धागेनतिनकधिन – व्योमेश शुक्ल
एक लड़का तबला बजाना सीख रहा है
हारमोनियम पर बजते लहरे के साथ अपने उत्साही अपरिष्कार में वह आठ मात्राओं
का मशहूर ताल बजाता है
इस ताल के अनोखे संसार में उसका स्वागत है
समय ने बीतना इसी ताल से सीखा है तो
सबसे पहले वही मिलता है बूढ़ा दरवेश सृष्टि के आरम्भ से इसी ताल को अपने
इकतारे पर बजाता हुआ झूमता हुआ
न जाने कितनों के दिल मिलते हैं इसी ताल पर धड़कते हुए
कभी टूटते हुए भी
भारतीय संगीत के सभी दिवंगत दिग्गज वहां इसी ताल पर अपने रियाज़ करते हैं
दरख़्त इसी ताल के अनेक आवर्त्तनों के बाद आने वाले किसी सम पर
अपनी पत्तियां गिराते हैं
मुम्बइया सिनेमा के कुछ महामन्द लोकप्रियतावादी संगीत निर्देशकों ने
आठ मात्रे की इस ताल की आड़ में
जो भयानक गुनाह किए हैं वे यहां जाहिर हैं
इस ताल को मलिन करने की ऐसी सभी कोशिशों को वहां एक कोने में लयपूर्वक
हल्की-फुल्की सज़ाएं
दी जा रही हैं
ज्ञानी होना जरूरी नहीं, ताल के राज में ज़रूरत सिर्फ़ संवेदना की है
क्योंकि वहां लोग जानते हैं कि पृथ्वी पर पैदा होने वाले हरेक प्राणी को यह ताल
आता है यह बात उसे मालूम हो, न हो
नदियों के उद्गम, झरनों के गिरने की जगहों, हवा की गति में यह ताल पहले ही
पा लिया गया था अब तमाम मशीनों के चलने की लय, फोन की घंटी, जेनरेटर आदि की
आवाज़ों में यह रोज़ नई शक्लों में उस संसार के लोगों को मिल रहा है
हिन्दी की महान छान्दिक कविता में यह बिलकुल साफ़ तौर पर था लेकिन जब गीत नवगीत ने
इसकी चापलूसी की हद कर दी तो ख़फ़ा होकर यह गद्य के विषण्ण
संगीत में चला आया
तो अब गद्य के अनोखे संसार में उस ताल का स्वागत है
यहां जो लड़का तबला बजाना सीख रहा है, ताल के संसार में गद्य में से होता हुआ
हुआ जा रहा है
उसके पास अभ्यास नहीं अनुभव नहीं सफ़ाई नहीं
एक जुनून है यह ताल बजाने का
कभी कभी यह भी होगा कि वह इस रास्ते पर चलते चलते भटक जाए लड़खड़ा जाए
सड़कें गड्ढों से भरी हुई हैं, पुल कमज़ोर पुराने हैं, पीछे से बेताल का समुद्र
हहराता हुआ आ रहा है
बेसुरे दारोग़ा न्याय करने के लिए टहल रहे हैं।
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कहरवा – सिद्धान्तमोहन तिवारी
कहरवा पर दो युवा कवियों की कविताएं
चित्र यहां से साभार
हमेशा सरल होने का अभिनय करते हुए
सरलतम रूप में स्थापित कहरवा हमेशा
हमारे बीच उपस्थित होता है
जिसकी उठान मैनें पहली दफ़ा सुनी थी
तो पाया कि युद्ध का बिगुल बज चुका है
तिरकिट तकतिर किटतक धा
मज़बूत बायाँ हाथ
इसके मदमस्त चाल की ताल वाले संस्करण को जन्म देता है
इससे उम्र में आठ मात्रा बड़ा भाई तीनताल
मटकी लेकर चलने और मटक कर चलने जैसे
तमाम फूहड़ दृश्यों को समझाता है
लेकिन,
मटकी लेकर तेज़ी से भागने
पहाड़ों को तोड़कर निकल जाने
नदियों का रास्ता रोकने की क्रिया में
बजा कहरवा
कहरवा पत्थरों के टूटने की आवाज़ है
मिट्टी, पत्थर, पेड़, शहर, गाँव
राम-रवन्ना, अल्ला-मुल्ला
सभी कहरवा बजाते हैं
पहाड़ी-तिक्काड़ी और खेती-बाड़ी
सभी की आवाज़ों में कहरवा खनकता है
कहरवा की दृश्य अनुकृति
घड़े होते हैं
कहरवा खुशदिल तो नहीं है लेकिन दुःख में भी नहीं
हमेशा अनमनेपन के लापरवाह पराक्रम से
कहरवा की आवाज़ निकलकर आती है
कई चीज़ें कहरवा बनने के लिए बनीं
और बजने के लिए भी
जब ‘नाल’ बना
तो कहरवा ही बजा सिर्फ़ उस पर
तबले पर कहरवा बज ही नहीं सका
आज दालमंडी में कहरवा ही सुनाई देता है
जो तीनताल और दादरा की अनुगूंजों में व्याप्त है
कहरवा. तुम तो इन्सान हो
कई रूपों में बजा करते हो.
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दोनो ही कविताएँ बहुत खूबसूरत हैं….
व्योमेश की कविता में कुछ पारिभाषिक शब्द खटकते हैं ( यथा–लोकप्रियतावादी, छान्दिक कविता..). ऐसे जैसे कोई उस्ताद कहरवा की एक मात्रा छोड़ बैठा हो…..
इस लिहाज़ से सिद्धान्त की कविता कहरवा के चरित्र के ज़्यादा नज़दीक है.
दोनो कवियों को बधाई !
दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ना एक रोमांचक अनुभव है . जहां व्योमेश की कविता में हिंदी के कुछ बड़े कवियों , फिल्म संगीत और प्रकृति की आवाजों की स्मृतियाँ हैं , वही सिद्धांत की कविता में श्रमपूर्ण जीवन के कोलाहल की. कहरवा के आदिम लय की जीवन्तता दोनों में अनुगुंजित है .
कोई टिप्पणी नहीं ,सिवाय इसके की दोनों कवितायेँ अच्छी हैं