सुलोचना की कविता मनुष्यता को किनारों पर खड़ी पुकारती भर नहीं रहती, वह उस उत्सव और शोक में शामिल हो जाती है, जिसे समग्रता में हम साधारण मनुष्य का जीवन कहते हैं। वे विमर्शों की कवि नहीं हैं,
न निजी अनुभवों के भाषिक चमत्कार हैं उनके यहॉं – वे सहज बोलती
कविताओं की कवि हैं। गूढ़ वैचारिक संरचनाओं के द्वार उनकी कविता में ज़रूरी साक्ष्यों के सहारे जीवन में भीतर की ओर खुलते हैं। यहॉं छप रही कविताओं के लिए अनुनाद
कवि को शुक्रिया कहता है।
लिखूंगी
मुझे माफ़ करना प्राण सखा,
नहीं लिख पाउंगी मैं कोई महान कविता !
मैं लिखूंगी विशाल पहाड़
तुम ठीक उस जगह झरने का संगीत सुनना |
मैं लिखूंगी अलौकिक सा कुछ, लिखूंगी छल और दुःख भी
मेरे अनुभवों में शामिल है दुधमुंहे शिशु के शरीर की गंध,
कई दिनों से प्रेमी के फ़ोन का इंतजार करती
प्रेम में डूबी प्रेमिका को देखा है मैंने
“सहेला रे” गाती हुए किशोरी अमोनकर को सुना है कई बार
देखा है बिन ब्याही माँ को प्रसव से ठीक पहले
अस्पताल के रजिस्टर पर बच्चे के बाप का नाम दर्ज़ करते
देखा है परमेश्वरी काका को बचपन में
छप्पड़ पर गमछे से तोता पकड़ते हुए
कोई और कैसे लिख पायेगा भला वो तमाम दास्ताँ !
बचपन में थी जो कविता मेरे पास,उसका रंग था सुगापंक्षी
उसकी आँखों में देखते ही होता था साक्षात्कार ईश्वर से
कविता कभी-कभी संत बनकर गुनगुनाने लगती –
“चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़…..”
मेरी कविता का तेज था किसी सन्यासिनी की मानिंद
वह कर सकती थी तानसेन से भी जुगलबंदी
वह कर सकती थी वो तमाम बातें जिनके लिए
नहीं हैं मौज़ूद कोई भी शब्द अभिधान में
एक पिंजड़ा था जो सम्भालता था
स्मृतियों का ख़ज़ाना कई युगों का
मैं अब जो कविता लिखूंगी, क्या होगा उसका रंग?
क्या उगा सकेगी जंगल “हरा” लिखकर मेरी कविता?
क्या लौट आयेंगे ईश्वर, संत और विस्मृत
स्मृतियाँ?
लौट आयेंगे प्रेमी प्रतीक्षारत प्रेमिकाओं के पास?
“मंगलयान” और “चंद्रयान” हैं इस युग की पुरस्कृत कवितायेँ!
हासिल हो स्वच्छ हवा और जल हमारी भावी पीढ़ी को
ऐसी कविताएँ अनाथ भटक रही हैं न जाने कब से !
मैं उन कविताओं को गोद लूंगी |
फिर मेरी कविताओं के आर्तनाद से तूफ़ान आ जाये,
आसमान टूट पड़े या बिजली गिर जाए,
उनका हाथ मैं कभी नहीं छोडूंगी |
मेरी कविताओं के संधर्ष से फिर उगेगा हरा रंग धरा पर
गायेगा मंगल गान सुगापंक्षी
तो धरती चीर कर निकल पड़ेगी फल्गु और सरस्वती!
मुझे माफ़ करना प्राण सखा,
नहीं लिख पाउंगी मैं कोई महान कविता !
मैं लिखूंगी रेत, और कविता पढ़कर
करूंगी नदी का आह्वान
किसी आदिम पुरुष सा उस नदी किनारे तुम करना मेरा इंतजार |
जल
जल से तरंग के अन्तर्ध्यान होते ही
क्षय होने लगती है आयु जीवों की
हृदय नहीं, वह जल का है कलकल संगीत
जो धड़कता है बायीं ओर वक्ष के
बिना जल के जलती है पृथ्वी
जब जल से पृथक होता है तरंग
और मनुष्य धरा के संगीत से
हुआ करता था धरा पर बहता हुआ
पृथ्वी का सुगम संगीत कभी
लगभग बेसुरी हो चुकी पृथ्वी पर जल
बोतलबंद व्यवसाय है इन दिनों
राग-विराग
उसने कहा प्रेम
मेरे कानों में घुला राग खमाज
जुगलबंदी समझा मेरे मन ने
जैसे बाँसुरी पर हरिप्रसाद चौरसिया
और संतूर पर शिवकुमार शर्मा
विरह के दिनों में
बैठी रही वातायन पर
बनकर क़ाज़ी नज़रूल इस्लाम की नायिका
सुना मैंने रहकर मौन राग मिश्र देश
गाते रहे अजय चक्रवर्ती “पिया पिया पिया पापिया
पुकारे”
हमारे मिलन पर
शिराओं – उपशिराओं में बज उठा था मालकौंस
युगल स्वरों के परस्पर संवाद में
जैसे बिस्मिल्लाह खान बजाते थे शहनाई पर
और शुभ हुआ जाता था हर एक क्षण
लील लिया जीवन के दादरा और कहरवा को
वक़्त के धमार ताल ने
मिश्र रागों के आलाप पर
सुना मेरी लय को प्रलय शास्त्रीयता की पाबंद
आसपास की मेरी दुनिया ने
काश! इस पृथ्वी का हर प्राणी समझता संगीत की भाषा
और जानता कि बढ़ जाती है मधुरता किसी भी राग में
मिश्र के लगते ही, भले ही कम हो
जाती हो उसकी शास्त्रीयता
और समझता कि लगभग बेसुरी होती जा रही इस धरा को
शास्त्रीयता से कहीं अधिक माधुर्य की है आवश्यकता |
नर्क
कहो सहेला, आओगे मेरी अंतिम यात्रा में ?
यह तो बताओ सहेला कि चिता की अग्नि
पहले जलाएगी मेरी पाँच गजी या मेरे बालों को
जिनमें उँगलियाँ उलझाने की बात करते थे तुम
और यह कार्य इतना कठिन था कि छोटा पड़ गया
दिन,
महीना, साल, पञ्चांग का कोई भी शुभ मुहूर्त
चिता की आग मुझे कितना जला सकेगी सहेला ?
उतना, जितना तुम्हारे विषाद
में जला है यह मन ?
या उतना, जितना जल जाने पर खत्म
हो जाती है अनुभूति ?
जानते हो सहेला, हो चुकी अभ्यस्त
तुम्हारे दिए गए नर्क में रहने की ऐसी
कि किसी प्रकार के स्वर्ग की कल्पना मात्र से ही हो उठती
हूँ असहज
सविनय अवज्ञा कर दूँगी यदि यम देवता ने सुनाया स्वर्ग भेजने
का फैसला
धरना दूँगी उस नर्क के द्वार पर और वहाँ से इस नर्क को
करूँगी प्रणिपात !
यह बताओ सहेला, क्या उस नर्क में
भी यातना देने वाले को प्रेमी ही कहते हैं?
चरित्रहीन
(शरतचंद्र की किरणमयी के लिए)
शरत बाबू ऐसे गए कि नहीं लौटे फिर कभी
पर लेती रही जन्म तुम किरणमयी रक्तबीज सी
दुनिया मनाती रही शरत जयंती बरस दर बरस
नहीं बता गए शरत बाबू तुम्हारा जन्मदिन संसार को
कि रहा आजन्म, जन्म लेना ही
तुम्हारा सबसे बड़ा पाप
और इस महापाप का ही तुम करती आ रही हो पश्चाताप
अपने नयनों पर बनाकर पथरीला बाँध
रोका तुमने अजश्र बूँदो का समुद्री तूफ़ान
पास- परिवेश के पुरुषों का बन आसमान
छुपाती रही अपनी समस्त असंतुष्टियों को
स्निग्ध मुस्कान की तह में तुम घंटो चौबीस
पढ़ाकर उन्हें अपने ही दुर्भाग्य का हदीस !!!
दिखता है तुम्हारे होठों पर मुस्कान का खिला हुआ ब्रह्मकमल
जो बाँध लेता है अपनी माया से सबको, गहरे उतरने नहीं देता
अदृश्य ही रह जाता है मन की सतह पर जमा कीचड़ लोगों से
ठीक जैसा तुम चाहती हो अपनी लिखी कहानी की भूमिका में
परिस्थितियों के बन्दीगृह का तुम अक्सर टटोलती हो साँकल
गहन अन्धकार से नहा, पलकों पर लेती
सजा, बिंदु -बिंदु जल
निज को उजाड़ कर बसने देती हो पति का अहंकार घर
रखती हो शुभचिंतकों को खुश अपनी अभिनय क्षमता से
सजाती हो सामाजिक आडम्बर से अपना प्रेमहीन संसार
तुम्हारा असंदिग्ध भोलापन ही तो है सबसे बड़ी बीमारी
कभी आईनाख़ाने जाकर देखो अपने होठों की उजासी
हाँ,
है तो फूलों सी ही बिलकुल, मगर वह फूल है बासी
देखो उन मधुमक्खियों को, जो कर रही हैं चट
छत्ते पर बैठ खुद अपना ही शहद संग्रह झटपट
कि उन्हें पता है वो रहती हैं भालुओं के परिवेश में
कब तक उड़ाती फिरोगी सपनों को सन्यासिनी के भेष में
न करो फ़िक्र जमाने की, बाँध लो चाहनाओं
को अपने केश में
क्या हुआ जो होना स्वतंत्र स्त्रियों का, है होना चरित्रहीन इस देश में
अपने होठों पर फूलों की उजास नहीं, सूरज की किरण उगाओ
सुनो समय की धुन लगाकर कान समयपुरुष के सीने से किरणमयी
बिखरो नहीं, गढ़ लो खुद को फिर
एकबार अपने पसंद के तरीके से
मत जिओ औरों की शर्त पर और, रखना सीख लो तुम शर्त अब अपने
सुनती आई तो हो जमाने से जमाने की, सुनो अब केवल अपना ही कहना
अपनी पुण्य आत्मा को कष्ट देने से तो है बेहतर तुम
चरित्रहीन ही बनी रहना
***
परिचय
नेशनल बुक ट्रस्ट के महिला प्रोत्साहन योजना के अंतर्गत प्रकाशित,
“बचे रहने का अभिनय” (कविता संग्रह) और “मेरी कथा”(नटी बिनोदिनी की आत्मकथा का
हिंदी अनुवाद) सेतू प्रकाशन से प्रकाशनाधीन
हिंदी और बांग्ला की पत्रिकाओं में रचनाओं
का प्रकाशन | रचनाएँ कथादेश, शुक्रवार, सदानीरा, नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, छपते-छपते,
पाठ, दुनिया इन दिनों, नया प्रतिमान, हिन्दुस्तान, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, स्त्रीलोक,
हिंदी समय, रविवाणी, प्रवाह, देशज समकालीन, सृजनलोक, जनादेश, समालोचन, आगमन, वंचित
जनता, कल्पतरु एक्सप्रेस,
स्पर्श, जानकी पुल, सिताब दियारा, शब्द व्यंजना, भवदीय प्रभात, पारस परस, प्रतिलिपि,
साहित्य रागिनी, पंजाब टुडे (पंजाबी), बांग्ला (खनन, रुपाली आलो, देयांग ) आदि में प्रकाशित
|
बांग्ला (रबीन्द्रनाथ टैगोर, क़ाज़ी नज़रूल
इस्लाम, लालन फ़कीर, तस्लीमा नसरीन, रूद्र मोहम्मद शहीदुल्लाह, शंख घोष, सुनील
गंगोपाध्याय, मलय राय चौधुरी, बिप्लब चौधुरी आदि) और अंग्रेजी (अमिय चटर्जी) की कई
कविताओं का हिंदी में अनुवाद भी किया है|
पढ़ने लिखने के अतिरिक्त छायाचित्रण व
चित्रकारी में रुचि है तथा संगीत को जीवन का अभिन्न अंग मानती हैं।
दूरभाष : ९८१८२०२८७६ / ९३५४६५९१५०
ई मेल : verma.sulochana@gmail.com
अच्छी कविताएं हैं। खासतौर पर 'लिखूंगी' और 'नर्क'…
नर्क जाने की जो चाह है, वह पुरुष सत्ता के खिलाफ एक प्रतिरोध है।
सुलोचनाजी कि कविताएँ सरल औ सहज मानवीय संवेदनाका उच्चाभिव्यक्ति है । यिनका कविता पढ सकने वाद परम सन्तुष्टि मिलती है यह यिनकी काव्यका खास विशेषता भी है …!
सुलोचनाजी कि कविताएँ सरल औ सहज मानवीय संवेदनाका उच्चाभिव्यक्ति है । यिनका कविता पढ सकने वाद परम सन्तुष्टि मिलती है यह यिनकी काव्यका खास विशेषता भी है …!
Ekey Hindi tai abar bishal lomba kobita….Tumi amakay khoon koro …sei bhalo.
अच्छी कविताएँ.
अच्छी कविताएं
राग विराग और नर्क अविस्मरणीय रचनाएं हैं…जीवन के बेसुरे पन को पटरी पर लाने के लिए शास्त्रीयता से ज्यादा माधुर्य की जरूरत है,बिल्कुल सही।यातना देने वाले को प्रेमी कहना,वह भी स्वर्ग नहीं नर्क में – कितनी यंत्रणा के बाद यह सवाल जुबान पर आया होगा।
यादवेन्द्र
सभी कविताएँ अच्छी हैं|'राग-विराग'और'नर्क'मुझे बहुत ही अच्छी लगीं|