फोन पर हुई बातचीत के बाद सुरेश सेन निशान्त ने स्नेहपूर्वक अपनी कुछ कविताएं भेजी हैं। वे इधर चर्चा में आए महत्वपूर्ण कवि हैं। अनुनाद कवि का आभार व्यक्त करने के साथ उनकी कविताओं की इस पहली पोस्ट में उनका दिल से स्वागत करता है।
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कवि का संग्रह अंतिका प्रकाशन से |
चावल
माँ ने एक छोटी-सी पोटली में
बाँध दिए नए चावल
यही है माँ के पास
बेटी को देने के लिए जाती बार।
बेटी जो आई बहुत दिनों बाद पीहर में
इस आँगन में खूब खेली-कूदी थी वह
इन खेतों में बहुत नाची-झूमी थी
चिडि़या-सी उड़ी थी
सब कुछ था उसका पहचाना
जो अब है थोड़ा बेगाना
बेटी ने छूए चावल,
छू लिया माँ का आर्शीवाद
छू लिया माँ का आर्शीवाद
छू लिए बरसात में भीगे खेतों के हंसमुख चेहरे
धन की मंजरियों से बरसता प्यार
अपने बचपन की नदियों का जल।
माँ ने दिये हैं ये चावल
यही रहा सबसे कीमती देने को माँ के पास।
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हमारे बारे में
यूँ तो दिखने में है
वह एक साधारण-सा पत्थर
पर इसी में छुपा है
वह खनिज
जिससे बन सकता है
मजबूत जुड़ाव वाला सीमेंट।
यूँ तो वह एक पत्थर
पर इसे तराशने पर
निकल आता है इसमें से ईश्वर
उभर आता है
कोई अद्वितीय शिलालेख।
बड़े-बड़े विशालकाय
भवनों की नीवों में
बैठा रहता है गुपचुप
अपने काँधें पर
उनका बोझा उठाए।
टकराए
तो पैदा कर सकता है
आग भी।
यही बात
हमारे बारे में भी
कही जा सकती है।
– – –
वह पाँच पढ़ी औरत
मेरे गांव की
उस पाँच पढ़ी औरत ने
मांगी मुझसे मेरी कविता की किताब
किसी आलोचक को देते हुए
कभी नहीं डरा
नहीं डरा किसी कवि को भेंटते हुए
उस पाँच पढ़ी औरत से डरा मैं
मैंने डरते-डरते दी उसे
अपनी कविता की किताब।
उतना ही डरा हुआ
उतरा था जब पहली-पहली बार
नदी के जल में
दोस्तों का हाथ पकड़े
हलक में अटकी थी जैसे सांस।
किसी कड़ी परीक्षा से
गुजरने जैसा एहसास
कि अंजुरी भर जल कोई उठा ले
और सूख जाए सारा अंतस्
और कभी एक बूंद
मिटा दे जन्मों की प्यास
नहला दे पूरी देह
भिगो दे समस्त धरती
केवल एक बूंद
तैरने का वह पहला अद्वितीय एहसास।
उस औरत ने
उस पांच पढ़ी औरत ने
मांगी जब मुझसे मेरी कविता की किताब
उड़ते-उड़ते अचानक झर गए थे जैसे मेरे पंख
मैं बीच समंदर में गिर गया था
पंखहीन ….
बहुत गहरा था समंदर
बहुत खारा था उसका जल
मुझे करना था पार
वह अनन्त विस्तार।
उस सर्द मौसम में
कहीं नहीं थी आग
उस औरत के हाथों में ही थी कंदील
उसी से लेनी थी मुझे तपिश उधर
जुटाना था साहस
वहीं कहीं उस औरत के अगल-बगल
खड़े थे कबीर और तुलसी
अपनी चौपाईयां और दोहे गुनगुनाते
मैं कहां खड़ा हूं वही बताएगी।
दिन भर के काम-धम के बाद
दिये की मद्धिम लौ में
मेरी किताब के पन्ने खोलेगी
कोई आलोचक या कवि नहीं
वही तय करेगी मेरी हैसियत
मांगी थी जिसने मुझसे
मेरी कविता की किताब।
– – –
गुजरात
गुजरात! पता नहीं कैसी होगी
तुम्हारे चेहरे की रंगत
तुम्हारी खुशी
और देह की थकान
पता नहीं कौन से गीत
कौन सा मंत्र
कौन सी दुआ
बुदबुदाते रहते होगे तुम
सुबह से शाम।
पता नहीं कैसा होगा
वह तुम्हारा साबरमती का आश्रम
क्या पोरबन्दर वैसा ही होगा
जैसा मैंने तीसरी जमात की
किताबों में पढ़ा था
वैसी ही होगा क्या
वह छोटा सा कस्बा काठियावाड़
जहां जन्मे थे अपने गांधी?
गुजरात! दुनियादारी में हो गया था
इतना मशगूल तुम्हें तो तुम्हें
मैं तो भूल गया था बचपन के
कई प्रिय दोस्तों तक के नाम
पर आज तुम सचमुच बहुत याद आए
जब दूर इन पहाड़ों से
भेज रहा हूं अपने बेटे को
नौकरी के लिए तुम्हारे पास।
गुजरात! मैंने उसे
बहुत प्यार से पोसा है
मैंने रोपे हैं उसमें बहुत से
प्यारे संस्कार
वह सेब की मीठी गंध् से भरा
तुम्हारे गांधी जैसा थोड़ा अडि़यल है
उसका ख्याल रखना।
समझो मैं धन का बिजड़ा
अपने सपनों की गंध
पहाड़ी बादाम का एक आकर्षक पेड़
रोप रहा हूं तुम्हारे खेतों में
तुम्हारी इस उर्वरा धरती पर
अब पानी और खाद का
तुम्हारा जिम्मा।
पर गुजरात मैं भरा हूं भय से
मैं भरा हूं चिंता से
मैं भरा हूं आशंका से
उस ईर्ष्या और हिंसा की
आग से भयभीत हूं मैं
जिसमें झुलसा हुआ है
तुम्हारा बदन।
उस लहू से डरा हुआ हूं मैं
जिसके छींटे तुम्हारे वस्त्रों पर पड़े हुए हैं
उन कांटों से डरा हुआ हूं
जो उग आए हैं
तुम्हारी इस उर्वरा धरती पर
उस बंजरपन,
उन खरपतवारों से
उन खरपतवारों से
डरा हुआ हूं मैं
जो सोख रही है
तुम्हारी देह की नमी।
गुजरात! मैं इतना क्यों डरा हुआ हूं
मैं क्यों नहीं सोच पा रहा
कि मेरा बेटा अपने ही
किसी परिचित के पास जा रहा है
जो उसका उतना ही रखेगा ख़याल
उतना ही देगा उसे प्यार
जितना मैं देता हूं।
गुजरात! मुझे दिलासा दो
मेरे कांधें थपथपाओ
प्यार से मेरी पीठ पर
रखो अपना स्नेह भरा हाथ
कि तुम मेरे बेटे के चेहरे पर
नहीं आने दोगे उदासी की शिकन तक।
गुजरात! बहुत बुरा चल रहा है वक्त
यहां तो खांसी में भी
सूंघी जाती है धर्म की बू
यहां तो हंसी में भी
देखा जाता है जात का रंग
यहां तो भाषाई अक्षरों को रंगने के लिए
निचोड़ लिया जाता है निर्दयता से
किसी निरपराध की देह का लहू।
गुजरात! ये किस दिशा की ओर
बढ़ रहे हैं हम
किस दिशा की ओर
घूम रहे हैं हमारे रथ के पहिए
पाषाण युग के अस्त्रों को उठाकर
हम कौन सा युद्ध
किससे लड़ने जा रहे हैं
न सामने सेनाएं हैं
और न ही शत्रु ही कोई
फिर भी बज रहे हैं शंख
फिर भी हो रहा है युद्धघोष
फिर भी किसी के प्राणों को हरने का
बना हुआ है इन योद्धाओं का मन।
गुजरात! मैं अपने बेटे को
इन पहाड़ों से दूर,
इन दुखों से दूर
इन दुखों से दूर
इन जर्जर पुलों और
इन ऊबड़-खाबड़ रास्तों से दूर
तुम्हारे पास भेज रहा हूं
तुम इसका ख़याल रखना।
गुजरात! मैं उसे यहां से कभी नहीं भेजता
अगर सेब के ये पौधे
किसी अनजान बीमारी से सूखने न लगते
मैं उसे यहीं रखता
अगर नदियों का जल स्तर
अपनी जगह पर रहता स्थिर
मैं उसे यहीं जीने के लिए उकसाता
अगर इन पहाड़ों के जिस्म को
छलनी नहीं करते
हमारे कुछ अपने लोग
हमारे सपनों को कर रहे हैं
वे तहस-नहस।
वे कर रहे हैं तहस-नहस
पूरे पहाड़ की हरियाली को
हमारी खुशियों को।
गुजरात! मैं अपने इन पहाड़ों से
भेज रहा हूं
सुगंधित फूलों के कुछ बीज
अपने बेटे के ख़यालों में डालकर
तुम उन्हें अपने घर-आंगन की क्यारियों में
जरूर-जरूर रोपना।
मैं भेज रहा हूं
पहाड़ों से हर-हराती एक नदी
मैं उस नदी के सीने में भेज रहा हूं
हजारों स्वप्नीली रंगीन मछलियां
तैरती हुई।
मैं भेज रहा हूं कांगड़ी में रखी
सुलगती हुई आग
जो तुम्हारी सर्द रातों को
भर देगी तपिश से
उन्हें खुशनुमा बनाएगी।
मैं भेज रहा हूं
बरसों तक गाया जाने वाला
एक लम्बा लोक गीत
तुम उसे जरूर सुनना
अपने एकांत में उसे गुनगुनाना
तुम्हें उस गीत को गाते हुए
अपने बचपन के दिन याद आएंगे
याद आएगा पिता का स्नेह भरा स्पर्श
पिता के पसीने से भीगा हुआ
एक खुशनुमा मेहनत से महकता हुआ
दिन याद आएगा
तुम भर जाओगे अनंत खुशी से।
गुजरात! मैं अपना बेटा
तुम्हारे पास भेज रहा हूं
तुम उसका ख्याल रखना।
– – –
कुछ थे जो कवि थे
कुछ थे जो कवि थे
उनके निजी जीवन में
कोई उथल-पुथल भी नहीं थी
सिवाय इसके कि वे कवि थे।
वे कवि थे और चाहते थे
कि कुछ ऐसा कहें और लिखें
कि समाज बदल जाये
बदल जाये देश की सभी
प्रदूषित नदियों का रंग
धसकते पहाड़ बच जायें
और बच जायें ग्लेशियर भी।
कटे हुए पेड़
फिर से अंकुरित होने लग जायें
पृथ्वी के देह का हरापन
आँखों की नमी बच जाये।
कुछ थे जो कवि थे
वे कला की दुनिया में भी
छोड़ जाना चाहते थे अमिट छाप
इसके लिए वे काफी हाउसों में
खूब बहसें किया करते थे
वे लिखा करते थे
बड़े-बड़े विचारों से भरे आलेख
कविता पर उनकी टिप्पणियाँ
उनकी नज़रों में
बहुत महत्व रखती थी।
पर वे उन रास्तों पर भी
संभल-संभल कर चलते थे
जहाँ दौड़ा जा सकता था।
वे उस सभा में भी
गुप-चुप रहा करते थे
जहाँ आतताइयों के खिलापफ
बोला जाना चाहिए
एक आध शब्द ज़रूर।
पर वे आश्वस्त थे
अपने किए पर कि
कविता में पकड़ लिया है
उन्होंने अंतिम सत्य।
उन्हें अपने किए पर गर्व था
इसके लिए वे पा लेते थे
बड़े-बड़े पुरस्कार भी
वे तालियाँ भी ढूंढ लिया करते
और प्रशंसा भी यहाँ तक कि
सुखों के बीच सोते जागते हुए
ढूंढ लेते थे दिखावटी दुख भी।
वे जब कीमती शराब पी रहे होते
या भुने काजू खा रहे होते
उस वक्त भी वे इस तरह जतलाते
जैसे वे दुख ही खा-पी रहे हों।
वे जब जहाज पर सौभाग्य से कहीं जाते
तो दूर-दूर तक सभी को बतला देते
पर जब लोगों से मिलते
तो ऐसा जतलाते जैसे ये इतनी सारी थकान
उन्हें पैदल लने से ही हुई है।
वे जब तिकड़में करते
या किसी अच्छी रचना की
हत्या की सुपारी लेते या देते
तो ज़रा भी अपराध बोध से
ग्रस्त नहीं होते
यह उनके व्यक्तित्व का
असाधारण पॉजिटिव गुण था।
वे अमर होना चाहते थे
इसके लिए वे प्रयत्न भी
खूब किया करते थे।
वे अपनी प्रशंसा में खुद ही
बड़े-बड़े वक्तव्य देते
अपनी रचना को सदी की
सर्वश्रेष्ठ रचना घोषित कर देते
इस तरह की हरकतों को वे
साहित्य में स्थापित होने के लिए
ज़रूरी मानते थे।
वे सामाजिक प्राणी थे
उनके कुछ मित्रा थे
कुछ शत्रु भी
वे मित्रों से मित्रता
न भी निभा पाये हों कभी
पर शत्रुओं से शत्रुता
दूर तक निभाते थे।
वैसे उनका न कोई
स्थाई शत्रु था और न कोई
स्थाई मित्र ही।
कुछ थे जो कवि थे
उनके निजी जीवन में
कोई उथल-पुथल नहीं थी
सिवाय इसके कि वे कवि थे।
– – –
कोक पीती हुई वह भिखारिन लड़की
भीड़ भरी सड़क पर
वह भिखारिन लड़की
जा रही है पीती हुई कोक।
बहुत इच्छा थी उसकी कोक पीने की
एक सपना था उसका
कि वह भी पीयेगी कोक
एक दिन।
पता नहीं कितनी मुश्किल से
किये थे इकट्ठा
उसने ये पन्द्रह रुपये
पता नहीं कितनों के आगे
पसारे थे हाथ
पता नहीं कितनी ही सुनी थी
झिड़कियां
कितनी तपी थी धूप में।
पता नहीं किस तरह कितने दिनों से
छुपा कर रखे रही थी
शराबी बाप से ये रुपये।
इस वक्त
जा रही है
पीती हुई कोक
भीड़ भरी सड़क पर।
मुस्करा रही है
ढेर सारे गर्व से
विज्ञापनों पर गिरती धूप
उसे कोक पीता देख।
मुस्करा रहे हैं
नायक नायिकाओं के
मासूमियत ओढ़े क्रूर चेहरे।
इस तपती धूप में भी
हरी हुई जा रही है
बाजार की तबीयत।
उदास है तो बस
जल जीरा बेचने वाला
अपनी रेहड़ी के पास खड़ा वह।
– – –
कवि का संक्षिप्त वक्तव्य तथा परिचय
सुरेश सेन निशांत
जन्म: 12 अगस्त 1959
1986 से लिखना शुरू किया……लगभग पांच साल तक गजलें लिखता रहा। तभी एक मित्र ने ‘पहल’ पढ़ने को दी। ‘पहल’ से मिलना उसे पढ़ना बहुत ही अद्भुत अनुभव रहा….कविता को पढ़ने की समझ बनी….1992 से कविता लिखना शुरू किया। हाल ही में कुछ कविताएं पहल, वसुध, हंस, कथाक्रम, आलोचना, कथादेश, कथन, कृतिओर, सूत्रा, सर्वनाम, नया ज्ञानोदय, वर्तमान साहित्य, लमही, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, परिकथा, बया, आधरशीला, आकंठ, उदभावना, कृत्या, संबोध्न, साखी, उन्नयन, पक्षधर, जनसत्ता, रसरंग दैनिक भास्कर आदि में प्रकाशित हुई हैं।
शिक्षा: दसवीं तक पढ़ाई के वाद विद्युत संकाय में डिप्लोमा। वर्तमान में कनिष्ठ अभियंता के पद पर कार्यरत।
पुरस्कार और सम्मान: पहला प्रफुल्ल स्मृति सम्मान,
सूत्र सम्मान 2008
निशांत भाई मौलिक सम्वेदनाओं से भरे कवि हैं . हिमाचल की युवा पीढ़ी में प्रगतिशील स्वरों की शुरुआती आहट अनूप सेठी , यादवेन्द्र शर्मा , सुरेश सेन निशांत और मोहन साहिल जैसे कवियों मे सुनाई देनी शुरू हुई थी ; जिन मे से निशांत भाई की सक्रियता निरंतर बनी हुई है . निशांत भाई की अधिकतर कविताओं को मैंने बनते देखा है, और इस प्रक्रिया में मैं खूब ऊर्जा व प्रेरणा ग्रहण करता रहा हूँ . यहाँ दी गई अधिकतर कविताएं मैंने पढ़ रखी हैं . *गुजरात* ताज़ा है . और बहुत प्रामाणिक , जी हुई कविता . आँखें नम हुईं .