अनुनाद

मनाधार के कवि : शमशेर – अमित श्रीवास्‍तव


शमशेर बहादुर सिंह 
बात शुरु करने से पहले एक प्रश्न – क्या शमशेर की कविता कालातीत की कविताहै और शमशेर सिर्फ कवियों के कवि’ ?शुरुआत मे ही प्रश्न उठा देना सुविधाजनक भी है और आलोच्य कवि की नजरों से बचकर निकल जाने का रास्ता भी। विशेषण दे देना तो और भी सुविधाजनक है- बने बनाए खांचों मे फिट कर देने जैसा।अगर बने बनाए खांचे मे फिट नहीं बैठता है कवि तो एक नया खांचा बनाकर उसमे एड्जस्ट कर देना भी बहुत सुविधाजनक है जिससे आगे आने वाली पीढ़ी कवि को छोड़ उस खांचे के ही अर्थ और विस्तार को गुनने मे लगी रहे। शमशेर के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। पहले तो उनकी कविता और कवि कर्म पर प्रश्न उठाए गए और फिर पारंपरिक खांचों के लिये अनफिट घोषित कर उनके लिये नए खांचों का निर्माण कर दिया गया। नये विशेषण दे दिये गये। जब कि शमशेर की कविता और कहीं हद तक खुद शमशेर कविता के ढांचों और परंपरागत खांचों से इतर आज भी एक चुनौती हैं।

टूटी हुई बिखरी हुई : शमशेर की कविता

शमशेर की कविताई का ढांचा मैक्रोकॉस्मिक होने के साथ साथ माइन्यूशी भी है। फैशन किन विषयों पर लिखने का है, कौन सी शैली चल रही है, किस वाद का युग आ गया है या चला गया है, मैने कभी इसकी परवाह नहीं की ऐसा कहने वाले शमशेर वास्तव मे ऐसा करते भी हैं। यही कारण है कि उन्हे मूलत: सुंदरता और कोमलता का कवि मानते हुए ऐसा प्रयोगवादी कवि कहा जाता है, जिसकी कविताओं मे मार्क्सवाद और प्रगतिवाद के प्रति झुकाव दिखाई देता है। ऐसा वस्तुत: इसलिये क्योंकि शमशेर की कविता पढ़ते समय बहुधा पाठक एक साथ दो यात्राएं करता है। एक तो कविता के दृश्य, बाहरी कलेवर मे शब्दों की पारंपरिक ध्वनियों मे जो व्यक्त हो रहा है उससे गुजरने की यात्रा और दूसरा कवि की नितांत निजी अनुभूतियों और उसकी बारीक बुनावट को यथासंभव पकड़ने की प्रयत्नसाध्य यात्रा। यहां यथासंभव और प्रयत्नसाध्य जैसे शब्द मात्र इस बात को दर्शाने के लिये नहीं हैं कि शमशेर अपनी कविताओं मे दुरूह रहे हैं, बल्कि इसलिये भी हैं कि शमशेर की कविता के बाहरी कलेवर और अभिव्यक्ति से उनकी वास्तविक प्रतिबद्धता का पता सहज ही नहीं चल पाता।

                   मैने
                   क्षितिज के बीचोंबीच
                   खिला हुआ देखा
                   कितना बड़ा फूल।
                   देख कर
                   गंभीर शपथ की एक
                   तलवार सीधी अपने सीने पर
                   रखी और प्रण लिया
                   कि :
                   वह आकाश की मांग का फूल
                   जब तक मै चूम न लूंगा
                   चैन से न बैठूंगा

यह वास्तव मे आश्चर्यमिश्रित झटका देने वाली बात है कि इस कविता का शीर्षक है – चीन और यह चीनी जनता के लोकसत्तात्मक गणतन्त्र राज्य के चीनी अक्षरों को चित्र पहेली की तरह इस्तेमाल करके रची गयी है। बाहरी कलेवर मे यह एक विशुद्ध सौन्दर्य की कविता लगती है। शायद इसीलिये विजयदेव नारायण साही कहते हैं – हिंदी मे विशुद्ध सौन्दर्य का कवि यदि कोई हुआ है तो वह शमशेर हैं।

शमशेर वस्तुत: राग के कवि हैं। उनकी कविताओं मे सुन्दरता का राग है। शमशेर को सुन्दरता जादू की तरह आकर्षित करती है, किन्तु वे हमेशा हर कीमत पर जादू तत्व से आविष्ट भी नहीं रहते-

                      और
                      जादू टूटता है उषा का अब
                      सूर्योदय हो रहा है

सूर्योदय का होना भी कवि के मैक्रोकॉस्मिक, कई स्तरीय सौन्दर्यबोध को उद्घाटित करता है।

                      जो कि सिकुड़ा हुआ बैठा था, वो पत्थर
                      सहज सा होकर पसरने लगा
                      आप से आप

इस छोटी सी तीन पंक्तियों की कविता का पूरा सौन्दर्य जड़ से चेतन होते जाने की भावना का है। यह अद्भुत अलग-सा सौन्दर्यबोध शमशेर का अपना है। यहां किसी वाद का दखल नहीं है, किसी क्लासिकी सिद्धान्त मे बस जाने की आकुलता नही है।

अमन का राग : शमशेर की प्रतिबद्धता

नागार्जुन के शब्दों में – शमशेर ६० पर्सेन्ट प्रयोगवादी हैं, २० पर्सेन्ट प्रगतिशील हैं और २० पर्सेन्ट जीवनधर्मी, कुछ इधर उधर और भी हैं ।  वो छायावाद के बाद के काल मे रचना कर रहे हैं, निराला और पन्त के प्रभाव को स्वयं स्वीकार करते हैं, पर वो छायावादी नहीं हैं। वो मार्क्सवाद के प्रति आकृष्ट होते हैं लेकिन रचनाकर्म मे ठेठ प्रगतिवादी नही हैं। वे प्रयोगवादी तो हैं लेकिन मानवीय संस्कारों से भरपूर जुड़े हुए। अपनी एकान्तिक साधना मे भी, क्लिष्ट और दुरूह मानी जाने वाली कविताओं मे भी उनकी संवेदना मनुष्यता और बराबरी की भावना को दृढ़ता के साथ पकड़े रहती है। अशोक वाजपेयी ने सही लिखा है – शमशेर की कविता के केन्द्र मे है आदमी, दो कुहनियों से पहाड़ को ठेलता हुआ, पतझड़ के जरा अटके हुए पत्ते सा, ताक पर अपने हिस्से की धरी होने पर बड़ी रात गये काम से लौटने पर शक करता हुआ। होली के भय, दिवाली और ईद मुहर्रम के एक ही भान्ति के आतन्क से ग्रस्त..।

कविता पोस्‍टर:रवि कुमार 
ये सच है कि राजनीतिक विकृतियों, सामाजिक विद्रूपदाओं और अमानुषिक कुरूपताओं को तत्काल जस का तस रेखांकित करने की प्रवित्ति शमशेर मे कम दिखाई देती है। लेकिन ये भी उसी स्तर की संवेदना का सच है कि इस प्रवित्ति की कमी को छुपाने का कोई झूठा प्रयास भी नहीं है।शमशेर पूरी जिमेदारी के साथ इस सच को स्वीकार करते हैं। चुका भी हूं मै नहीं की भूमिका मे वो लिखते हैं- अपनी काव्यकृतियां मुझे दर असल सामाजिक दृष्टि से कुछ बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं। उनकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता मेरे लिये एक प्रश्नचिन्ह सी हो रही है, कितना ही धुंधला सही।

जैसा कि पहले ही कहा गया है कि शमशेर की कविताई का ढांचा मैक्रोकॉस्मिक के साथ साथ माइन्यूशी भी है। यह माइन्यूशी या अतिसूक्ष्म दृष्टि इस सच को भी सामने लाती है कि शमशेर इस जांबाज़ स्वीकारोक्ति के बाद भी कहीं हद तक प्रगतिशीलता के प्रति कटिबद्ध हैं। उनकी कविताओं मे जन के प्रति पक्षधरता संवेदना के सूक्ष्म धरातल पर व्यंजित होती है। शमशेर उस रूप मे प्रगतिवादी नहीं हैं जिस रूप मे नागार्जुन हैं। भाषिक स्तर पर शमशेर की शैली आक्रामक मुद्रा की नहीं है वरन व्यंजनात्मक है, आन्तरिकता के धरातल पर गतिशील है। वो क्रान्ति चेतना को भी अव्यक्त सूक्ष्मता से ग्रहण करते हैं

              सुर्ख गुलाबों के शिशुमुख
              उल्लास से तमतमाए हुए
              ऊर्जाओं की
              हार्मनी के संगीतमय, मानो
              अपने नृत्य दोल मे
              प्यारी मासूम धरती को
              उद्धेलित किये हुए
              दूर तक गुलाबों का
              एक ओर छोरहीन दरिया!

बात बोलेगी संग्रह की जनवादी और क्रान्तिकारी कविताओं से भी यह बात सन्देह से परे हो जाती है कि शमशेर की पूरी काव्यानुभूति मे प्रगतिवादी चेतना एक महत्वपूर्ण घटक के रूप मे है। ये अलग बात है कि उनकी कविताओं मे तथाकथित नारेबाजी, घोषणाओं और प्रगतिवाद के प्रतिष्ठित मुहावरों का प्रयोग नहीं मिलता लेकिन जन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से इनकार नहीं किया जा सकता।

             ये शाम है
             कि आसमान खेत है पके हुए अनाज का।
             लपक उठीं लहू भरी दरातियाँ
            –कि आग है :
             धुआँ-धुआँ
             सुलग रहा
             ग्वालियर के मजूर का हृदय।
***

वह और वह और वह : कवियों का कवि या..

नागार्जुन को शमशेर की कविताओं मे जनाधार नहीं मनाधार मिलता है। जाहिर बात है गहरी मानवीय संवेदनाओं को अभिव्यक्त करने वाले कवि मे मनाधार का मिलना स्वाभाविक है। लेकिन ये मनाधार मनमौजीपन कतई नहीं है। शमशेर मे अपने कवि-कर्म की ओर गहरा दायित्वबोध है, लेकिन वो अपने पाठकों से भी उसी दायित्व और गंभीरता की मांग करते हैं। न केवल उनकी कविताएं टूटी हुई बिखरी हुई हैं, वरन् कविताओं मे बिम्ब, प्रतीक और शब्दों का सायास बिखराव भी अर्थ एवं मन्तव्य तक पहुंचने मे मशक्कत कराता है। शमशेर की कविता यू हीं लेट- बैठ कर नहीं पढ़ी जाती वरन पाठक को एक तरह से कविता की पुनर्सर्जना करनी पड़ती है, पूरे मनोयोग के साथ। शमशेर से एकसार होने मे पाठक को भी अपनी जिम्मेवारी निभानी पड़ती है। वो सिर्फ कवियों के ही नहीं पाठकों के भी कवि हैं – आवश्यकता बस इतनी है कि पाठक को भी उनके रचना कर्म के तर्ज पर अपने पाठकीय दायित्वों के प्रति ईमानदार होना पड़ेगा। शमशेर की शमशेरियत का पता लगाने के लिये न केवल इस पाठकीय दायित्वबोध का होना जरूरी है, वरन् एक और चीज़ है, जो उनकी टूटी हुई बिखरी हुई रचना प्रक्रिया के आंकलन मे अत्यधिक आवश्यक है, वो है शमशेर के उनकी कविताओं, अशआर, गजलों, निबंधों और अन्य गद्य लेखनों के साथ समग्र आस्वादन की। जिस तरह से शमशेर कविता मे चित्रकला के विविधधर्मी रंग, गजलों मे कविता की भाव प्रवणता और शेर मे वैचारिक प्रतिबद्धता का घालमेल करते हैं उसी तरह से एक अकेली कविता मे गजलों का नज़ाकत भरा रूमानीपन, शेर के वाक्य-विन्यास का कसाव और चित्रों का झकइम्प्रेशन एक साथ डाल देते हैं। इसीलिये उनके कथन और गढ़न की शमशेरियत से साक्षात्कार के लिये किसी एक विशेष रचना का मूल्यान्कन अकेले मे नहीं बल्कि उनके पूरे रचना संसार को ध्यान मे रखते हुए होना चाहिये।
***

काल तुझसे होड़ है मेरी : कालातीत शमशेर

प्रतिबद्ध जनवादी चित्रकार चित्‍तप्रसाद का रेखांकन: सूखा 
सवाल सामंतशाही के हों, आन्दोलनों के हों, साम्प्रदायिकता के हों या विश्वशांति के या दुनिया के किसी कोने मे चल रहे संघर्ष के। वे गाफिल कवि नहीं, ना ही अपने अन्तर्लोक मे भटकते डूबे हुए कवि जैसा कि हिंदी के बहुत सारे आलोचक, उनकी एक तरह की कविता को सामने रखकर सिद्ध करना चाहते हैं। शमशेर पूरी सजगता के साथ अपने और अपने समय के साथ चलने वाले कवि हैं-

ऐटमी बेड़े, हवाई यान हजारों ही जमा
क्या है अमरीका की ताकत का ठिकाना देखिये

                    परचमे इस्लाम के है साथ अमरीकी निशान
                    हो गया कुर्बान डालर पर जमाना देखिये
   
उल्लेखनीय बात है कि डॉलर पर कुर्बान जमाना शमशेर ने पहले ही देख लिया था। ये शाम है’, ’अकाल’, ‘एक प्रभातफेरी’, ‘रुद्रदत्त भारद्वाज की शहादत की पहली बरसी परजैसी बहुत सी कविताएं शमशेर के खाते मे हैं, जो बताती हैं कि शमशेर न तो सम सामयिक घटनाओं से अपरिचित थे और न ही काल को अभिव्यक्त करने की कला से। क्या अपने समय से असम्‍पृक्त होते हुए भी कोई कवि इस तरह का विजन रख सकता है?  बात के अन्त मे भी एक प्रश्न- क्या भूमन्डलीकृत इक्कीसवीं सदी के इस अतिभौतिक समाज मे जहां हर वस्तु, हर भाव, हर विचार का सौन्दर्य बाज़ार मे उसकी आर्थिक उपादेयता के आधार पर मूल्यांकित होता है शमशेर की कविता अपने विशिष्ट सौन्दर्य बोध के साथ प्रासंगिक तौर पर प्रतिपक्ष मे नहीं खड़ी है?
***
अमित श्रीवास्‍तव
अमित श्रीवास्‍तव एक बेचैन, बौद्धिक हड़कम्‍प और भावुक विचारशीलता के आवेग से घिरा नौजवान कवि है, जिसकी उपस्थित इधर कुछ समय ये पत्रिकाओं और ब्‍लागजगत में दिखाई दे रही है। आजीविका से प्रदेश पुलिस सेवा में अधिकारी अमित मेरा मित्र और शोधार्थी भी है। ‘भूमंलीकरण की अवधारणा और समकालीन हिेंदी कविता पर उसके प्रभाव ‘ उसके शोध का विषय है। यहां प्रस्‍तुत लेख मेरे अनुमान से  शोध का ही एक लघ्‍वांश है।

मेरी शुभकामनाएं मित्र को, कवि को और शोधार्थी को भी…..

0 thoughts on “मनाधार के कवि : शमशेर – अमित श्रीवास्‍तव”

  1. अमित ने कुछ महत्वपूर्ण चीजें लक्षित की हैं. शमशेर को जिस तरह 'कलावादी' खेमा 'मार्क्सवादी' परन्तु 'मार्क्सवादी कवि नहीं'…जैसे तर्कों से उलझाने की कोशिश करता रहा है, वहां उनकी कविताओं के सहारे अमित का यहाँ पहुंचना कि 'शमशेर की कविता अपने विशिष्ट सौन्दर्य बोध के साथ प्रासंगिक तौर पर प्रतिपक्ष में खड़ी है'…महत्वपूर्ण है

  2. शमशेर मार्क्सवादी हैं लेकिन सौन्दर्य से बेहद अभिभूत कोमल ह्रदय चित्रकार और और कवि भी हही हैं ! उनकी शिष्ट ,शांत,चित्रात्मक भाषा एनी मार्क्सवादियों की सीढ़ी,खरी और खुश्क भाषा से मेल नहीं खाती और यही फाँक कलावादियों को विभ्रम की झाड़ उगाने और फ़ैलाने की जगह दे देती है !

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