विज्ञान के दरवाज़े पर कविता की दस्तक
स्वर्गीय रघुवीर सहाय ने आज से करीब बीस साल पहले रिक्शे को केंद्र में रख कर एक कविता लिखी थी साईकिल रिक्शा जिसमें रिक्शा चलाने वाले गरीब आदमी और उसपर सवारी करने वाले बेहतर आर्थिक स्थिति वाले आदमी के बीच के फर्क को मानवीय नजरिये से देखने की बात कही थी.उन्होंने घोड़े जैसे पशु का काम इंसान से कराने की प्रवृत्ति का प्रतिकार भी इस कविता में किया था…और साम्यवाद का हवाला देते हुए दोनों इंसानों की हैसियत बराबर करने का आह्वान किया था.सामाजिक गैर बराबरी को समूल नष्ट करने के लिए प्रेरित करने वाली इस छोटी सी कविता में इंजिनियर पुत्र के पिता सहाय जी ने विज्ञान और तकनीक के मानवीय चेहरे को पोषित करने के लिए वैज्ञानिक समुदाय के सामने एक गंभीर चुनौती रखी है जो विज्ञान की सीमाओं को लांघ कर व्यापक मानवीय कल्याण की दिशा में अग्रसर हो.आम तौर पर सृजनात्मक कलाओं और साहित्य को ह्रदय और विज्ञान को मस्तिष्क का व्यवहारिक प्रतिरूप मानने का दृष्टिकोण अपनाने वाले लोगों के लिए यह कविता एक अचरज या चुनौती बन कर सामने खड़ी हो जाती है…खास तौर पर उन लोगों के लिए तो और भी जो हिंदी समाज को मूढ़ मगज माने बैठे हैं. रघुवीर सहाय जी के साथ इस टिप्पणीकार का दिनमान के सक्रिय लेखक होने के नाते बहुत ही घना आत्मीय रिश्ता था और घनघोर वैचारिक मतभेदों के बावजूद उनकी विश्व दृष्टि और सहिष्णु सहकारिता का स्मरण कर के आज भी सिर आदर से झुक जाता है.कविता लिखे जाने से पहले उनसे इस विषय पर लम्बी चर्चा हुई थी और वैज्ञानिक अविष्कारों और उनको व्यवहारिक जमा पहनाने वाली तकनीकों के बारे में उनकी बालसुलभ जिज्ञासा और सरोकार समाज के सयानेपन की अंधी दौड़ में गुम होते गए हैं.कविता की प्रासंगिक पंक्तियों के साथ उनको विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए नए ढंग के रिक्शे का आविष्कार करने के उनके सजग आग्रह को प्रणाम:
“आओ इक्कीसवीं सदी के इंजीनियर
ईजाद साईकिल रिक्शा ऐसी करें
जिस में सवारी और घोड़ा अगल बगल
तफरीहन बैठे हों.
मगर आप पूछेंगे इस से क्या फायदा ?
वह यह कि घोड़े को कोई मतभेद हो
पीछे मुँह मोड़ कर पूछना मत पड़े .”
प्रस्तुति; यादवेन्द्र
शिरीष कुमार मौर्य जी,
नमस्कार,
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