अनुनाद

तब केवल उम्मीदों में होते हैं बीज और बारिश – राकेश मिश्र की कविताऍं


राकेश मिश्र जी की कविताओं में गाँव है, वहां की पगडंडी है, प्रकृति हैप्रेम हैआम आदमी और मेहनतकशों के प्रति गहरी संवेदना है। कवि के पास जीवन के सौंदर्य को देखने परखने  का एक ख़ास नजरिया है. बहुत ही सहज सरल और जनतांत्रिक भाषा है. वह बिना किसी लाग-लपेट के बहुत समर्थ काव्य भाषा में लगातार कविताएँ रच रहे हैं. उनकी छोटी-छोटी काव्य पंक्तियाँ भी बहुत सहजता से पाठकों को प्रभावित करती हैं. जैसे वह लिखते हैं ‘प्रेम में शब्द ही / असगुन हैं / चुप ही / शुभ-यात्रा’.

इन कविताओं में एक तरफ नवम्बर की हल्की ठंड जैसी कोमल भावों की कविताएं हैंदूसरी तरफ उस आखिरी आदमी की चिंता है, जिसका जीवन दो वक्त की रोटी के संघर्षों में बीत रहा है. ‘जब कोई गरीब / सोचकर अपना भविष्य / उदास हो / तो बेचैन होनी चाहिए / तुम्हारी नींद’ आम आदमी की जद्दोजहद और उससे उपजी बेचैनी उनकी कविताओं में बार-बार आती है.
उनके यहाँ जीवन की उदासी के बीच उमंग भी कम नहीं है. वह अँधेरे के बीच भी कोई रोशनी खोज लाते हैं . हताशा-निराशा के बीच भी वह थोड़ी सी उम्मीद बचा लेते हैं.. उम्मीद की यह किरण इन कविताओं में तो है ही, उनके कविता संग्रहों की अन्य कविताओं से गुजरते हुए भी जगह-जगह दिखाई देती है।

इन कविताओं का मंतव्य बहुत स्पष्ट है. इन्हें पढ़ते हुए एक रचनाकार की आन्तरिक बेचैनी को लगातार महसूस किया जा सकता है.
– संदीप तिवारी 
(युवा कवि)

  भाव  

भाव
मंदिरों में मूर्ति बनकर
भगवान हो गये

भाव
दुर्गम राहों पर चलकर
तीर्थ बन गये

भाव
घर से निकल कर
बुद्ध बन गये

भाव
प्रार्थना में रहकर
चिड़ियों के गीत बन गये।

  हड्डियों के पुल  


पहले
रूप ही गलता है
समय की पतीली में
हडियों के पुल तो
सदियाँ गुजरने का
इंतज़ार करते हैं ।


  दाढ़ी  


रोज
बढ़ जाते हैं
वृक्षों की कोपलें,
घास की फुनगियाँ,
उत्तर का पहाड़
और
मेरी दाढ़ी
मेरा शेव करना
रोज़
गहरा कर देता है
मेरा विश्वास कि
मैं जीवित हूँ ।

  तुम्हारा जाना  


तुम्हारा
चले जाना
अचानक ही
निःसंकेत
वही खुशबू का गलियारा था
हवा की परतों में
थोड़ी देर तक
धूल वैसी ही रही
निःशब्द श्वेताकार
थोड़ी देर तक
मैं लौटना चाहता था
पर नहीं खुले
स्मृति-रन्ध्र
मैं खड़ा ही रहा !

  प्रेम  


अचर्चित प्रेम ही
जीता है
जन्म जन्मान्तर
प्रेम की चर्चा से
अकाल मरते हैं
प्रेमी
प्रेम में शब्द ही
असगुन हैं
चुप ही
शुभ-यात्रा है
प्रेम की ।

  जीना  


जब कोई गरीब
पसीने से लथपथ
नृत्य करे
तो थिरकने चाहिए
तुम्हारे पॉंव
जब कोई गरीब
सोचकर अपना भविष्य
उदास हो
तो बेचैन होनी चाहिए
तुम्हारी नींद
जब कोई गरीब
सो गया हो खाली पेट
आज रात
तो मर जानी चाहिए
तुम्हारी भूख
तभी जी सकोगे तुम
औरों के संग । 

  नवम्बर में  

नवम्बर में
जल्दी आने लगती हैं
शामें
चने और मटर के बीज
मिट्टी में
अंकुरित होने को होते हैं
गन्ने में शेष होती है
मिठास की आमद
नवम्बर की उन्हीं शामों में
खिलखिला कर हँस पड़ती हैं
खेतों से घर लौटती
लड़कियाँ
उनकी हँसी की खिड़कियों से
आहिस्ता दाखिल होती है
गुलाबी सर्दी
बालिश्‍त भर रोज़
लम्बी होती रातों में
उचटी नींदों वाले
लालटेन की मद्धिम रोशनी के सहारे
दीवाल की मिट्टी से
गड़े हुए आइनों में
अपनी रेखें निहारते लड़कों के
सपनों में बस जाती हैं
लड़कियों की समवेत खिलखिलाहट
गाँव का सूरज प्रतीक्षा करता है
हर सुबह
लड़कों के नींद से उठने की
मिलन और सम्भावनाओं के
गीत होते हैं
नवम्बर के दिन
गाँव के लड़कों की
क्या दिन क्या रातें
सब गुलाबी हो जाते हैं
नवम्बर में ।

  कई बार  


कई बार
रंग होता है
रूप होता है
आत्मा नहीं होती
प्रेम होता है
देह होती है
प्रेमी नहीं होते
भाव होता है
शब्द होते हैं
अर्थ नहीं होता
बात होती है
विचार होते हैं
निष्‍कर्ष नहीं होता
मैं होता हूँ  
तुम होती हो
जिन्दगी नहीं होती
पद होता है
प्रतिष्‍ठा होती है
निष्‍ठा नहीं होती
देश होता है
राजा होते हैं
शान्ति नहीं होती । 
कई बार  

  रास्ते  


सपनों में
नहीं पूरते रास्ते
मैं चलता रहता हूँ
रास्ते में पूछता हूँ
किसी अनजान अपने जैसे से
अपने गाँव का सही रास्ता
वह बताता है
मेरे गाँव पाँच सड़कें जाती हैं
सभी चौड़े राजमार्ग हैं
चलते रहो
मुझे केवल बियाबान दीखते हैं
मैं चलता रहता हूँ
जहाँ तक देख सकता हूँ
बियाबानों से सड़के गुजर रही हैं
कोई शहर नहीं
दूध जलेबी नहीं
प्यास से जाग जाता हूँ
पानी पीकर सोता हूँ
इस बार कोई नई सड़क है
मेरे गाँव जाने के लिए
फिर पूछता हूँ
किसी अनजान अपने जैसे से
क्या मेरे गाँव की यही सड़क है
वह कहता है
तुम्हारे गाँव की पाँच सड़कें हैं
सभी नापनी होगी तुम्हें
तभी पहुँचोगे गाँव
मेरा स्वप्न टूट जाता है ।


  हत्यारे  

मैं चला जा रहा था
अकेला
अचानक ही मैं
एक भीड़ से गुजरा
जैसे विमान उड़ता हुआ
बादलों के विक्षोभ से गुजरता है
दबाव था
पर रास्ता नहीं बदलना पड़ा
मैं चुपचाप निकल गया
बीच से
फिर कुछ दूर जाकर
कहकहों की आवाजे सुनीं
मैंने खुद को देखा
मेरे कई अंग गायब थे
जगह-जगह रक्त रिसने लगा था
मेरी देह से
मैं समझ नहीं सका था
कि मैं हत्यारों की
नई नस्ल से गुजरा था
जो खत्म नहीं करती
वजूद
केवल छीन लेती है जरूरी चीजें।  


  जो निराशा  

जो निराशा
पीड़ा
सुख है
अभी है
फिर कभी नहीं है
मैं कुछ नहीं करता
जब कुछ भी नहीं हो रहा होता है
जुते खेतों में
खुली होती है
धरती की कोख
तब केवल उम्मीदों में होते हैं
बीज और बारिश
गर्म होती है
मिट्टी की देह
मिट्टी में घुलती वर्षा बूँदे
फैल जाती हैं
मिट्टी की गंध शिराओं में
तारे देख रहे होते हैं
मिट्टी की तैयारी
जब लहलहा उठेगी
धरती
तब एक घनी गहरी
उब से उठकर
मैं भी पड़ा होऊँगा
मिट्टी में
पूरी जीवंतता के साथ ।


  तेरा-मेरा  

तेरा मेरा
रूप अलग है
सुख एक है
तेरा मेरा
कारण अलग है
दुःख एक है
तेरे मेरे
शहर अलग हैं
इन्तजार एक है
तेरी मेरी
आँखे अलग है
दृश्य एक है
तेरा मेरा
चेहरा अलग है
भाव एक है
तेरी मेरी
कारा अलग है
अपराध एक है


  कविता किताबें  

रखो
कुछ कविता – किताबें
घर में
हर रोज आयेंगे
तुमसे मिलने
कुछ शब्द, कुछ सपने
कुछ रंग, कुछ रास्ते
कुछ बादल, कुछ पंक्षी
हर रोज आयेंगे !


  महानगर  


इन्हीं भव्य इमारतों में
जिन्दा दफन है
पहाड़ का अंतस
नदी की आत्मा
वृक्षों का बसन्त
और
मजदूर की दिहाड़ी ।


  अंधेरे की कविता  


बासी खाना भी
किसी न किसी की
भूख मिटाता है
सड़ा मांस भी
कोई न कोई
खा जाता है
अंधेरों का इन्तजार
कईयों को रहता है
अंधेरा
किसी न किसी को
खाता है
रोशनी के झरोखे
हर ओर हों
जरूरी नहीं
अंधेरा
अपनी जगह ही
आता है ।
***


  परिचय  

राकेश मिश्र
9205559229
538 क/90 विष्‍णु लोक कालोनी
मौसम बागत्रिवेणी नगर 2 
सीतापुर रोडलखनऊ0प्र0,
226020
पूर्व प्रकाशित कृतियांं
1- चलते रहे रात भर
2- जिन्‍दगी एक कण है
3- अटक गयी नींद
(राधाकृष्‍ण प्रकाशन) 

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