अमित श्रीवास्तव की यह कविता स्थान विशेष तक सिमट कर नहीं
रह जाती, अपनी वैचारिक क्षमता
और घुप्प अंधेरे बिम्बों की भयावहता के बीच
देश भर में फैले ऐसे अनगिन स्थानों और लोगों के दु:खों का- संघर्षों का आख्यान बन
कर सामने आती है। यह चीख़ की तरह फैलती जाती है, दिमाग़ के सोए तंतुओं को झकझोरती तनाव की तरह बढ़ती है। इसका
द्वन्द्व गज़ब बौखलाता-सा पर सधा हुआ है। मनुष्यता को बचाने के लिए ज़रूरी क्रोध, अकसर जिससे आज
की कविता वंचित रह जाती है, इस कविता को ख़ास बनाता है। ये अब भी युवा कविता में दुर्लभ
जगहें हैं, जहां आँख के
कोनों का कीचड़ भी दिप दिप करता है।
अमित का कवि अब जितना वैचारिक होता जा रहा है, उतना ही साहसी भी – जो मेरे लिए बहुत सुन्दर और आत्मीय दृश्य
है। इसे पढ़ते हुए अनायास ही नागार्जुन की ‘हरिजन-गाथा’ के कुछ अंशों की यादें भी जुड़ने लगती हैं।
कविता के बारे में अमित के अंतिम शब्द दुहराते हुए बहुत संक्षेप
में कहूं तो दरअसल यह लाल रंग की एक सुबह की कविता है, जब पर्दा असल में उठता है…विश्वास है कि पाठक इसे गहराई से
महसूस कर पाएंगे।
घटना की अख़बारी तफ़सील कुछ इस तरह है – ‘वीरपुर लच्छी रामनगर,
नैनीताल का एक गाँव जिसमे कुछ दलित परिवार, कुछ सिक्ख और कुछ अन्य जाति समुदाय के
लोग रहते हैं। इसी गाँव से लगकर दाबका नदी से खनन होता है और यहीं पास में स्टोन
क्रशर भी लगा है जिससे आने जाने वाले सैकड़ों डम्पर गाँव की कच्ची सड़क से धूल उड़ाते
जाते हैं। इस स्टोन क्रशर के मालिक और गाँव के बाशिंदों के बीच विवाद होने के बाद
एक समझौता हुआ कि डंपरों के गुजरने वाली सड़क पर बीच बीच में पानी का छिडकाव किया
जाएगा। एक मई २०१३ को इसी पानी के छिडकाव को लेकर ग्रामीणों और स्टोन क्रशर मालिक
व डम्पर चालकों के बीच काफी विवाद हुआ। लाठी डंडो का इस्तेमाल हुआ, बंदूकें लहराई
गईं, फायर किये गए, झोपड़ियो में आगजनी की गयी, महिलाओं के साथ भयंकर अभद्रता की
गयी। कुल मिलाकर फिर वही नाटक दुहराया गया जो हमेशा शोषक और शोषित समाज के बीच
घटता रहा है। वामपंथ भी उभर कर सामने आया। दोनों पक्षों की ओर से मुक़दमा पंजीकृत
हुआ, तफ्तीश हुई और….. अब की गयी तफ्तीश को एक बार फिर से पुनर्विवेचना के लिए
भेजा गया है …’
इधर की कविता में पहली बार दिखे मेरे प्यारे नायक जो दौड़े
जाते हो बिना जिल्द वाली एक किताब सर पर उठाए, तुम्हें मेरा सलाम।
–शिरीष कुमार मौर्य
वीरपुर लच्छी
एक दिन की करतूत नहीं ये
सदियों लिखे गए अध्याय नाटक के
तलवार से…
फटकार से…
अब पुचकार से
बस पटाक्षेप कुछ अलग होने को संकल्पित
संकल्प, राजनीति के आजू बाजू
शायद रणनीति के ज्यादा
पर्दा उठता है
परदे के पीछे की कई अवांतर कथाएँ
दौड़ती हैं मंच पर अनावृत
धूल और ग़र्द से सनी
इधर दाहिने को एक लम्बी कथा
पेड़ के पीछे से तीर चलाती थी
उधर बाएँ एक छोटी कहानी
सफ़ेद रात में ढेर हो जाती है
बैकग्राउंड स्कोर में एक मनुपुत्र फफोलों के बीच चीखता है
‘ऐसा तो कभी नहीं हुआ था’
आगे को आया उंगली उठाये एक नायक
बार बार फ्लैश बैक में चला जाता है
एक बूढ़ा लाठी पर देश की देह टिकाये
हे राम हे राम हे राम
ये कैसी मानव लीला है
नायक जो उद्घोषक होने को अभिशप्त है नई कथा में
कान में फुसफुसाता है
‘आँख में लहू के थक्के
कुछ निशान अभी बाक़ी हैं
सांस के पोरों पर नमक का स्वाद
छाती भर मवाद, देखो तो’
आँख के कोनों का कीचड़ दिप दिप करता है
उद्घोषक जो नायक होने को अभिशप्त है, रोता है
‘बचपने पर राख मलती
उड़ती धूल पर पानी का छिडकाव
अधिकार से नहीं उम्मीद से माँगा था
वो लाज बचाने के धरने नहीं थे
ज़िंदा रह जाने के समझौते थे
जिनपर अंगूठे का नीला निशान
खतौनी की नीली स्याही से गिचपिच हो गया है’
बांह की नसों में एक तनाव ठहरता है
नायक जो उद्घोषक होने को अभिशप्त है
अब बेसाख़्ता चीख़ता है
‘वो दिन
झोपड़ी की आग में छुप गया
सूरज बुझ गया जब
सामंती गाड़ियों के पहिये वृहद् विशाल
गीली मिट्टी पर गहरे निशान छोड़ते
तोड़ते रहे मांद ढूह मेड़
मेड़ों पर उगे सपनों के कुकुरमुत्ते
स्वरों से हमारे पसीना नहीं
तब ख़ून टपकता रहा हुज़ूर
बंदूकों के बट इतने कमीने हो उठे
इतने ठोस और भोथरे
कि वो इनसे दूध पर काले चकत्ते छाप देता था
बन्दूक की नाल इतनी बेहया
कि वो लाज को नाल से ऊपर उठाता था
क़ानून… उधर दूर
किसी चश्मदीद के अभाव में
मुख़बिर मामूर करता रहा
चिपकता रहा न्याय
मूंछों के ताव में’
नाटक में एक पॉज़ आता है
उद्घोषक जो नायक होने को अभिशप्त है
नंगा दौड़ जाता है बिना जिल्द वाली एक किताब सर पर उठाए
एक बत्ती जलती है मंच के आख़िरी किनारे
धड़कती साँसों पर लगाम
छोटे बड़े अक्षरों में सबके नाम पते
और बार बार दुहराए बयान रिकॉर्ड करती है
लाल रंग की एक सुबह
पर्दा असल में अब उठता है…
***
सम्पर्क : अमित श्रीवास्तव द्वारा शिरीष कुमार मौर्य, दूसरा तल ए-2, समर रेजीडेंसी, भवाली, जिला-नैनीताल(उत्तराखंड)
पिन- 263 132
अभी पहला पाठ किया है और स्तब्ध हूँ..लौट लौट के आना होगा.
Bahut achchhi aur udvelit karne vaali rachna…Badhai Mitra!!Abhaar Shirish Bhai!! – Kamal Jeet Choudhary
बहुत खूब.. सारे षब्दो का समावेष और कविता की गंभीर मुद्रा
Bahut achchhi aur udvelit karne vaali rachna…Badhai Mitra!!Abhaar Shirish Bhai!! – Kamal Jeet Choudhary
This is so beautifully expressed
beautiful poem bhaiya… sahar aur saral shabdo me vishisht abhivyakti…
कविता पसंद की गयी… सभी का धन्यवाद!! काश इससे ज्यादा कुछ हो सकता…लाल रंग की उस सुबह का…इस नाटक का….! कविता की शायद यही सीमाएं हैं!!
अच्छी कविता । बहुत दिनों बाद अनुनाद पर आना सुखद रहा । पिछले पोस्ट भी खंगालता हूँ