठ पिणियां´ल छोड़ि कड़क ।

और, बांकि पिणीं बौंल खुरसि

दगड़े ठाड़ है गय-चड़क-चड़क ।

हम द्वीनों कैं कान-

खटखटाई गय-खड़क – खड़क ।

हमुल माफि मांगि

कौय-

है रौ यप्तो, हम द्वीनों कैंल

कसूर खास है रौ ॥

हमरि गौं-गाडौ………’

और, महाराज अब –

छै म्हैण पैली हमर गौं में

बिजुलि -पाणि ले ऐ गई-

दगड़े – एक बट्टे ।

बिजुलि वाबोंल-

लकड़ा’ पोल ठड़यै रखीं ।

पाणि वावों´ल

लुआ’ नल खड्ये राखीं ।

बरसों कलबिस्टै जं जागर लगे

यो द्वी द्यप्त-

गौं-गाड़ में गड़ै राखीं ।।

और, यों द्वीयं व्याप्त-

अमुसि-दुमासै गौं में खुट-धरनी,

कभतं रामदत्त’क

और कभतै भास्कर क

पंचाङ चै बेर जासऽ औतरनी ॥

पाणी’ नल कै दिन अदरात कैं चलौं,

जभत सब भितेर दिसाण में हड़ी हुनी ।

बिजुली बल्ब कै दिन धोपरि कैं जलों,

जभत सब भ्यार काम में खडी रुनी ।

सिरफ, बिजुलि-पाणी’ बिल-

हर म्हैण हमर चाख’म खेड़ी रुनी ||

मैंल ग्राम-पंचैत में प्रस्ताव धरौ-

“बिजली’ होल्डरों पारि-

पाणी’ टोंटि कसबै दियो ।

और, पाणी’ नलाँ पारि

बिजुली बल्ब लगवे दियो !

किलें कि तस करण’ल लें

जनता जनार्दन’ सेवा में

फरक क्वे खास नि पड़ौ ।

और, है सकुं कि तस करणै’ल

द्वीयै डिपार्टमेण्टों कि साख बड़ौ ।।”

बेली डुङरी पंच बतुणौ छी, बल-

म्यर वालऽ प्रस्ताव, पास हैरौ ॥

हमरि गौं-गाड़ौ’……….

कविता हिन्दी अनुवाद

हमारे गांव इलाके का भले मनुषो

अच्छा विकास हो रखा है

 पानी सभापति जी के चेहरे पर ही दिख रहा है 

सारा गांव तो प्यासा  है 

सबसे पहले यहां एक स्कूल खुला मैंने सोचा 

शायद मेरे छोरे को भी अब ज्ञान मिलेगा

 पर एक दिन दिलीपदा ने बताया इस स्कूल के मास्टरों का

 शनिवार हाफ(आधा) रहता है (रविवार की छुट्टी हुई)

 सोमवार साफ रहता है

 और 

धर्मानन्द हेड साहब को तो

 हफ्ते में दो एक दिन

 और भी माफ रहता है।।

 सुनने में आ रखा है

 इस साल

 हमारे जिले का सर्वोत्तम अनुशासन का पुरस्कार

 हमारे स्कूल के पास

 आ रखा है

 हमारे ग्रामीण क्षेत्र का अच्छा विकास हो रखा है ………

जो थी सभापति जी का 

पुराना गौशाला

 उसमें आजकल खुल रखा है   महाराज सरकारी अस्पताल

 ना डॉक्टर का कंकाल 

न कम्पोटरों का जंजाल 

चार घड़ी नरराम वार्ड बॉय 

खोल देता है  दरवाजे कभी सुबह 

कभी शाम 

अब चाहे

 सर में हो रहा हो भयंकर दर्द 

या पेट में उल्टी हो रखी हो नाल या साथ ही चल रहे हो उल्टी और दस्त या 

ले जाने के लिए आ चुका हो काल 

नरराम के हाथों से

 चार सफेद गोलियों का आ जाता है काल 

 छोटू जमादार बता देता है महाराज दवा को गर्म चाय के साथ खाना 

झुपुलि चाची कुरुली दीदी से कह रही थी

नरनाम और छोटू ने जो

 डॉक्टरी का अच्छा अभ्यास पा रखा है 

हमारे गांव गधेरे का अच्छा विकास हो रखा है…… 

फिर बनी हमारे गांव तलक् सड़क 

मोटर पहुंचने से पहले

 गांव में पहुंच गई भड़क 

पीने लग गए बच्चे-बूढ़े हड़क-हड़क ।

हम दो नहीं पीने वालों ने

 एक बार विरोध भी किया

 तब

 चार पीने वालों ने छोड़ी नड़क 

 आठ पीने वालों ने छोड़ी कड़क 

और बाकी पीने वाले बाहें ऊपर करके 

खड़े हो गए चडक -चडक

हम दोनों के कान 

खटखटाए गए खड़क खड़क

 हमने माफी मांगकर कहा 

हो रखा है देवताओं हम दोनों से

 कोई कुसूर खास हो रखा है

 हमारे गांव गधेरे का अच्छा विकास हो रखा है…….

 और महाराज अब

 छ: महीने पहले हमारे गांव में

 बिजली पानी भी आ गए

 साथ ही एक ही रास्ते

 बिजली वालों ने

 लकड़ी के पोल खड़े कर रखे हैं 

पानी वालों ने

 लोहे के नल खड़े कर रखे हैं ।

बरसों कालविष्ट जैसी जागर लगाकर

 ये दोनों देवता

गांव क्षेत्र में गाढ़ रखे हैं 

और 

यह दोनों देवता 

अमावस्या और प्रतिपदा के दिन गांव में पैर रखते हैं

 कभी रामदत्त कभी भास्कर का 

पंचांग को देखकर  उतरते हैं

 पानी के नल किसी दिन आधी रात में चलता हैं 

जब सब भीतर बिस्तर में सोए होते हैं

 बिजली के बल्ब किसी दिन दोपहर में जलता हैं

 जब सब काम में बाहर खड़े होते हैं 

सिर्फ बिजली पानी के बिल

 हर महीने हमारे बैठक में पड़े रहते हैं 

मैंने ग्राम पंचायत में प्रस्ताव रखा बिजली के होल्डरों पर 

पानी की टोटी कसवा दो 

और पानी की नलों पर बिजली के बल्ब लगा दो

 क्योंकि ऐसा करने से 

जनता जनार्दन की सेवा में कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा

 और हो सकता है कि ऐसा करने से 

दोनों विभागों की साख बड़े 

कल डूंगरी पंच बता रहा था

सुनने में आया है कि मेरा वाला प्रस्ताव पास हो रखा है 

हमारे ग्रामीण क्षेत्र का अच्छा विकास हो रखा है।

*** 

courtesy : Bhaskar Bhauryal

 

बौयाणि गध्यर य

सोरि-सोरि ल्यत -कादौ, कोरि-कोरि व्वड़ भिड़,

टोड़ि – टोड़ि नाज – पात, बौयाणि गध्यर य ।

उखाइ बै खुम – खुन, निखाइ बै इन – स्युन,

बुकाइ बै डइ – ढुङ, बौयाणि गध्यर य ।

होइ जाँछौ अतर य, ‘मनखा’ छ खतर य,

छतर बतर लगाँ, बौयाणि गध्यर य ।

खाड़ जसि खनि- खनि, धाड़ जसि मारि – मारि,

मे कुड़ी का काख बगूँ, बौयाणि गध्यर य ।।१।।

 

सारै साल सितिया रौं, लधरिया – हड़िया रौं

क्वे चौमास चितै जाँछौ, बौयाणि गध्यर य ।

पसरि पसरि बेर, लदगुया लगै बेर

 यां बै- वाँ बै, बटी उंछौ, बौयाणि गध्यर य ।

चुपड़ल कदू मेटी, रौलि अ छिरौलि भेटी,

बार ठौरों पाणि ‘मन्खा’, बौयाणि गध्यर य ।

बमकनै सारि सारि, धमकनै हाङ – गाड़,

भमकनै अई जाँछौ, बौयणि गध्यर य ।। २ ।।

 

अबटाँ अबटाँ जाँछौ, निडर अढिटाँ जाँछौ,

फाव जसि मारनै कि, उछाव जसि मारनै,

ट्यड़ाँ जाँछौ, सिदाँ जाँछौ, बौयाणि गध्यर य ।

धुरकनै बाट लागौ, बौयाणि गध्यर य ।

धुधाट – फुफाट करी, सुसाट – गुगाट करी,

कानों कणि कल्यै खाँछौ, बौयाणि गध्यर य ।

‘मन्खा’ जसै ट्यड़ छ य, निखद – किकड़ छ य

फिरौट र घ्यर – फ्यर, बौयाणि गध्यर य ।।३।।

अल्बलुवा भौत छ य, बल्बलुवा भौत छ य,

खल्बलुवा भौत भागी, बौयाणि गध्यर य ।

डनकाई सनकाई,उचकाई मतकाई

खचोरी – खिर्दोयी जस, बौयाणि गध्यर य ।

इतरुवा छितरुवा ‘मनखा’ य अफरुवा,

अतरुवा बणि जाँछौ, बौयाणि गध्यर य ।

उण जाँछौ – कुण जाँछौ, जानै – जानै मुण जाँछौ,

उना – उना – उन्ना जाँछौ, बौयाणि गध्यर य ।।४।।

 

झाइनल झाड़नै ज, जिबड़ल चाटनै ज,

लसपट करि लिजाँ, बौयाणि गध्यर य ।

म्वय जस घोसि लिजाँ, खउ जस लिपि लिजाँ,

सिङाड़ ज पोछि लिजाँ, बौयाणि गध्यर य ।

मारखुलि बल्द जस, खादकुलि कुकुर ज,

ऐलाग जैलाग करूँ, बौयाणि गध्यर य ।

सिपुड़ि ज लागी नाग, अदघैल बणी बाग,

तड़बड़ – तड़फड़, बौयाणि गध्यर य ।।५।।

 

छोलिया ज नाचि – नाचि, धौंस्याल जा खेलि – खेलि,

भेटनै ज धेलि – धेलि, बौयाणि गध्यर य ।

लफाउनै जाव जसो, लगुनै फट्याव जसो,

मछई तिताव जसो, बौयाणि गध्यर य ।

आँतरीनै – घरीनै ज, आल-चाल दिखुनै ज,

जाँत जसि बाट लागीं, बौयाणि गध्यर य ।

कानों कें कल्ताइ यूंछौ, खोरि कें झन्ताइ युंछौ,

नाड़ि कें सुन्ताइ युंछौ, बौयाणि गध्यर य ।। ६ ।।

लैटू जस डौरी बेर, लैरू जस फौरी बेर,

च घड़िक खेल दिखाँ, बौयाणि गध्यर य ।

बाखई अ खोई गजै, चुहोई अ होई मचै,

च घड़ी में थमी जाँछौं, बौयाणि गध्यर य ।

गौं – गाड़ के हलकाई, कोठि- हिय चलकाई

च घड़ी में घरी जाँछौं, बौयाणि गध्यर य ।

ढण्ड र पखण्ड करी, नटार-नखर करी,

रहप में अमै जाँछौ, बौयाणि गध्यर य ।।७।।

कविता हिन्दी अनुवाद

कई और गाद को साफ कर करके 

खेतों की सीमाओं को काट काटकर

अनाज पात को  तोड़ तोड़कर 

खूंटों – ठूंठों  को उखड़ता 

 कोर कोनों (खेतों की सीमाओं) को उधेड़ता 

कंकण पत्थरों को चबाकर

यह बावला गधेरा

 ना तैरने योग्य 

मनुष्य के लिए खतरा है यह

तोड़ फोड़ में लगा

यह बावला गधेरा।

खड्ड जैसा खोद-खोद कर 

झपट्टा सा मार कर

मेरे घर के पास बहता 

यह बावला गधेरा ।।१।।

 

सारे साल सोया , लेटा 

गिरे तने सा पड़ा 

किसी बरसात में जग जाता

 यह यह बावला गधेरा

लेट-लेट कर, पेट के बल रेंगता 

 यहां-वहां से लौट आता है, यह बावला गधेरा।

छिछले गड्ढों,लघु नालों से भेंट करता

बारह स्रोतों का पानी

मनुष्यों यह बावला गधेरा

स्यारियों में उछल उछलकर

खेतों घाटियों में धमकता

छलछलाता हुआ आ जाता है

यह बावला गधेरा ।

 

बे रास्ते जाता है रास्ते जाता है

निडर ढीढ होकर जाता है 

टेढ़े -सीधे जाता है 

यह बावला गधेरा 

कभी कूद मारता कभी उछाल मारता 

धरती को कंपाते बेतहाशा दौड़ता 

यह बावला गधेरा।

 

गर्जन तर्जन करता

 कलकल ध्वनि करता

कानों को कोर खाता

यह बावला गधेरा

मनुष्य जैसा टेढ़ा 

निकृष्ट सठियाया हुआ है

फिरकी सा घेरे फेरे लेता यह बावला गधेरा ।।३।।

 

 बहुत हड़बड़ाहट करता है

बहुत धमा चौकड़ी करता है 

 बहुत शोर करता है 

यह बावला गधेरा

 उचकाया  भड़काया हुआ 

छेड़ा हुआ झिझोड़ा हुआ 

 यह बावला गधेरा

इतराहट छितराहट दिखाने वाला 

अपने मन की करने वाला 

न तैरने जा सकने योग्य हो जाता है

यह  बावला गधेरा

ओने कोने जाता है जाते जाते हुए नीचे जाता है

 नीचे नीचे नीचे जाता है यह बावला गधेरा ।।४।।

झाड़ू से झाड़ता सा 

जीभ से चाटता सा

 सफाचट कर ले जाता

यह बावला गधेरा,

 पाटा जैसा लगा ले जाता

 खलिहान सा लीपता  है 

नाक जैसी पोछ ले जाता है

यह बावला गधेरा,

 मरखने बैल सा 

कटखने कुत्ते सा 

डराता मुंह मारता है

यह बावला गधेरा,

लाल चींटी के डंक सा

 नाग के दंश सा

 घायल बाघ सा दहाड़ता

 तड़फड़ता  फड़फड़ाता

 यह बावला गधेरा ।।५।।

 

छोलिया सा नाच नाचकर

 चपलता से खेलता

 देहरी-देहरी को भेंटता

 यह बाबला गधेरा 

जाल सा फेंकता 

जाल सा लगाता 

उतापी मछुवे सा

 यह बावला गधेरा 

बढ़ता घटता रुकता चालें(खेल )दिखाता

 देव यात्रियों सा राह चलता

 यह बाबला गधेरा

 कानों को फोड़ खाता 

सर को कपाल को झनझनाता नाड़ियों को सुनन करता

 यह बावला गधेरा ।।६।।

 

छोटी बछिया सी

 कुलाचें उछल कूद कर के

गांव मोहल्लों को गुंजाता

 हां हूं करता

 जरा देर में थम जाता 

यह बावला गधेरा

 गांव इलाके में घूम के

 दिल-दिमाग को हिला

 जरा देर में शांत हो जाता

 यह बावला गधेरा

 विद्रोह और छलावा करता नौटंकी नखरे करता

 रहप में विलीन हो जाता 

यह बावला गधेरा।।७।।

*** 

 

कृष्ण चन्द्र मिश्रा, प्रवक्ता हिन्दी,राजकीय इण्टर कालेज नैंकणा पैंसिया सल्ट (अल्मोड़ा) उत्तराखण्ड

 

 

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