राजेंद्र बिना शीर्षक की कविताएँ लिखते हैं, जिनमें एक प्रबल भावावेग निरन्तर जारी रहता है। लगता है कि ये सभी कविताएँ एक किसी बहुत लम्बी लिखी जा रही कविता का हिस्सा हैं, जिसमें टूटने की हद तक खिंचता एक शानदार तनाव है। यह तनाव या बेचैनी नए कवियों में पहली बार इस स्तर पर देखी जा रही है। इन कविताओं में प्रेम है, प्रार्थना है, असफलता है, दुख है, धैर्य है, समय की पहचान है और सबसे लाजवाब चीज़ के रूप में मौजूद वह एक `समूचा पागलपन´ है, जिस पर कोई भी कवि गर्व कर सकता है।
राजेन्द्र के पास एक आत्मीय और नामवर जी के शब्दों में कहें तो `प्रसन्न´ भाषा है, जिसे उन्हें बहुत साधना नहीं पड़ता, जो ख़ुद-ब-ख़ुद कविता के शिल्प में अपनी राह तलाशती है। रोज़मर्रा के साधारण जीवन और मनोभावों को वे इस तरह आँकते हैं कि हमारे सामने दुनिया के मानी खुलते जाते हैं। उनकी कविताएँ एक आम हिन्दुस्तानी नौजवान के समक्ष लगातार खुलते जीवन और संसार की कविताएँ है। इनकी सबसे बड़ी सफलता ये है कि ये बहुत सादाबयानी से अपनी बात कहती हैं, जो दरअसल कविता लिखने का एक बेहद असाधारण ढंग है। अपने कवि रूप में भाषा, डिक्शन या किसी और स्तर पर भी वे किसी से प्रभावित नज़र नहीं आते, इसलिए भी उनकी कविताएँ प्रभावित करती हैं।
बड़े संतोष की बात है कि अत्यन्त सम्भावनाशील कवि होने के बावजूद राजेन्द्र अपनी कविताओं को महज छपाने के लिए लिखा गया नहीं मानते, जो उनकी विषय वस्तु से भी जाहिर होता है। उन्हें शमशेर की इस बात पर गहरा विश्वास है कि `कविता एक बार लिखी जाकर हमेशा के लिए प्रकाशित हो जाती है´।
राजेन्द्र कैड़ा की कविताएँ पहली बार किसी साहित्यिक पत्रिका में छप रही हैं। हमें भरोसा है कि उनके इन शुरूआती लेकिन बेहद सधे हुए क़दमों का हिंदी कविता संसार में स्वागत होगा।
एक
तुम्हारा प्रेम प्रार्थना है
मेरे लिए
छोटी-सी पृथ्वी के सारे धैर्य जैसा
बहुत ज़रूरी काम से पहले बुदबुदाए जाने वाले
कुछ शब्दों जैसा
अपनी सारी असफलता
समूचे पागलपन
और कुछ थके हुए शब्दों को करता हूँ
तुम्हारे नाम
मेरे मीठे प्यार की तरह
इन्हें भी चखो
सब कुछ खोने के बाद भी
तुम्हारा प्रेम
प्रार्थना है मेरे लिए !
***
दो
सपनों पर किसी का ज़ोर नहीं
न तुम्हारा
न मेरा
और न ही किसी और का
कुछ भी हो सकता है वहाँ
बर्फ़-सी ठंडी आग
या जलता हुआ पानी
यह भी हो सकता है कि
मैं डालूँ अपनी कमीज़ की जेब में हाथ
और निकाल लूँ
हहराता समुद्र – पूरा का पूरा
मैं खोलूँ मुट्ठी
और रख दूँ तुम्हारे सामने विराट हिमालय
अब देखो –
मैंने देखा है एक सपना –
मैं एक छोटा-सा बच्चा लटकाए हुए कंधे पर स्कूल बैग
अपने पिता की अंगुली थामे
भाग रहा हूँ स्कूल की घंटी के सहारे
भरी हुई क्लास में
सबसे आगे बैंच पर मैं
और तुम मेरी टीचर !
कितना अजीब-सा घूरती हुई तुम मुझे
और मैं झिझककर करता हुआ
आँखें नीची
मैंने देखा – ` दो और दो होते हुए पाँच ´
और ख़रगोश वाली कहानी में बंदर वाली कविता का स्वाद
तुम पढ़ा रही थीं – `ए´ फार `एप्पल´
और मुझे सुनाई दिया `प´ से `प्यार´
तुम फटकारती थीं छड़ी
सिहरता था मैं
खीझकर तुमने उमेठे मेरे कान
सपनों के ढेर सारे जादुई नीले फूलों के बीच ही
मैंने देखा – मेरा सपना,
खेलता हुआ मुझसे !
जब बड़े-बड़े अंडों से भरा मेरा परीक्षाफल देते हुए
तुमने कहा मुझसे –
` फेल हो गए हो तुम हज़ारवीं बार ´
और इतना कहते समय मैंने देखा –
तुम्हारी बड़ी-बड़ी आँखों मे दमकता हुआ
पृथ्वी भर प्यार
और मुझे महसूस हुआ
कि वहीं कहीं आसपास शहद का छत्ता गुनगुना रहा था
धीमे से
हज़ार-हज़ार फूलों के
सपनों का गीत !
***
तीन
बदलता है समय
पर ऐसे नहीं कि एकदम सब कुछ बदल जाए
और सब कुछ हो जाए ठीक
ऐसा नहीं होता
कि एकाएक शहर के सारे कौवे हो जाएँ सफ़ेद
या पंख लगे हाथी चुगें आपकी छत पर चावल
समय बदलता है उतना ही धीरे
जितना कि `क´ के बाद `ख´ लिखती है धीमे-से
कोई बुढ़िया
और तब बदल जाता है इतिहास
जब कोई कह दे तुलसी के साथ मीर और ग़ालिब भी
बदलता तो तब भी है बहुत कुछ
जब भूलकर सब कुछ एक लड़की ठीक अपने साथी की तरह
मारती है पहला कश
और बाहर फेंकते हुए धुँआ
मुस्काती है धीमे-से
धीमे से बदल जाते हैं सपने
रंग तक बदल जाता है पानी का
सपने
लगने लगते हैं थोड़े और पराये
और खारा पानी हो जाता है थोड़ा और खारा
फेंफड़ों और हवा के बीच अक्सर बदल जाता है संवाद
हालाँकि यह बदलाव उतना ही धीमे होता है
जितना धीमे औार चुपचाप बदलता है बालों का रंग
कोई पढ़ नहीं पाता इसे
लेकिन यह भी एक बदलाव है
जब रात की एकांत खुमारी में
या छुपकर घर के किसी कोने में एक शैतान लड़की
करती है एक शरारत भरा एस.एम.एस.
अपने युवा प्रेमी को
तब भी बदलता है बहुत कुछ
***
चार
राजेन्द्र के पास एक आत्मीय और नामवर जी के शब्दों में कहें तो `प्रसन्न´ भाषा है, जिसे उन्हें बहुत साधना नहीं पड़ता, जो ख़ुद-ब-ख़ुद कविता के शिल्प में अपनी राह तलाशती है। रोज़मर्रा के साधारण जीवन और मनोभावों को वे इस तरह आँकते हैं कि हमारे सामने दुनिया के मानी खुलते जाते हैं। उनकी कविताएँ एक आम हिन्दुस्तानी नौजवान के समक्ष लगातार खुलते जीवन और संसार की कविताएँ है। इनकी सबसे बड़ी सफलता ये है कि ये बहुत सादाबयानी से अपनी बात कहती हैं, जो दरअसल कविता लिखने का एक बेहद असाधारण ढंग है। अपने कवि रूप में भाषा, डिक्शन या किसी और स्तर पर भी वे किसी से प्रभावित नज़र नहीं आते, इसलिए भी उनकी कविताएँ प्रभावित करती हैं।
बड़े संतोष की बात है कि अत्यन्त सम्भावनाशील कवि होने के बावजूद राजेन्द्र अपनी कविताओं को महज छपाने के लिए लिखा गया नहीं मानते, जो उनकी विषय वस्तु से भी जाहिर होता है। उन्हें शमशेर की इस बात पर गहरा विश्वास है कि `कविता एक बार लिखी जाकर हमेशा के लिए प्रकाशित हो जाती है´।
राजेन्द्र कैड़ा की कविताएँ पहली बार किसी साहित्यिक पत्रिका में छप रही हैं। हमें भरोसा है कि उनके इन शुरूआती लेकिन बेहद सधे हुए क़दमों का हिंदी कविता संसार में स्वागत होगा।
एक
तुम्हारा प्रेम प्रार्थना है
मेरे लिए
छोटी-सी पृथ्वी के सारे धैर्य जैसा
बहुत ज़रूरी काम से पहले बुदबुदाए जाने वाले
कुछ शब्दों जैसा
अपनी सारी असफलता
समूचे पागलपन
और कुछ थके हुए शब्दों को करता हूँ
तुम्हारे नाम
मेरे मीठे प्यार की तरह
इन्हें भी चखो
सब कुछ खोने के बाद भी
तुम्हारा प्रेम
प्रार्थना है मेरे लिए !
***
दो
सपनों पर किसी का ज़ोर नहीं
न तुम्हारा
न मेरा
और न ही किसी और का
कुछ भी हो सकता है वहाँ
बर्फ़-सी ठंडी आग
या जलता हुआ पानी
यह भी हो सकता है कि
मैं डालूँ अपनी कमीज़ की जेब में हाथ
और निकाल लूँ
हहराता समुद्र – पूरा का पूरा
मैं खोलूँ मुट्ठी
और रख दूँ तुम्हारे सामने विराट हिमालय
अब देखो –
मैंने देखा है एक सपना –
मैं एक छोटा-सा बच्चा लटकाए हुए कंधे पर स्कूल बैग
अपने पिता की अंगुली थामे
भाग रहा हूँ स्कूल की घंटी के सहारे
भरी हुई क्लास में
सबसे आगे बैंच पर मैं
और तुम मेरी टीचर !
कितना अजीब-सा घूरती हुई तुम मुझे
और मैं झिझककर करता हुआ
आँखें नीची
मैंने देखा – ` दो और दो होते हुए पाँच ´
और ख़रगोश वाली कहानी में बंदर वाली कविता का स्वाद
तुम पढ़ा रही थीं – `ए´ फार `एप्पल´
और मुझे सुनाई दिया `प´ से `प्यार´
तुम फटकारती थीं छड़ी
सिहरता था मैं
खीझकर तुमने उमेठे मेरे कान
सपनों के ढेर सारे जादुई नीले फूलों के बीच ही
मैंने देखा – मेरा सपना,
खेलता हुआ मुझसे !
जब बड़े-बड़े अंडों से भरा मेरा परीक्षाफल देते हुए
तुमने कहा मुझसे –
` फेल हो गए हो तुम हज़ारवीं बार ´
और इतना कहते समय मैंने देखा –
तुम्हारी बड़ी-बड़ी आँखों मे दमकता हुआ
पृथ्वी भर प्यार
और मुझे महसूस हुआ
कि वहीं कहीं आसपास शहद का छत्ता गुनगुना रहा था
धीमे से
हज़ार-हज़ार फूलों के
सपनों का गीत !
***
तीन
बदलता है समय
पर ऐसे नहीं कि एकदम सब कुछ बदल जाए
और सब कुछ हो जाए ठीक
ऐसा नहीं होता
कि एकाएक शहर के सारे कौवे हो जाएँ सफ़ेद
या पंख लगे हाथी चुगें आपकी छत पर चावल
समय बदलता है उतना ही धीरे
जितना कि `क´ के बाद `ख´ लिखती है धीमे-से
कोई बुढ़िया
और तब बदल जाता है इतिहास
जब कोई कह दे तुलसी के साथ मीर और ग़ालिब भी
बदलता तो तब भी है बहुत कुछ
जब भूलकर सब कुछ एक लड़की ठीक अपने साथी की तरह
मारती है पहला कश
और बाहर फेंकते हुए धुँआ
मुस्काती है धीमे-से
धीमे से बदल जाते हैं सपने
रंग तक बदल जाता है पानी का
सपने
लगने लगते हैं थोड़े और पराये
और खारा पानी हो जाता है थोड़ा और खारा
फेंफड़ों और हवा के बीच अक्सर बदल जाता है संवाद
हालाँकि यह बदलाव उतना ही धीमे होता है
जितना धीमे औार चुपचाप बदलता है बालों का रंग
कोई पढ़ नहीं पाता इसे
लेकिन यह भी एक बदलाव है
जब रात की एकांत खुमारी में
या छुपकर घर के किसी कोने में एक शैतान लड़की
करती है एक शरारत भरा एस.एम.एस.
अपने युवा प्रेमी को
तब भी बदलता है बहुत कुछ
***
चार
इस दुख का क्या करूँ
सोचा होगा उसने
कोई तैयार नहीं इसका स्वाद चखने को
तब धीमे से उसने पकाया होगा फिर से इसे
और घोल दिया होगा इसमें गहरा प्यार
लो अब तो जानबूझ कर लेना ही पड़ेगा हर किसी को गहरा लगाव,
कुछ अनन्त आँसू,
सारी असफलता और उत्तेजना के गाढ़े घोल को लोगों ने कहा प्यार !
अब वो अपनी बिल्ली के तीन बच्चों के लिए हो
प्यारे पिता के लिए हो
तुम्हें अपना मान चुकी एक जोड़ी आँखों के लिए हो
या इस अनगढ़ पृथ्वी के लिए
तुम आख़िर में ख़ुद को फँसा ही पाओगे
अब तुम कुछ नहीं कर सकते
कभी न कभी किसी न किसी तरह यह प्यार
तुम्हें अपने पवित्रतम अंदाज़ में दुख ही देगा
तुम्हारे चमकीले सुखों से ज़्यादा अपना दमकता दुख !
***
पाँच
(चप्पलकथा ….. – यह शीर्षक जैसा कुछ – सम्पादक द्वारा)
कुछ बेफि़क्रे लोग ज़रूर करते हैं मेरा भरोसा
लेकिन बन-ठनकर जीने वाले तो तभी होते हैं पूरे
जब सूट के साथ सजे हों बूट भी
मेरा कोई भी ढंग नहीं करता किसी को भी पूरा
एक लापरवाह अधूरापन
चिपका ही रहता है मेरे साथ
इसलिए कई बड़ी चमकती इमारतों और संस्थानों में
प्रतिबंधित हूँ में
लेकिन बहुत पुरानी साथिन भी हूँ आदमी की – शायद
उसके आराम की आदिम खोज
औरत, आग और हथियार के बाद तो
मेरा ही नम्बर आएगा
चाहे तो कर सकते हैं आपके बड़े-बड़े इतिहासकार
ये छोटी-सी खोज
पता नहीं क्यों लेकिन मुझे लगता है कि मुझे बनाया होगा
किसी औरत ने सबसे पहले
अपने खुरदुरे और आदिम अंदाज़ में
हो सकता है
मैं रही होऊँ प्रथम अनजाने प्रेम की आकिस्मक भेंट
किन्हीं खुरदुरे कृतज्ञ पैरों के लिए आराम की पहली इच्छा
मेरे भीतर तो अब भी चरमराता है
आदमी का पहला सफ़र
जब पहली बार मैंने उसके तलवों और धरती के बीच
एक अनोखा रिश्ता बनाया होगा
वो आदमी और पृथ्वी के बीच पहला अंतराल भी था
हालाँकि
घास और धूल के बहाने अब भी उसकी त्वचा
जब तब गपियाती रहती है पृथ्वी से
कभी-कभी आपका पिछड़ापन बचा लेता है आपको
कई झंझटों से
मसलन मुझे पहनकर नहीं जीते जाते युद्ध
वहाँ तो बड़े-बड़े और मज़बूत जूतों का राज है
और इतनी अपवित्र मैं
कि कोई नहीं ले जाता मंदिर या किसी पवित्र जगह
हाँ ! इस देश की एक पुरानी कहानी में
एक भाई ने ज़रूर बनाया था मुझे राजा
और दे दी थी राजगद्दी
चलो पर वो तो कहानी थी बस !
मेरी जीभ में आदमी का आदिम स्वाद है
थके हारे आदमी की शाम शामिल हो जाती है कभी-कभी
मेरी सिकुड़ी हुई साँस में
***
(राजेंद्र की उम्र अभी तीस साल के करीब है और उन्होंने हिंदी जाति की अवधारणा पर महत्त्वपूर्ण शोध कार्य किया है। वे नैनीताल में रहते हैं…राजेंद्र की कविताओं की इस पोस्ट के साथ ही अनुनाद ने तीन सौ पचास का आंकड़ा भी छू लिया है- अनुनाद के सभी पाठकों और सहयोगियों का आभार।)
A big thank you sir…. just marv…. mind blowing….
तीस बरस में यह हाल… पहली में क्या समर्पण है … दूसरी और तीसरी कविता दिलचस्प भी है और सुन्दर भी… चार और पांच सहेजने वाली है…
bahut hi umda prastutikaran.
अनुनाद पर कविताये पढ़कर साँसों में सुगंध मिल जाती है . राजेंद्र कैडा की कवितायेँ बहुत सुंदर है ..एक बड़ा कैनवास बुनती हुई .. बहुतबधाई .
परिपक्व कविताएं. मुझे लगा किसी स्थापित टाईप कवि को पढ़ रहा हूँ.बाद में टिप्पणी देख कर चौंका. अरे स्वागत है रजेन्द्र जी का . खूब प्ढ़ी जाईंगी इन की कविताएं.
ऐसी कविताएं देते रहें.
…खत्म नही होती कविता ! कभी भी, कैसे भी….
तीन सौ पचास का आंकड़ा छूने पर ये उपहार आपने दिया है तो मन से आवाज़ आ रही है 'आभार'.
बिल्कुल टटका कविता
बधाई…
वह क्या कविताएँ हैं जनाब! कहाँ से ढूढ़ लाते हैं आप ऐसी कविताएँ. कविताओं को समर्पित ये ब्लॉग अब एक दस्तावेज़ बन चला है.
राजेन्द्र का टोन जैसा कि जनाब अशोक जी ने कहा बहुत टटका है लेकिन इतना भर कहने मेरा काम नहीं चलेगा. साँसों और फेफड़ों के संबंधों का ये बदलाव भला और कहाँ दर्ज हुआ है? प्यार का गाढ़ा घोल सिर्फ प्रेमिका के लिए नहीं बिल्ली के बच्चों और पिता के लिए भी! दुनिया का होना और बदलना अगर मौजूद है तो कविता का बदलना भी यहाँ है- ज़रा देखिये. यह सच्चे अर्थ में एक नया कवि है- शब्दों में नया, सपनो में नया, इच्छाओं में नया, ट्रीटमेंट में नया- और शिरीष जी आपकी नज़र भी नयी, बिलकुल नयी, नए को सम्मान देने वाली नज़र- अनुनाद भी नया.
कितने कवियों को जाना यहाँ- क्या कविता के मालिक लोग अनुनाद पढ़ते है?
1
prem ishvar hai maanaa tha,prathana hai jana hai.
2
kuch bhi mumkin hai sapno me,hath me himalaya bhi sma sakta hai or jaroori nahi ki 2 or 2 4 hi ho.jadu bhare neele sapne jo kyee baar nahi aksar sone na de.
3
samya badlata hai jab bahut kuch badlata hai ya fir samya badlata hai tab bahut kuch badlata hai.itihaas badlana etna kaha asaan hai jitna samya badlana
4
dukh bechara apna dukh le ke kaha jaye?
5
apwiter hai par rajya kiya isne bhi.
इन कविताओं को पहले दो दिन पूर्व पढ़ा और फिर सोचा कि तनिक बाद में फिर से पढ़ूंगा….आज अभी फुरसत में बड़ी देर से डूब-उतरा रहा हूं राजेन्द्र जी की कविताओं में।
कवितओं को बगैर शिर्षक के रखने की उनकी अदा भायी और "हजार-हजार फूलों के सपनों का गीत"-सी इन कविताओं के लिये आभार।
बहुत देर से में कोशिश कर रही हु की राजेन्द्र जी की कविता के बारे मे कुछ कह सकू परन्तु सही शब्दों का चयन नही कर प़ा रही हू, कुछ लिखती हु फिर लगता है इतना काफी नही , इतने सारे भाव है पर अभिव्यक्ति में असमर्थ, सिर्फ बधाई कहना चाहूंगी जब तक उतने सुन्दर शब्द नही मिलते जो में लिख सकू
subah subah padhi. man prasann ho gaya. poore din ke liye itni khushi kaafe hai. dhanyvaad. rajendr ji ko laakh badhai. aur shirish ko abhar.