हिन्दी कविताओं में इधर बीच सामने आई संभावनाओं में नेहल साह की कविताओं में अस्मिता से जुड़े प्रश्नों के स्पष्ट स्वर दिखाई देते हैं। अनुनाद पर यह उनका प्रथम प्रकाशन है, कवि का यहाँ स्वागत है।
–अनुनाद
अतियथार्थ
यह तकरीबन आधी रात की बात है,
मैं उस वक़्त नींद में कविताएं लिखती हूँ।
मैंने देखा
जगह–जगह के छोटे छेदों से,
स्त्रियाँ निकल रहीं हैं, कॉकरोच बन कर।
लोग उनके पीछे भाग रहे हैं।
कोई उन्हें चप्पल से मार रहा है,
कोई उन्हें ज़बरदस्ती पकड़ने की कोशिश कर रहा है,
तो कोई धर दबोचने में कामयाब हो गया है।
कोई उन्हें तरकीब से पीठ के बल लिटा देना चाहता है।
एक बार इस तरह चित्त हो जाने पर वे पलट नहीं पाती,
और दम तोड़ देती हैं।
कुछ तो बस उन्हें देखते ही मार देना चाहते थे, कुछ सुंघा कर,
किन्तु, वे निकलती जा रहीं थीं,
अंतहीन स्त्रियाँ,
पनपती जा रही थी,
गटर में,
जो उनका जीवन है।
कॉकरोचों से किसी को कोई हमदर्दी नहीं थी,
स्वप्न में भी नहीं,
इससे किसी के कल्चर्ड होने का भी कोई संबंध नहीं था।
कॉकरोच के संदर्भ में सब लगभग एक ही तरह सोच रहे थे
उनके घरों के कॉकरोच को ठिकाने लगाने के उनके अपने उपाय थे।
मैंने पहले कभी देखा था कि कॉकरोच कुछ दूर उड़ सकते हैं।
किन्तु स्त्रियों के रूप में वे अपना यह गुण भी खो चले थे।
जैसे ही सुबह होने लगी तो कॉकरोच पुनः स्त्रियों में तब्दील होने लगे,
मैं घबरा गई।
कुछ भी न लिख सकी।
नींद से जाग गई।
खुद को शीशे में देखा,
तो सिर पर दो एंटीने,
और पीठ पर दो बेजान से पंख लगे थे।
***
गहराई
प्रकाश फैलता है,
यात्रा करता है दूर तक
किंतु!
अंधकार ठहर जाता है,
गहरा होता जाता है,
एक के ऊपर एक सतह बनाता हुआ
किसी गहरे रंग की तरह,
जो हर कोट के बाद एक शेड गहरा जाता है।
उसी गहराई में देखती है वह खुद को,
जहाँ अंधकार की कई पर्तों के नीचे
दबा हुआ जीवन कई दफा मृत्यु सा जान पड़ता है,
उसी काली खोह में वह अंदाज़ से
टटोल कर ढूंढ लेती है कुछ पल जीवन के,
आज भर के जीने के लिए,
ठीक उसी तरह जिस तरह निचोड़ लेता था
वह रंग आज भर की पेंटिंग के लिए।
क्या नाम था उसका?
हाँ विन्सेन्ट कहते थे उसे।
सितारों से भरी विक्षुब्ध रात!
विक्षुब्ध जीवन!
गहरे नीले रंग का वेगमयी आकाश,
गहरी तरंगे खुद में सिमटती हुई,
भँवर की तरह,
जो उसके हृदय से उठा था,
और उठा था विरजीनिया के हृदय से,
किसी कमरे और किताबों की तलाश के चलते,
और ले गया उसे अपनी गहराई में।
क्या किसी ने सुनी थी उस रात पानी की चीख..?
***
श्वेत–सत्य
किसी एक सत्य की तलाश में
मैं न जाने कितने सत्य,
अनदेखे, अनसुने करती रही।
भरी धूप में
अपने पूरे तन पर कालिख पोत
काले वस्त्र पहन कर
किसी काली छाया सी चलती
वह विक्षिप्त औरत भी एक सच है,
मुझे उसकी तलाश नहीं थी,
कभी नहीं,
किन्तु, रोज मिलती है वह मुझे,
किसी अलग सत्य की तरह,
किसी मुरझाये फूल की तरह,
किसी पेड़ से अलग हुए पत्ते की तरह,
किसी अपने से बिछड़े हुए की तरह,
किसी बिन आत्मा की देह की तरह,
किसी झूठ के आवरण में उस सत्य की तरह,
जिसे मैंने कभी देखना नहीं चाहा,
न देखना चाहा उसके काले रंग को
अपनी कल्पनाओं के किसी
श्वेत–सत्य की संभावनाओं को
तलाशती मैं, इस प्रकृति
की अनंतता को उपेक्षित करती रही
भूल कर कि मेरी सोच के परे
कई सत्य हैं,
जो केवल सत्य हैं।
***
कर्ण
हे कर्ण!
मुझे सहानुभूति है तुमसे।
मुझे पता है
तुम्हें गुरेज़ है
एक स्त्री की सहानुभूति से
किन्तु!
तुम्हारे प्रति
मेरी यह भावना
अकारण नहीं।
क्या तुम्हें आभास है,
कि तुम्हारी लौह काया में
बसे हृदय में
सदैव स्त्री ने वास किया।
कितना विचित्र है,
सूर्य पुत्र के हृदय में
रात्रि का वास
बादलों का वास,
खुले काले लंबे घने केसों का वास।
मोह का वास,
माया का वास,
अधूरी ममता का वास।
सच मुझे सहानुभूति है तुमसे,
किन्तु मैं ये भी जानती हूँ
कि तुम प्रेम चाहते थे,
एक स्त्री से,
पर माँग न सके,
तुम्हारा दानवीर होना आड़े आया,
तुम समझ न सके
स्त्री को
प्रेम देना ही प्रेम पाना है,
तुमने क्षत्रिय काया में
शुद्र मन स्थापित किया
किन्तु कहीं ये भूल गए
कि आत्मा इस विभाजन से परे है।
हे
कर्ण
मुझे सहानुभूति तुमसे
इसलिए भी है
कि तुम मित्र तो बने किन्तु
मित्रता चुकाते रहे,
अपने लहू की हर बूंद से,
और हस्तिनापुर के एक मात्र
योग्य उत्तराधिकारी की संभावनाएं भी
अपने साथ कुरुक्षेत्र से ले गए
जिस क्रूरता से ले जाता है झंझावात
दीपक की लौ को उड़ाकर,
एक ही झटके में,
और मैं देखती रही तुम्हें दूर से,
कभी राधा और कुंती बनकर
कभी द्रौपदी बनकर,
और कभी तुम्हारे हृदय में छुपी स्त्री बन कर
सदैव सहानुभूति देती रही,
अब भी दे रही।
ये जानते हुए भी,
कि गुरेज़ है तुम्हें
एक स्त्री की सहानुभूति से।
***
लिबास
तुम नहीं चाहते न,
कि वह देखे स्वयं को
दिन के उजाले में।
उसे,
तुमने लिबास में ढँक दिया।
कभी बदरंग,
कभी काले,
कभी सफेद
और न जाने कइयों रंग के,
सिर से लेकर पैर तक।
अभी–अभी उन्होंने
किसी की मृत देह दफन की
कब्र में।
मिट्टी की इतनी तहें,
कि किसी साँस को अनुमति नहीं
भीतर जाने की।
सोचा है कभी,
कैसा जीती होगी उसकी
आत्मा, इतनी तहों के भीतर?
सुनो न! कमल के
असंख्य पत्तों के नीचे छिपे
पानी की ध्वनि को,
कितनी, तरल, सरल, सौम्य है।
वो देखो उन्हें
वे उसे नसीहतें दे रहे हैं,
सलीका सिखा रहे हैं
दुनिया में रहने का।
वह चिड़िया
उस पुराने पेड़ की खोह में
भटक गई है।
छटपटा रही है वह
बाहर आने को।
अरे ये अंधकार,
कहाँ गया उसका लिबास?
किसने छीन लिया?
देखो न!
यह अंधकार
जैसे मनुष्य के मन
की नग्नता ढँक देता है।
अरे!
कितने थेगड़े लग
उसके लिबास पर
बड़ी सफाई से,
सभी सुराख सी दिए गए।
तुम डर गए
है न?
तुम डरे!
कि उसके लिबास के
सुराख देख न ले रोशनी,
कहीं कोई चैन की साँस ले,
स्वच्छंद न हो जाये वह।
कभी देखी है ऐसी कोई गुफा
जिसके झरोखे से
सूरज यूँ झांकता है कि मानो
रात वही रुककर आराम करता रहा हो।
तुम्हारे लिए
वह एक लिबास है
अंधकार से बुना हुआ,
जो ढँक देती है,
तुम्हारे हर संताप को।
अच्छा सच कहो!
क्या तुम्हें आत्मा की समझ है?
और यह भी कहो!
क्या तुम्हारी आत्मा का भी कोई लिबास है?
***
वे तीन चिड़िया (चेखव की थ्री सिस्टर्स प्ले पर आधारित)
वे तीन चिड़िया,
अलग–अलग पिंजरे में बंद,
देखती हैं एक दूसरे की ओर,
दुःख से भरी,
कभी स्वयं के,
कभी एक दूसरे के।
वे देखती हैं दूर तक,
पिंजरे के बाहर,
अनेक रंगों से सजी हुई पृथ्वी,
और देखती हैं वे
दूर स्वच्छ नीला आकाश।
उनके मन की आकुलता
दिखती है
उनके फड़फड़ाते पंखों में,
जो टूटते हैं
कई बार,
उड़ने की होड़ में।
वे देखती हैं मुक्ति की आस से
एक उड़ती हुई चिड़िया की ओर,
जो कुछ ही क्षण में
आ बैठती है,
उनके ही वृक्ष पर,
ढँक कर स्वयं को आवरण से।
वे रोकना चाहती हैं उसे,
हटाना चाहती हैं उसका आवरण,
देखना चाहती हैं मुक्त उसे,
स्वयं के साथ।
अब वे देखती हैं
अपने मन के दुःख की छाया,
अपने पास पड़ी पृथ्वी के चेहरे पर
और दुःख,
बहते हुए पृथ्वी की आँखों से,
महसूस करती हैं
आँसुओं की गर्म आँच से,
अपने आस पास
दिन और रात झुलसते हुए,
वे लौट आती हैं
अपने ही मन के भीतर के शांत कोने में,
टटोल कर दुःख के कुछ शांत क्षण
बैठ जाती हैं पंख पसार कर
कभी न उड़ने के लिए।
***
हमीदा बी
वे बहुत पुरानी थीं,
आज़ादी की आखरी लड़ाई से भी अधिक पुरानी,
और साँस की मरीज़ भी
कई वर्षों से,
या यूँ कहें कि हो गई थीं,
गैस त्रासदी के बाद,
और मरीज़ों जैसी।
पर्याप्त हवा होने पर भी
अपनी साँस न जोड़ पाना,
दुःखद है
और विचित्र भी।
किन्तु उनके चेहरे पर सुकून था,
इतना, जितना की मृत देह के चेहरे पर होता है।
मुझे तकलीफ में उनका इतना सुकून
असहज कर देता।
तक़लीफ़ बढ़ने पर
उन्हें आई सी यू ले जाया गया
कुछ बे–भान सी हो गईं थीं वे,
किन्तु उन्हें सब याद था।
होश में आते ही बोलीं
“उन्होंने मेरे हाथ बांध दिए थे
(मरीज़ नींद या बेहोशी में कोई नली न खींच ले इसलिए ऐसा करना पड़ता है)।
सच!
मैंने कोई गुनाह नहीं किया,
फिर भी मेरे हाथ बांध दिए।“
उन्हें उनके हाथ बांधना दुःखद लगा,
साँस न ले पाने से भे ज्यादा दुःखद।
मुझे भी!
वे दिन में कई बार हाथ उठा कर,
अल्लाह से अपने उन गुनाहों की माफी मांगती थीं,
जो उन्होंने कभी किये ही नहीं।
मुझे आश्चर्य हुआ कि उन्हें हर बात का होश है,
बस वे साँस नहीं ले पा रहीं थी अपनी।
वे ऑक्सीजन सपोर्ट पर थीं,
मैं उन्हें साँस लेने का सलीका सिखा रही थी,
वे बिस्मिल्लाह! करते हुए हर सांस लेती जा रही थी,
और सुकून से मुस्कराती जा रही थी।
मैंने उनके घर का पूछा तो बोलीं–
“मैं उस मोहल्ले में रहती थी जहाँ एक सिपाही को गोली मार दी थी,
पहले गैस रिसी,
फिर दंगे हुए,
मेरा घर बिक गया।“
परिवार पूछने पर–
अपने शौहर पर झुँझला कर बोलीं–
“वे इतने पहले अल्लाह को प्यारे हो गए,
कि अब हमें बिनका चेहरा तक याद नहीं,
एक बेटी का इंतेक़ाल हो गया,
एक बेटा बानवे के दंगों से लापता है,
उन्हीं दंगो में बहू का हाथ काट दिया गया।“
बगल में खड़ी बहु झट से कटा हाथ दिखा देती है।
वे उसी के साथ रहने लगीं।
मैंने असहज होते हुये लंबी सांस ली,
पर साँस ठीक से नहीं आई,
मैंने फिर कोशिश की
उस सलीके से साँस लेने की जो मैं उन्हें सिखा रही थी।
मैं कुछ बेहतर हुई,
लंबी गहरी साँस लेते हुए,
उन्हें फिर सिखाने लगी,
साँस लेने का सलीका।
वे हर साँस से पहले बिस्मिल्लाह! करतीं,
साँस लेतीं,
और उसी सुकून से मुस्कराती।
***
परिचय
डॉ. नेहल शाह भोपाल
मेमोरियल अस्पताल एवं अनुसन्धान केंद्र में
फ़िजिओथेरेपिस्ट के पद पर विगत 15 साल से कार्यरत हैं । अनुवाद भी करती हैं। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।
कविता संग्रह- अहसास ।