हमर दिन नहि घुरतकि हे जगतारिनि
(नागार्जुन, पत्रहीन नग्न गाछ, १९६८)
(बाँस की जड़ें खोदकर लाता और मात्र वही जलावन, ऐ जगतारनी क्या मेरे दिन नहीं फिरेंगे?)
एक स्त्री के द्वारा बाँस की जड़ें उखाड़कर अपने हिस्से की आग जुटाने का कठिन श्रम, उस जड़ के जलने से उठ रहे पुतली झँवा देने वाले धुँआ से जूझकर अन्न-संस्कार और फिर जगतारनी से प्रश्न । इहलौकिक-परलौकिक सत्ता-विग्रहों पर प्रश्न-प्रहार। प्रश्न कि जिनके पग-प्रहार से जीवन के नेत्रकोष खुलते हैं। प्रश्न अर्थात कविता की दिपती लिलार, प्रश्न अर्थात सघन तम की चमकती आँख, प्रश्न अर्थात चुका तो नहीं है जीवन। विभाषा की आशा। यूँ होता तो क्या होता। सहर होने तक शमां को कई रंगों में जलने की उम्मीद ।
एक उम्मीद कि मनुष्यताएँ कभी भी प्रक्षीण नहीं होगी। कालोहि निरवधि विपुला च पृथ्वी। परंतु काल के सूते को किसी एपोकेलिप्स (Apocalypse) के खोखल में कपास हो जाने का भय; काल-प्रवाह में मनुष्य की जिजीविषा, उसके श्रम, संघर्ष एवं स्वप्न के द्वारा अर्थ के निवेश की प्रक्रिया के स्थगन का शोर (एण्ड ऑफ हिस्ट्री) तथा विपुल मानवता के धन-पुतली के क्लोन के रूप में पचित-पतित हो जाने की आशंका एंव विपुला को उन्मक्त ऐरावत द्वारा खुरेठ दिए जाने का आतंक। साथ ही, टेरर-हीस्टीरिया से लेकर वियाग्रा-व्यग्रता तक के भ्रांतिकर चिन्हों का भूमंडल-भ्रमण; यथास्थिति-भंग से संतृप्त एंव असंतृप्त लिप्साओं के प्रेत-नाच में व्यवधान होने की चिन्ता उन्हें भी जो नाचघर की सीढ़ियों के पास गोदो की प्रतीक्षा में बैठे हुए हैं। फिर भी, जीवन जहाँ दुष्कर है वहाँ भी अपने होने का उत्सव मनाता जैविक-बर्हिजैविक व्यूह में फँसा जर्जर देह (जो कि जाहिर है “अचार का मर्तबान या टूथब्रश नहीं अपितु अर्थवाही क्रियाओं की जन्मभूमि है” एवं नेमते-जीस्त अपने कोटिशीश व्यक्तित्व के संस्पर्श से अन्न, जल, वायु एवं मशीन को नए संदर्भ देता, इनके नवल बिम्बों-प्रतिबिम्बों के अवतरण का हेतु बनता और कविता इस तरह से होने की गुइयाँ। पृथ्वी का पुलक-उद्गम। बहुलता का जीवन-उद्यम।
‘संरचित बहुलता’ के भंडारघर में जब एक टावर टूटता है तो एक विशाल शोक-संरचना खड़ी की जाती है और गढ़े गए कारणों की ओट से हमारे वर्तमान और हमारी एक पुरानी सभ्यता पर एक साथ बमबारी की जाती है और यह नहीं देखा जाता है कि इस पार भी बच्चे विद्यालय जाते हैं, वृद्धाएँ प्रार्थना-गृह जाती हैं एवं पितर स्वर्ग जाते हैं। टावर की संरचित विराट अनुपस्थिति के मध्य उनकी अनुपस्थिति को दफन कर दिया जाता है जो टावर के शिखर-पुरूषों को चाय-कॉफी पहुँचाते थे, उनके धवल वस्त्रों पर के दाग छुड़ाते थे। अस्मिता-आश्मन के इस क्षण में इनकी अस्मिता का क्या हुआ? उनके बारे में कुछ पता नहीं चला क्योंकि पूँजी-यात्रा के राजमार्ग के इस बड़े चौक तक किसी तरह जिन्दा रह पाने के लिए की गई उनकी यात्रा महाजनों के मानकों के आधार पर अवैध थी। मगर कविता हर ऐसी यात्रा का सम्मान करती है। कविता के हाथों में मनुष्य की हर यात्रा के लिए थोड़ा सा सतू, जीवन की ओर बढ़ रहे हर साँस के खोंइछे के लिए दूब-धान ।
२
लो इन्द्रसभा में फेंक रहा हूँ देह में छुपा कवच-कुण्डल
मुझे बस उत्सव में शामिल कर लो।
कविता कब अच्छी लगने लगी, पता नहीं। वसंती हवा अच्छी लगती थी, उन दिनों भी जब जानता नहीं था कि यह हवा वसंती है। फिर कोर्स में इस शीर्षक से कविता देखी। वाह! उत्तम! अरे यह तो बहुतों को अच्छा लगता है, मास्साब को भी । कितना सुखद! मेरा प्रिय दूसरों का भी प्रिय। बहरहाल, बाद में तो वह अनुभूति भी सुखद ही रही जब कुछ सिर्फ मेरा प्रिय रहा। जब यह इतनों को प्रिय है तो गाँव में इसकी चर्चा क्यों नहीं होती। क्या नून-तेल-लकड़ी की जुगाड़ में लगे लोग वे नहीं कह पाते जो वे कहना चाहते हैं ? नहीं, ऐसा तो नहीं होना चाहिए। नून-तेल-लकड़ी की तरह कविता भी मनुष्य की जिजीविषा के रोऐं ही तो हैं और वस्तुतः कविता तो थी ही चारों ओर पत्तों के झौर में छुपे टिकोरों की तरह, पर मुझे देखना न आता था। रामचरितमानस का पारायण तो चलता ही रहता था। पर यह तो धार्मिक ग्रंथ माना जाता था। तो क्या इस ग्रंथ के वातायन जीवन के बाहर खुलते थे! तो फिर भोला चाचा भर छाक गांजा सोंट लेने के बाद इसकी चौपाइयाँ क्यों जोर-जोर से गाते थे या फिर लड्डू चाचा पोखर में भैंस धोते वक्त इसके हिस्से क्यों गुनगुनाते थे ?
फिर एक दिन पता चला कि चूड़ा-दही के लिए घर-घर डोलते रहने वाले बालानंद वैदिक श्लोक भी रचते हैं। उनके श्लोक की उतनी चर्चा नहीं होती थी, उनका क्रोध प्रसिद्ध था। एक बार जब शिक्षक के रूप में नियुक्ति के लिए उनसे प्रमाण-पत्र माँगा गया तो उन्होंने जीभ दिखा दी और क्रोध में कहा कि मैं किसी भी प्रमाण-पत्र को अपने से बड़ा नहीं मानता। कहते थे कि उनकी देह में अक्षरों का विष है। उनके किसी कवि-मित्र ने ही कहा होगा शायद? तो क्या वे जो दही के लिए घर-घर छुछुआते थे वे इसी विष के शमन हेतु था। दरभंगा शहर में रहकर पढ़ाई के दिनों में जब एक शाम बस से उतरा तो इसी बालानंद वैदिक को धूल से सने फटे-चीथड़ें कपड़ों में हाथ में प्लास्टिक का कप लिए हर आने जाने वाले के पीछे दौड़ते देखा और एक दिन वे ऐसी ही अवस्था में सड़क किनारे नाली में लुढ़क गए और उनके सकुचौहाँ लड़के का क्या हुआ किसी को नहीं मालूम। तो क्या कवियों की मौत ऐसे ही होती है ?
कवियों की ही नहीं, हमने अपने आस-पास जितनी मौतें देखी सब वही … बदरंग, बेढ़ब और बेहूदी। जो लोग फलों को रसायनों के माध्यम से पकाने के खिलाफ थे,उन्हें कौन सा रसायन भीतर-ही-भीतर चाट जाता था ! किस कुचक्र में फँसे थे वे ! यह जो हमारा समय था, उसमें सत्ता-तंत्र के पास ‘जीने दो’ या ‘जीवन ले लो’ (‘let live’ or ‘take life’) की जो पुरानी ताकत थी उसके साथ ‘जीवन रचो’ या ‘मरने दो’ (‘make live’ or ‘let die’) की नई ताकत भी घुल गई थी (फूको). एड्स से बचाओ या कालाजार से मरने दो, अंगूर खिलाकर बचाओ या अकाल से मरने दो। हीरा सदा टी.बी. से मरा एक दिन धान रोपकर लौटने के बाद खून की उलटी कर। कई स्त्रियाँ मर गईं कुँए से पानी खींचते-खींचते। कई वृद्ध मर गए बैल के पीछे दौड़ते-दौड़ते। ‘मरने की इच्छा तो समर्थ की इच्छा है’, तो फिर नथुनी सहनी की पत्नी टाँग टूट जाने के बाद बार-बार ऊपर वाले से अपना टिकस काटने की गुहार क्यों करती थीं या घर के पिछवारे की दस धूर जमीन, जिसे उनके इलाज के लिए बेचने की बात चल रही थी, उनकी सामर्थ्य-भूमि थी। मृत्यु के इस चेहरे ने सौंदर्य की तरफ खुलते कई दरीचों पर पर्दे गिरा दिये। अक्सरहा जब “अपनी खुशी न आये, न अपनी खुशी चले” से मन में कोई लपट उठने को होती है तो बाढ़ में बहकर आए नवजात शिशु के फूले पेट की स्मृति उस पर पानी डाल देती है। जब-तब आ धमकने वाली मौत का चेहरा इतना बदशक्ल था कि वह अपनी पेटी में क्या लाता है, इस पर कभी भी ठहरकर सोच नहीं सका।
गाँव में लोग घूरे के पास बैठकर दिव्य-प्रश्नों में घी डालते रहते थे, मगर जब भात पर ढ़ाली गई दाल पनीली होती थी तो थाली फेंक देते थे। क्या ऐसा करना पाखंड था ? पता नहीं । या यह हथ-धोअन में फँसी हुई मक्खी के पंखों की फड़फड़ाहट थी या या कदाचित वह पाताल-गंगा थी जो दैव-माया से कुण्ठित जीवन से पार्थिव अविशुद्धताओं तक जाती थी। दादाजी सोते समय भज गोविन्दम स्तोत्र गाते थे। जब-तब सोचता हूँ तो लगता है दादाजी “डुकृञ्करणें” का अभ्यास करनेवाले वृद्ध के पक्ष में क्यों नहीं थे, जबकि वे खुद व्याकरण के विद्वान थे । वृद्धावस्था में अपनी भाषा सुधारने की चेष्टा मुझे तो बड़ी आह्लादक लगती है। काश ! कोई ऐसी सफेद वृद्धावस्था हो जहाँ हम अपनी भाषा की पलकें सँवार सके – रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे। मगर यहाँ तो स्थिति यह थी कि गाँव के अधिकांश वैदिक वृद्धावस्था में विक्षिप्तता के कूप में नहाने निकल गये। जो जीवन भर वेदमंत्रों के संकेतों का मीजान बिठाते रहे उन्हें मिली क्या तो विक्षिप्तता…. विक्षिप्तता अर्थात (break in signifying chains) क्यों होता था ऐसे ! जैविक हिमशिला सामाजिक हिमशिला से कहाँ आकर एकमेक होती थी, पता नहीं चलता। अब भी तो ऐसा ही होता है। मेरे वर्ग के एक होनहार लड़के ने आत्म-हत्या कर ली। क्या उसने इसलिए स्यूसाइड-नोट नहीं लिखा कि उसके अक्षर बड़े सुन्दर होते थे, या इसलिए कि वह भाषा से बाहर आकर मरना चाहता था ? बात कविता से अपने रिश्ते के बाबत करना चाहा था और पहुँच गया मृत्यु की तरफ। कविता जीवन से रिश्ता ही तो है और इधर जीवन सड़ रहे अमरूद की तरह- एक फाँक जीवन, एक फाँक मृत्यु, क्या कहाँ से शुरू पता नहीं। तटभ्रंश ! एक किचड़ैल नदी लोटती चारों ओर!
कहते तो हमारी तरफ नामकरण-संस्कार में यह भी है कि “बड़े होकर कवि बनो”। पर निरभिप्राय दुहराते जाने पर गुणकीलन गुड़किल्ली हो जाता है। और फिर कविता तो उसका अधिकार भी है जिसका नामकरण नहीं होता, जिसका नाम सीधे ऋतुओं, वृक्षों, फलों की पाँत से उठा लिया जाता है। बल्कि कविता तो उसकी ही भूमि है जिसका नामकरण नहीं हुआ।
यही उल्टा-सीधा सोचते शब्दों के साथ शब्द बिठाने लगा. एक दिन एक कवि सम्मेलन में कुछ पैसे भी मिल गये, ज्यों के त्यों घर लेते आया, मँजे हुए कवियों की तरह अपने पैसे का एक पान भी न चबाया . रास्ते भर नोटों की सलबटें ठीक करता कि आज जब काव्य-पाठ कर लौटने के बाद कहूँगा तो कविता के पीछे पैसों का भी बल होगा – Money gives meaning to numbers. आज ये न बताऊँगा कि इतनी कविताऐं पढ़ी जो अक्सर बिना पूछे बताया करता था बल्कि ये बताऊँगा कि इतने पैसे मिले हैं . पर, ”गिरनी थी हम पे बर्के तजल्ली न तूए पर”…. माँ ने बताते ही झटपट कह दिया कि तो तुम भी पूजा कर ही पैसा कमाओगे , तुम्हारे बाप ने भी पुरोहिताई नहीं किया, पर तुम इसी में चले जाओगे ! पर, हम तो अभी पुरोहिताई से टेढ़ा रिश्ता रखनेवाली कवितायें पढ़ के आये हैं . उससे क्या होता है? तुम उदाहरणों से सबकी कल्पनाओं का रूख थोड़े मोड़ सकते हो ! स्मृति के सारे फाँस किसी के सामने नहीं खुले हैं . क्रीमिनल के लिए एक Value-neutral शब्द बल्कि एक रौबदार शब्द क्राईमर भले चल निकला हो, तुम्हारे इलाके में, पर कवि तो अभी भी निरीह हैं . कदाचित यह उलटी तरफ से व्यक्त किया जाने वाला प्रेम ही हो . और, तुम भी क्यों भूल जाते हो जो तुम्हारे एक रिश्तेदार ने कहा था कि तुम तो अंग्रेजी भी जानते हो, गणित भी, फिर कहावतें कहने में क्यों लग गए . पर, पुरोहिताई को लेकर नफरत अभी तक तुम क्यों नहीं भांप पाये थे . अतिपरिचयात् अवज्ञा न कहो, अवज्ञा उतनी विध्वंसक नहीं है और तुम भी तो मन्द मन्द, कोमल मुद्राओं में मंत्र पढ़ने वाले पंडितो- पुरोहितों की तुलना में उन ओझाओं-गुनियों की तरफ ही खिंचते थे जो दिखने में तो दुर्बल होते थे, पर Performance के क्षणों में आवेग-स्फूर्त हो जाते थे . हाँ, मेरी स्मृति में तिलचट्टे के टुकड़ों की तरह हमारी तरफ आने वाले ओझा के चाल-ढ़ाल फँसे हुए हैं, जो अक्सरहा जुड़कर साबुत तिलचट्टे हो नाचते हैं . वे शुरू में किसी पीर की वन्दना करते थे और आखिर में जब ध्वनियाँ उनके जब्र के घेरे से बाहर निकल आती थी तो हम सुनते थे “खाओ, खेलो और खुश रहो” यह किसे कहा जाता था – प्रेत को उस स्त्री को जो प्रेताविष्ट रहती थी (जिसे कारनी कहते थे) . उस पीर को जिसकी वन्दना की जाती थी या हम देखने वालों को. खाओ, खेलो और खुश रहो – किसके हिस्से की उम्मीद थी यह .कहीं उस अधनंगे ओझा के अपने हिस्से की ही तो नहीं ! हम कहाँ जान पाते कि कौन किससे मुखातिब है . वही ओझा जब शाम में गेहूँ के खेतों से मैना उड़ा रहा होता था तो यह उसके लिए एक खेल ही क्यों नहीं होता था. क्या तबतक वह मंत्र भूल चुका होता था, जो उसे फिर तभी याद आ सकता था जब उसके सम्मुख कोई प्रेत आये. क्या वह भी कोई मैना था जिसे कोई रात, कोई दिन, कोई सुबह, कोई शाम उड़ा रहा होता था ! क्या इस डूब रहे सूरज के वश में उसके लिए कोई जादू नहीं जो बारहा, “खाओ, खेलो और खुश रहो ” कहता आया है . क्या वह जुनूँ में बकता रहता था. आह ! कोई जादू क्यों नहीं होता ! सबकुछ माया क्यों नहीं है …… “The World, alas, is real”.
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नैहर की सन्दूक से मां ने निकाला था पटोर
पिता निकल गए रात धांगते
नहीं मिली फिर कहीं पैर की छाप
पानी ढ़हा बाढ़ का तो झोलंगा लटकाये आया एक मइटुअर सरंगी लिए
मां ने किया झोलंगा को उसकी देह का और ताकने लगी मेरा मुंह
ऐसा ही कुर्ता था तुम्हारे बाप का
पता नहीं किस वृक्ष के नीचे खोल रहा होगा सांसों का जाल
उसी पेड़ की डाल से झूलती मिली परीछन की देह
जिस के नीचे सुस्ताता था गमछा बिछाकर
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उसका भी वो जो उदि्वग्न रातभर ताकता रहता चांद
अगोरता रहा सेमल का फल पिछले साल
वन वन घूम रही प्यास की साही
निष्कंठ ढ़ूंढ़ती कोई ठौर पथराई हवा से टूट रहे कांटे
घम रहा रात का गुड़
निद्राघट भग्न पपड़िया रहा मन
खम्भे हिल रहे थे, तड़-तड़ फूट रहे थे खपड़े
ग्राह खींच रहा था पिता के पांव
उस अंधड़ में बनाया था कागज की नाव भाई की जिद पर
सुबह भूल गया था भाई, गल गई कहीं
या चूहे कुतर गए
या दादी ने रख दिया उस बक्से में जहां धरा हुआ है उनका रामायण
और सिंहासन बत्तीसी
छप्पर की गुठलियां दह गई
इधर की गुठली हुई आम किधर या सड़ गई
किसी लाश की लुंगी में फंसकर किसी डबरे में
मुठभेड़ के बाद वह आदमी सड़क हो गया
दौड़ रहे महाप्रभुओं के रथ, कल तो वो
डाभ मोला रहा था बच्चे संग लिए
वसन्त की उस सुबह रक्त में घुली थी जिसकी छुअन
क्या उसका चेहरा भी हो गया फटा टाट !
चेहरे क्यों हो जाते फसल कटे खेत एक दिन
ताजिया पड़ा हुआ … निचुड़ती रंग की कीमिया पल पल ….
लुटती रफ्ता कागज की धज …
ये कहां चली छुरी कि गेन्दे पर रक्त की बूंदें
कुछ भी नहीं जान सका उस तितली की मृत्यु का
मैं तो ढ़ूंढ़ रहा था कबाड़ में कुरते का बटन
हर कठौती की पेंटी में छेद, हर यमुना में कालियादह
कहां भिगोऊं पुतलियां ……. किस घाट धोऊं बरौनियां …..
तांत रंगवाऊ कहां …. किस मरूद्वीप पर खोदू कुंआ
बहुत उड़ी धूल, पसरा स्वेद-सरोवर क्षितिज के पार तक
रौशनी सोख रही आंखों का शहद ….
धर तो दूं आकाश में अपने थापे हुए तारे
… क्या नींद के कछार में बरसेंगी ओस
पंक हुए प्यास में जनमेगी हरी दूब जहां पांव दाब चलेंगे देवगण ….. !
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Giriraj kiradoo bhi jordar cheej hai kavita ke kshetra me.pratilipi ki prasansa suni thi.aaj udhar ki badhiya kaita bhi padhne ko mil gai.bhai manoj kumar jha,giri raj kiradoo or aapko sadhuwad!
kabhi mere blog par bhi padharen,swagat hai!
OM PUROHIT "KAGAD"
HANUMANGARH JUNCTION
RAJASTHAN
http://www.omkagad.blogspot.com
पिछली कविताओं की तुलना में ये कमज़ोर कवितायें है…भाषा से झोल भरने का प्रयास करती हुई…
अच्छा लगा पढ़ना —-'मुझे बस उत्सव मे शामिल कर लो '…..,मनोज मेरे भी पसंदीदा कवि हैं ,पर यदि एक या दो कविताएँ ही देते तो शायद ज्यादा अच्छा लगता ॰
मनोज कुमार "झा जी" हैं यानि मैथिलि भाषी जो की हम भी हैं… तो पहला जुड़ाव तो ऐसे ही होगा गया है …
हाँ यहाँ थोड़ी बोझिलता हो गयी है… पर बड़े दिनों बाद मैथिलि में कुछ देखा तो अच्छा लगा