गोविंद माथुर के हाल में प्रकाशित कविता संग्रह ‘ नमक की तरह ‘ को
पढ़ना एक प्रीतिकर अनुभव है। भारतीय निम्न मध्य वर्ग का एक जटिल समाजशास्त्र
और उसका मनोविज्ञान जीवन की छोटी छोटी स्थितियों के माध्यम से अपनी
आंतरिकता के साथ इन कविताओं में उजागर हुआ है । हमारे जातीय जीवन के सहज
मार्मिक प्रसंग , सामाजिक- आर्थिक ताने- बाने में लिपटा हुआ एक समय ,
मानवीय रिश्तों की अनेक संबंध सूत्रतायेँ , उनके छोटे बड़े आख्यान और
स्मृतियाँ इन कविताओं में हैं। वह सब कुछ जो एक निहायत सामान्य से प्रतीत
होते अनुभव को भी कला की दुनिया में बहुत अंतरंग , विकल और मानवीय अनुभव
में बदल देता है –
बड़े भाई ने जुगाड़ कर
सिलवा ली थी एक पैंट
उन्हें नौकरी की तलाश में
जाना पड़ता था
कई जगह
काली टैरी कॉटन की पैंट
पहन कर बाबू साहेब लगते थे
बड़े भाई की नौकरी लगने पर
कुछ दिनों बाद
उन्होने सिलवा ली थी दो नई पैंट
उतरी हुई काली पैंट
दे दी गई थी मुझे
मां ने पांयचे छोटे कर
मेरे नाप की बना दी थी
पर कमर में ढीली ही थी
बैल्ट बांध कर
कई दिनों तक पहनता रहा काली पैंट
अपने को
समझता रहा कुछ अलग
( “ काली पैंट “ )
गोविंद माथुर अपनी इस तरह की कविताओं में किसी तरह की भाषिक भंगिमा,
आरोपित नाटकीयता, अतिकथन या किसी सामान्यीकृत फलसफे से साफ तौर पर बचते
है । यह महत्वपूर्ण और सर्वाधिक उल्लेखनीय बात है । उन तमाम चीजों के
स्थान पर इन कविताओं में एक बुनियादी विकलता और भाषा की विश्वसनीय सादगी है
। आज के उपभोगमूलक समय में जब बाज़ार संस्कृति सबकुछ को लीलती चली जा रही
है , ऐसी कवितायें अपनी मार्मिकता, खामोशी , आंतरिक लय , स्निग्धता और जीवन
की किसी मूलभूत उदासी का अर्थ रचती प्रतीत होती हैं। इनमें मनुष्य
अस्तित्व की कुछ बुनियादी जरूरतें , उनके इर्द गिर्द बसी तमाम तरह की
दैनिक गतिविधियां और छोटी – बड़ी उलझनें उपस्थित हैं । इनमें किसी निजी
बीतते समय की स्मृतियाँ हैं ।
बहुत निरायास ढंग से गोविंद माथुर की ये
कवितायें भौतिक वजूद की तमाम स्थूल स्थितियों और मानसिक जगत के साथ बनाते
उनके अंत:संबन्धों का एक दिलचस्प खाका बुनती हैं । ये मद्धम स्वर में किए
गए किसी एकालाप या एकांतिक डायरी के पन्नों की तरह हैं जिनमें औसत निम्न
मध्यवर्गीय जीवन की तमाम इच्छाओं , उम्मीदों, दुश्वारियों , हताशाओं ,
जागरण और नींद का एक विकल संसार है । उदाहरण के लिए एक कविता है जिसमें
चोर बाज़ार से खरीद कर पहली बार पहने गए चमचाते चमड़े के सेकेंडहैंड जूतों का
ज़िक्र है और फिर बाद मेँ पैदा हुई किसी आत्म ग्लानि का संदर्भ है । एक
दूसरी मेँ कविता मेँ एक घरेलू स्त्री की चिड़ियों से किए गए संवाद की
आत्मीयता है । एक कविता में साइकिल के साथ बीता पुराने निर्दोष समय का वह
अपना जीवन है जो आज के संदर्भ मेँ लगभग अप्रांसगिक हो चुका है पर फिर भी इस
आपाधापी के दौर में एक नई तरह की व्यंजना को रचता है । बहुत निजी ,
निष्कलुष और अनौपचारिक संदर्भ इन कविताओं में खुलते हैं । एक अन्य कविता
है जिसमेँ गर्मियों की रातों मेँ छत पर सोने की कुछ पुरानी रूमानी
स्मृतियाँ हैं जो एक सामूहिक जीवन शैली किसी लय को व्यक्त करती हैं । ऐसी
तमाम अंतरंग कवितायें गोविंद माथुर के यहाँ हैं।
कहने का अर्थ यह कि इन
अधिकांश कविताओं मेँ धीरे धीरे बीत चला एक आत्मीय संसार और उसकी मानवीय
अर्थवत्ता के महीन रेशे हैं । ये कवितायें जैसे बार बार इस बात की प्रतीति
कराती हैं की वे समस्त स्थल जहां कभी एक कविता का वास था- जहां हमारी मूल्य
चेतना, सौंदर्य – बोध , वैचारिक ऊर्जा , कल्पनाशीलता , आदिम राग और संवेग
के संदर्भ , संकल्प और आदर्श , हमारे स्वप्न और यादें , जातीय चेतना और
सामूहिक अवचेतन की लय बसती थी , जहां हमारी एकांतिक निबिडताएं और स्पंदित
निजतायेँ आकार पाती थीं – वे सारे स्थल यह उपभोगमूल्क संस्कृति हमसे छीन
रही है । ‘ नीली धारियों वाला स्वेटर ‘ शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ
दृष्टव्य हैं-
मेरा स्वेटर देखकर
लड़कियां पूछती थीं
कलात्मक बुनाई के बारे मेँ
बहिन के ससुराल जाने के बाद भी
कई वर्षो तक पहनता रहा मैं
नीली धारियों वाला स्वेटर
उस स्वेटर जैसी ऊष्मा
फिर किसी स्वेटर मेँ नहीं मिली
उस स्वेटर की स्मृति से आज भी
ठंड नहीं लगती मुझे ।
उपरोक्त पंक्तियाँ ऊपरी तौर पर एक अत्यंत साधारण स्थिति का बयान कर
रही लगती हैं । उसमें कोई चमकदार बात लगती भी नहीं । पर यही शायद आज की एक
अच्छी कविता की खूबी है कि वह चीजों से जुड़े मनुष्य स्वभाव के आंतरिक जगत
की बुनावट को , उसके अनदेखे अनचीन्हे संसार को बिना किसी अतिकथन के उजागर
करती हैं । गोविंद माथुर बहुत निष्प्रयास ढंग से अपने आसपास के संसार को
देखते हैं । इन कविताओं के बारे मेँ इस संग्रह के ब्लर्ब पर प्रसिद्ध कवि
विष्णु नागर ने यह महत्वपूर्ण बात कही है कि “ कवि आपके आत्मीय की तरह
अपनी आशा- निराशा , बेचैनी , विरल हो चुके अनुभवों को आपसे बांटना चाहता
है । वह कविता करना या बनाना नहीं चाहता। इस प्रक्रिया मेँ वह कविता बन
जाती है तो बने , नहीं बनती है तो भी उसे ज़्यादा परवाह नहीं।“ स्वर की यह
आत्मीयता और साथ ही एक नि:संगता आज कविता मेँ विरल है ।
गोविंद माथुर की
इन कविताओं मेँ चमकदार पंक्तियाँ , भाषा का रैटारिक, स्मार्ट फिकरे या
धमाकेदार भंगिमाएँ लगभग नहीं हैं । इसे एक कवि के रचनात्मक साहस और अपने
मौलिक स्वर की खोज के रूप मेँ ही पहचाना जाना चाहिए ।
अपनी एक कविता ‘ विश्व नागरिक ‘ मेँ आधुनिक सम्प्रेषण के भूमंडलीकृत दबावों
के बरक्स वे मनुष्य के आंतरिक जगत के ह्रास की स्थिति को कुछ इस प्रकार से
रखते हैं –
अब देर तक
जीवित नहीं रहतीं स्मृतियाँ
तुरंत मिट जाती हैं
एक बटन के दबाने पर
कुछ दिनों बाद
स्मृतिहीन हो जाएगा आदमी
भूल जाएगा
कल किससे बात की थी
भूल जाएगा किसने भेजा था
शुभकामना संदेश
संग्रह की ज़्यादातर कविताओं मेँ कवि ने अलग अलग कोनों और स्थितियों
मेँ आज समय की मूल विडंबनाओं को पकड़ने की कोशिश की है । कहीं समय की तेज
रफ्तार, भीड़ , यातायात, और पैदल चलते आदमी की मुश्किलों का ज़िक्र है ,
कहीं एक चवन्नी के चलन से बाहर हो जाने के साथ अपनी बहुत सारी स्मृतियों का
बेदखल हो जाना है , कहीं महत्वाकांक्षाओं की अन्धी दौड़ , सफलता के गणित और
एक बदहवास आत्मकेंद्रितता का संदर्भ है तो कहीं उन अनाम संदेहों , भयों,
और खतरों की ओर देखा गया है जो इस मौजूदा दौर मेँ औसत आदमी के वजूद को
चारों ओर से घेरे रहते हैं और वह आदमी लगातार अकेला होता जाता है –
जब बहुत अधिक
डराता है सच
मैं भागकर
चला जाता हूँ
अंधेरे मेँ
जहां
मेरी परछाईं नहीं होती
( ‘ सच का सामना’ )
हमारी पेशेवर काव्य आलोचना को समकालीन कविता पर बात करते
हुए कुछ दो- चार गिने चुने नामों को ही दोहराते रहने की आदत पड़ गई है ।
उसे यह सुविधाजनक भी लगता है। इसलिए गोविंद माथुर जैसे कवियों का फिलहाल
हमारे काव्य जगत की चर्चाओं के दायरे से बाहर रह जाना कतई अचरज की बात
नहीं है । लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि गोविंद माथुर की इन कविताओं में
कवि का जो आत्मीय संसार उभरता है वह आज के बहुत सारे तथाकथित ‘ बहुचर्चित
‘और ‘ स्मार्ट ‘ कवियों की कविताओं की ताली पिटवाऊ और लटके- झटकों से
भरी भंगिमाओं से कहीं ज़्यादा मूल्यवान है । इनमें अपने समय की बहुत सारी
स्थितियों का सूक्ष्म पर्यवेक्षण तो है ही , एक सघन एन्द्रिकता से युक्त
अंतर्जगत है और साथ ही गजब की सादगी है ।ये कवितायें बहुत साधारण प्रसंगों
और चीजों को अर्थगर्भ बनाती है ।इनमें व्यक्त हुआ हमारा आज का यह समय अपने
बहुत सारे परस्पर विरोधी शेड्स के साथ व्यंजित हुआ है । ये कवितायें अनाम
और अलक्षित कोनों में झांक सकती हैं ; शोरगुल के बीच मद्धम आवाजों को
सुन सकती हैं ; किसी आदिम गंध और स्पर्श की तरलता को रच सकती हैं ;
तर्क और बुद्धि के तदर्थवाद के सम्मुख आदमी की अपरिभाषित ऊहापोह को मुखर
कर सकती है ; मनुष्य स्वभाव की छोटी – बड़ी विलक्षणताओं को देख सकती हैं ।
इनमें विषयवस्तु और संदर्भों का एक आश्चर्यजनक फैलाव है। अपनी स्थानिकता
का गहन रचाव– बसाव और एक स्तर पर आयु का सांकेतिक मनोविज्ञान भी इनमें
उभरता है।
एक कवि से आज हम इससे अधिक क्या चाहते हैं कि वह ‘ भाषा में
अपने होने की तमीज़ ‘ यानी अपनी बुनियादी विश्वसनीयता को रच सके । साहित्य
की दुनिया में जब हम बड़बोले , सफलताकामी और तमाम तरह के ‘ क्लीशों ‘ से
भरे समय के बीच धीमी , आधारभूत , आत्मीय और मानवीय ऊष्मा से भरी आवाज़ों
को सुनना बंद करते चले जा रहे हैं तब गोविंद माथुर जैसे कवियों की उपस्थिति
यह एहसास तो कराती ही है कि कविता में भरोसेमंद आवाज़ें हमेशा मौजूद रहती
हैं बशर्ते हम उन्हें सुनने के अपने सामर्थ्य को बचाए रख सकें ।
अपनी एक कविता में गोविंद माथुर कहते हैं –
एक बार फिर
सहेज कर रख देता हूँ
उन तमाम वस्तुओं को
जो अभी खोई नहीं हैं ।
***
काव्य संग्रह : नमक की तरह
कवि: गोविंद माथुर
प्रकाशक : शिल्पायन
पब्लिशर्स , दिल्ली
वर्ष : 2014
मो
: 09820370825
– प्रस्तुति : आशीष मिश्र