निराला की लम्बी कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ की नाट्य प्रस्तुति के लिए सुपरिचित युवा कवि व्योमेश शुक्ल और रंगमंडल ‘रूपवाणी’ इन दिनों चर्चा में है। यह भारतीय राजनीति के समकालीन अधमकाल में मिथकों के सहारे बहस करने का प्रसंग है, जिसमें मिथक वही हैं, जो साम्प्रदायिक ताक़तों का भी अस्त्र बने। इस तरह यह कुटिल अनाचारियों से उन्हीं के इलाक़े में जाकर जूझने और लोकमान्य मिथकों के ग़लत हाथों में चले जाने के निषेध का भी प्रसंग है। यहां व्योमेश शुक्ल का जो लेख हम छाप रहे हैं, वह जनसत्ता के सम्पादक को लम्बे पत्र की तरह लिखा गया और कुछ काट-छांट के साथ छपा भी है। यहां हम इसका मूल प्रारूप लगा रहे हैं। धार्मिकता और लोकप्रियता के पहलू से इस नाट्य प्रस्तुति पर बहस हो सकती है, किन्तु कविता के इस मंचन को किसी तरह अनदेखा नहीं किया जा सकता। हम चाहेंगे कि अनुनाद के पाठक इस पर अपनी प्रतिक्रिया दें, लम्बी प्रतिक्रिया ईमेल से भेजी सकती है, जिसे हम साभार यहां पोस्ट करेंगे।
अभी चल रही नाट्य प्रस्तुतियों के चलते इस लेख का अभी लगना हमें ज़रूरी लगा। अनुनाद का निर्धारित पोस्ट अनुक्रम ज़रा-सा बाधित हुआ है, उसके लिए मैं अपने प्रिय कवियों से क्षमा चाहता हूं। अगली पोस्ट से हम अपने निर्धारित अनुक्रम को सहेजेंगे।
अभी चल रही नाट्य प्रस्तुतियों के चलते इस लेख का अभी लगना हमें ज़रूरी लगा। अनुनाद का निर्धारित पोस्ट अनुक्रम ज़रा-सा बाधित हुआ है, उसके लिए मैं अपने प्रिय कवियों से क्षमा चाहता हूं। अगली पोस्ट से हम अपने निर्धारित अनुक्रम को सहेजेंगे।
हमलोग निराला और ‘राम की शक्तिपूजा’ से ख़ूब परिचित हैं,
लेकिन परिचय पुराना हो रहा है. अब क्या हो? क्या परिचय के प्रगाढ़ पुरानेपन को निधि
मानकर संतुष्ट और गौरवान्वित हो लिया जाय? ऐसा करने में कोई हर्ज भी नहीं है –
दिक्क़त है कि यह अपना रास्ता नहीं है. यह कविता अपने कवि के व्यक्तित्व की बहुत
नुमाइंदगी करती है. कविता गूँजी तो कवि की आवाज़ भी सुन ली गयी. कविता स्वीकार कर
ली गयी तो कवि को भी अंदर आने दिया गया. इसे पढ़कर कवि को जान लिया गया. कुल मिलाकर
कवि और कविता लगातार पठनीय होते गये.
यह तथ्य बेचैन करता है और तथाकथित पठनीयता के पार जाने की
इच्छा होती है. कृति को अपठित कर देने और कृतिकार के पास उसे लौटा देने की तबियत
बनती है. कविता के भीतर की पारंपरिक अध्यापकीय जगहों पर वाह-वाह करने का मन नहीं
करता और सराहना की नयी, अज्ञात, छूट गयी जगहों की खोज का एजेंडा बनता है. यह
एकमात्र तरीक़ा नहीं है, लेकिन इसमें ज़िद है. हम चाहते हैं कि बहुत से पाठ हों,
अलग-अलग तर्कों की पठनीयताएँ हों और अभिनव विन्यास. कविता को नया किया जा सके. यों
महाकवि भी कुछ और ताज़ा हो जायेगा.
इसी मक़सद से ‘कामायनी’ के साथ हमने ‘शक्ति-पूजा’ के मंचन का
फ़ैसला किया. 1936 में लिखी गयी इस कृति की रचना के
पचहत्तर बरस पूरे होने पर वैसे भी एक मौक़ा बनता था. राम के आत्मसंघर्ष में निराला
का संग्राम तो दिखता ही है, अपने छोटे-छोटे समर भी हम उसमें खोजते रहे हैं.
अधुनातन अंतर्वस्तु को पारंपरिक देहभाषा के ज़रिये अभिव्यक्त किया जा सके, यह हमेशा
से हमारा स्वप्न है. बनारस की रामलीला जैसे प्राचीनतम नाट्यरूप के साथ आधुनिक
रंगमंच की अंतःक्रिया ज़्यादा प्रत्यक्ष और रोमांचक हो, इस संकल्प को भी हमने एक
चुनौती की तरह लिया है. हमलोग रामलीला को लेकर भावुक और महत्वाकांक्षी हैं. वह एक
ऐसी ज़बान है जिसका अनुवाद नहीं हो पाता. यह बड़ी भारी मुश्किल है. यों ही अतीत हमारे
ऊपर विपत्ति की तरह तनता चला गया है – उसे मुकुट या टोपी बनाकर पहन नहीं लेना है,
लेकिन उत्तराधिकार को खंडित कर डालना भी हमारा मक़सद नहीं हो सकता. हम परंपरा की
जीवंत शक्तिशाली धातु को आज के जीवन और आज की कला में पा लेना चाहते हैं. हमारी
कामना है कि नाज़ुक या निष्कवच मान कर रामलीला का अन्यथाकरण न हो – उसे कुपाठ और
अपहरण से बचा लिया जाय और पाँच सौ साल पुराने इस असाधारण जीवत्व का सबसे माक़ूल
आशयों में पुनर्वास हो. रामलीला वहाँ भी रहे और यहाँ भी.
‘शक्ति-पूजा’ की भाषा में एक स्वतःस्फूर्त संगीत अन्तःसलिल
है. साहित्य-संसार में उसका उल्लेख समय-समय पर होता रहा है. इस पूर्वपरिचित संगीत
के समानांतर हमने अपनी प्रस्तुति का संगीत तैयार किया है. यह संगीत पूरी तरह बनारस
घराने पर निर्भर है और उसकी ताक़त से हम कुछ मौक़ों पर कविता से दूर और कई अवसरों पर
उसके बेहद क़रीब जाते रहे हैं. हमारा ख़याल है कि कविता संगीत को अर्थदरिद्र होने से
बचाती है और संगीत कविता को अप्रत्याशित बनाने में मदद करता है. ‘शक्ति-पूजा’ में
ऐसे ही हमने कुछ अभिनव मोड़ संभव किये हैं. राम की आँखों में आँसू देखकर क्रुद्ध
हनुमान जब विध्वंस पर आमादा हो जाते हैं तब हमने सितारा देवी-गोपीकृष्ण घराने की
मशहूर ‘हनुमान परन’ की पढंत का इस्तेमाल किया है, लेकिन उस परन पर संगत तबले से
नहीं, ड्रम से की गयी है. यह मजबूरी है कि हम स्वयं को स्याह-सफ़ेद में बाँटकर नहीं
देख पाते और छोटे-छोटे प्रयोगों से एक अनोखा ‘ग्रे मैटर’ अपने लिए प्राप्त करते
रहे हैं और यों, कविता के पाठ में एक उत्तेजक चमक भी.
इसी तरह जामवंत की सलाह पर राम जब ‘शक्ति-पूजा’ करते हैं तो
परिपाटी बन गयी मंत्रोच्चार की उन ध्वनियों से हमारा काम नहीं चल पा रहा था जो
आमतौर पर फ़िल्मों और टी. वी. सीरियलों में ऐसे मौक़ों पर बजायी जाती हैं. हम अत्यंत
सौभाग्यशाली हैं कि इस अवसर के लिए एक अद्वितीय वस्तु मिल गयी. महान फ़िल्मकार
दिवंगत मणि कौल ने प्रसिद्ध हिंदी कवि उदयन वाजपेयी और कवयित्री संगीता गुंदेचा की
मदद से सामवेद के विलुप्तप्राय ‘राणायनी सम्प्रदाय’ के संभवतः आख़िरी उत्तराधिकारी,
बनारस के नागरिक श्रीयुत बापट जी की आवाज़ में ‘सामगान’ की स्टूडियो रिकॉर्डिंग की
थी. अतिशयोक्ति का ख़तरा उठाकर यह कहा जाना चाहिए कि बापट जी का यह ‘सामगान’ भारतीय
सभ्यता की एक निधि है – एक अद्वितीय उच्चारण – वह मनुष्य-संभव शायद सबसे पुरानी जीवंत
ध्वनि है. इन सभी मूर्धन्यों के प्रति औद्धत्यपूर्ण साधिकार स्नेह के साथ हमने उस
रिकॉर्डिंग के एक संक्षिप्त लेकिन सारवान हिस्से का ‘शक्ति-पूजा’ में इस्तेमाल कर
लिया है.
ऐसे ही, हनुमान का कोप शांत कराने उनकी माँ अंजना के आगमन
के समय हनुमान के नायकत्व को क़ायदे से स्थापित करने के लिए हमने पंडित जसराज के एक
भजन की दो पंक्तियों का विनियोग प्रस्तुति में किया है. दरअसल, बनारस में हनुमान
हीरो हैं. ख़ुद तुलसीदास ने यहाँ ‘संकट मोचन मंदिर’ और ‘अखाड़े’ की स्थापना की.
हनुमान का रंग जमाये बग़ैर कविता का बनारसी संस्करण तैयार नहीं हो सकता था. रामलीला
में भगवान् की दैनिक आरती जिस पद्धति पर होती है, वैसे ही हमने मंचन में बाल
हनुमान की आरती दिखाई है – राम के हाथों. इस कोशिश में लोकप्रियता का आखेट भले हो,
धार्मिकता नहीं है, एक वैभवशाली दृश्यालेख को बचा लेने की आकांक्षा-भर है. हमारी
‘शक्ति-पूजा’ का संगीत, यों, चैलेंजिंग हो सकता है, नए निमंत्रण दे सकता है और
संभव है कि कहीं-कहीं खारिज कर देने लायक भी लगे. कविता के उत्सव के लिए इतनी क़ीमत
चुकानी पड़ती है.
अपने पूरे कामकाज को हमलोग अभिनय और नृत्य के बीच की जगह
में – दिन और रात के बीच के समय में – एक अहर्निश गोधूलि में बसाना चाहते हैं
क्योंकि कविता अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक भिन्न क़िस्म की कोरियोग्राफी की माँग
करती है. यथार्थवादी अभिनय-रूप उसे पूरी तरह संभाल नहीं पाते और सबसे कोमल
अंतर्ध्वनियाँ गम हो जाती हैं जबकि निरा नृत्य उसके विचार-तत्व को झीना और पूरी
अंतर्वस्तु को ज़रूरत से ज़्यादा तरल बना देता है. लेकिन बीच में रहने का कुछ नुक़सान
भी हमें हो रहा है. नृत्य वाले तो खैर हमें अपना मानने से रहे, अभिनय की दुनिया भी
हमें पूरी तरह से अपने नहीं पाती. हम ‘एक्सक्लूसिवनेस’ यनी छूआछूत के ख़िलाफ़ हैं और
इसीलिए उसके शिकार भी हैं. हमने इस उपेक्षा का, इस गोधूलि का वरण किया है. ‘मैं
अलक्षित हूँ, यही कवि कह गया है.’ कवि के इसी कहे में हम आपको भी आमंत्रित कर रहे
हैं.
सादर ध्यानार्थ,
श्रीयुत ओम थानवी जी
प्रधान संपादक
जनसत्ता
प्रेषक :
व्योमेश शुक्ल
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