कुछ दिन पहले
ओम निश्चल के एक आलेख में जोशना बैनर्जी आडवाणी का उल्लेख मैंने देखा, फिर फेसबुक पर उनकी कविताऍं पढ़ीं। उनसे अनुनाद को ये कविताऍं मिली हैं। आप
अवश्य ही यह महसूस करेंगे कि कविता में अहिन्दी-से प्रतीत होते इस डिक्शन में
हिन्दी एक अलग ही सौंदर्य और प्रभाव के साथ सम्भव हो रही है। पूरब में की गई सुदीर्घ
यात्राओं के पाथेय जैसी ये कविताऍं अवश्य ही पाठकों द्वारा सराही जाऍंगी। अनुनाद
पर जोशना का स्वागत और शुभकामनाऍं।
कवि का कथन
पृथ्वी की
देह पर बालू और सरपतों से गुज़रते हुए कई घाट, गिरी, देवल, करील, छीमियाँ, वृक्ष और खेत पार करता हुआ मन उसी जगह ठहरता है जहाँ दारूण दुःख के समय
में दो मन अलग हुए थे, दुःख इतना कि पक्षी की चोंच में दबा
तिनका भी मन को शांत ना कर सके, भूख इतनी रही कि भात के चार
दाने दानव लगते, देव सारे मेरे ही बिस्तर पर सोते मिले,
आरसी उपहास करती थी, परितृप्ति कौन देता?
कौन देता
कविताऍं, कौन ही सिखा सकता था परमार्थ, कौन गिराता अनाजों का मूल्य, कौन जगाता टिमटाम की
ललक, सूती साड़ी की साज देख कौन पूछता ये साड़ी कहाँ से ली?
ये मन किंकिणी
बन चुका है, स्मृतियों की छुअन इसे हिला देती है,
इसके हिलते ही हिलती है समूची पृथ्वी, हिलता
है देह का ताप, दंत पंक्ति टिटकारती है और छीन जाती है कविता
लिखने की मुकुलित कला।
कविता, देह और अनाज के बिना बैठा मनुष्य सहदारी का ऋण कैसे चुकाये, उन्हीं रास्तों का ऋण जिनपर चलते हुए हम आये थे और रह जाते हैं मात्र
अकेले।
इस अकेलेपन
में जीवन धनेश है।
मुझे कविताऍं
लिखने के लिए धन, प्रेयस, साजसज्जा की
ज़रूरत नहीं। एकांत की ज़रूरत है।
***
कटिंग ज़िन्दगी ….
क्या क्रान्ति है कि
हल्दी, नमक, तेल, धनिया
जानते हैं अपने मिश्रण की
मात्रा
क्या सभ्यता है कि
झींगुर, मेंमने, गधे, ऊँट
समझते हैं अपनी कार्यप्रणाली
क्या गोरखधंधा है कि
प्रेम, परवाह, त्याग, स्नेह
इन्हें पनाह नही अनाथालय में भी
क्या मुर्दा चुप्पी है कि
देवालय, पहाड़, पेड़, नदी
न्यायपालिका के सदस्य नहीं रहे
क्या ज़लज़ला है कि
बम, सुहागा, लकड़ी, फ़ूस
आग लगा पाने की दूसरी शर्त हैं
क्या बेसुआदी है कि
मूँगबड़ियाँ, सौंठ, गुड़, मुरब्बे
दादी नानी की रसोई के कोने में
पड़ी हैं
क्या कौंध है कि
नींद की गोली, बढ़ता बीपी, नसकम्पन
रात के तीसरे पहर के इश्क में
पड़े हैं
क्या कारोबार है कि
रंगमंच, पुस्तकालय, कवितायें
अर्थशास्त्र के विलोम ही रहेंगे
सदा
***
अहम ….
मेरे हृदय में आ बसी हैं जाने
कितनी ही शकुंतलाऍं
जाने कितने ही दुर्वासाओं का
वास है हमारे बीच
मुझे अपनी वेदना के चीत्कार के
लिए
अपना कमरा नहीं
एक बुग्याल चाहिए
चाहिए एक नदी, एक चप्पू चाहिए
कोई देवालय मेरे प्रेयस से
पवित्र नहीं
कोई धूप मेंरी प्रेमकविता से
गुनगुनी नहीं
हे जनसमूह! हे नगरपिता!
तुम मेरे अन्दर से तो निकाल
सकते हो कविता
पर उस प्रेमकविता से मुझे बाहर
नहीं निकाल सकते
***
मज़दूर ईश्वर ….
अनुपस्थितियों को सिखाई
सोलह कलायें
गुनाह के अनेक तथ्य बनाकर
प्रायश्चित्त को मोक्ष दिया
संगीत के लय में प्रेमियों की
आत्माओं के लिये गुंजाइश रखी
वचन के साथ बांध दिया
दैनिक अभ्यास
दुधमुंहें बच्चों को शब्दकोश
से दूर रखा
टिप्पणियों में भर दी छंटाक
भर निर्लज्जता
ईश्वर से बड़ा मज़दूर कौन ….
***
अलबत्ता प्रेम ….
ईश्वर ने सोचा
ये सुन्दर है
नदी ने सोचा
ये पीछे छूटी स्मृतियों की टीस
पर्वत ने सोचा
ये गर्व से नीचे देख पाने की
कला
मल्लाह ने सोचा
ये आंधियों के लिये गाया गया
विदागीत
चिड़िया ने सोचा
ये आकाश की छाती का बहुवचन
आदमी ने सोचा
जीवन काटा जा सकता है
स्त्री कुछ सोच ना सकी
धम्म से गिर पड़ी
एक स्त्री के गिरने से
ब्रह्मांड का कद कितना ऊँचा हुआ
प्रेम ने
इस ब्रह्मांड को सौ संभावनाऍं
दीं
और उस पर स्त्रियों को दे दी
नर्म हथेलियां
दोनों हथेलियों को मिला
गाल के नीचे लगाकर स्त्रियों को
अब
सो जाना चाहिये
ये नर्म हथेलियाँ
कोई गुनाह ना कर बैठे ….
***
तफ़रीह….
जीवन के सबसे कठिनतम और सबसे
क्रूर समय में क्या किया
कुछ ख़ास नही
बस कुछेक अक्खड़ कविताऍं लिखीं
छाती को कैसे समझाया कि जो धँसा
हुआ है वह साँस लेता रहेगा
कुछ ख़ास नहीं
बस श्रृंगार कर के आरसी में खुद
को निहारा
ऊँचे आकाश को ताकते वक्त मन में
क्या करने की कसके ठानी
कुछ ख़ास नहीं
यही कि यात्राओ के लिये पैसा
इकठ्ठा करूँ
सूरज की पहली किरण और चिड़ियों
की पहली उड़ान देखकर क्या किया
कुछ ख़ास नहीं
नौकरी पर समय से पहले पहुँची
सही समय पर बोनस ना मिलने पर
कैसे चीज़ों का बंदोबस्त किया
कुछ ख़ास नहीं
बच्चों को पंचतन्त्र की
कहानियाँ सुनाई
प्रेम में हारने पर ऐसा क्या
किया जिससे
जीवन जीने लायक़ बना
कुछ ख़ास नहीं
शाम के वक्त एक पार्ट टाईम जॉब कर
ली
देह के सबसे भारी अंग का क्या
किया जो तुमसे ढोया नही गया
कुछ ख़ास नही
वृद्धआश्रम के बाहर चहलक़दमी की
सोचे गये दिये उत्तर में और
बिना सोचे गये दिये उत्तर में कैसे अन्तर किया
कुछ ख़ास नही
सोच कर गये दिये उत्तर में
प्रेम नही मिला
***
बाबा अब क़िस्से नहीं सुनाते
….
बाबा के कंठ में ग्रह बसा था
उनके किस्सों में नियाग्रा
फौल्स की उग्रता का
भरसक शोध था
काला सागर और बुल्गेरिया के
क्षेत्रफल
उनकी हथेलियों
पर आकर ठिठका करते थे
रेलगाड़ी से उठता धुआँ जिन्न बन
जाता था
जादू से यकायक
तूफान तानाशाही करते थे
कठठोकरा टकटक करके
संगीत बुन दिया करता था
बेलें मटकती बलखाती हुई
कंचनजंगा चढ़ जाती थीं
कई कई अरब वर्षो की घड़ी
वक्त की झालर पर ठहरती थी
आलू बुखारे के खेतों में
जुगनू जासूसी किया करते थे
जैतून के पेड़ पर चाँद
ध्रुवस्वामिनी को ताकता था
सूरज के सारथी
गिलहरी के कोटर में बौने बन
अपनी तनख्वाह गिनते थे
लोहार के कँधे पीटमपीट में अपना मुँह लटका लेते थे
बाबा अब क़िस्से नहीं सुनाते
जीवन गढ़ता है ऐसे क़िस्से जो
बाबा को दोहराते हैं ….
नियाग्रा फौल्स और काला सागर
आँखों की गंगोत्री से जब जब बहते
हैं तो
हौसलों के तूफान
अब भी
तानाशाही कर उठते हैं
तलवों की बेलें कंचनजंगा
झटपट चढ़ जाती हैं
ध्रुवस्वामिनी अब भी
नवयौवना है लेकिन चाँद
थोड़ा सा मनचला हो गया है
अंधेरी सुरंगों में जुगनू टौर्च
लिये आगे पीछे चलते हैं
सूरज के नीचे तनख्वाह
गिनते ही तनख्वाह से सन्यास मिल
जाता है
लोहार का लटका हुआ मुँह
देखकर
एक और दिन
शान से जीना आ जाता है
एक बच्ची कहीं सोती है
एक औरत कहीं जागती है
पर बाबा अब क़िस्से
नहीं सुनाते
***
अंतयेष्टि से पूर्व ….
हे देव
मुझे बिजलियाँ, अँधेरे और साँप
डरा देते हैं
मुझे घने जंगल की नागरिकता दो
मेरे डर को मित्रता करनी होगी
दहशत से
रहना होगा बलिष्ठ
हे देव
मैंने एक जगह रुक वर्षों
आराम किया है
मुझे वायु बना दो
मैं कृषकपुत्रों के गीले
बनियानों
और रोमछिद्रों में
समर्पण करूँ खुद को
हे देव
मैं अपने माता पिता की
सेवा ना कर सकी
मुझे ठंडी ओस बना दो
मैं गिरूँ वृद्धाश्रम के आँगन
के
गीले घासों पर
वे रखें मुझ पर पाँव और मैं
उन्हें स्वस्थ रखूँ
हे देव
मैं कभी सावन में झूली नही
मुझे झूले की मज़बूत गाँठ बना
दो
उन सभी स्त्रियों और बच्चों को
सुरक्षित रखूँ
जो पटके पर खिलखिलाते हुये बैठे
और उतरे तो तृप्त हो
हे देव
कुछ लोगों ने छला है मुझे
मुझे वटवृक्ष बना दो
सैकड़ों पक्षी मेरे भरोसे
भोर में भरे उड़ान और रात भर करे
मुझमें विश्राम
मैं उन्हे भरोसेमंद सुरक्षित
नींद दूँ
हे देव
मेरा सब्र एक अमीर
नवजात शिशु है
हर क्षण देखभाल माँगता है
मुझे एक हज़ार आठ मनको वाली
रूद्राक्ष माला बना दो
मेरे सब्र को होना
होगा अघड़
हे देव
मुझे चिठ्ठियों का इंतज़ार रहता
है
मुझे घाटी के प्रहरियों की
पत्नियों का
दूत बना दो
उन्हें भी होता होगा संदेसों
का मोह
मैं दिलासा दे उन्हें व्योम
कर सकूँ
हे देव
मैंने सवालों के बीज बोये
वे कभी फूल बन ना खिल सकें
मुझे भूरी संदली मिट्टी बना दो
मैं तपकर और भीगकर
उगाऊँ कई कई
सैकड़ों खलिहान
हे देव
मैं धरती और सितारों के बीच
बेहद बौनी लगती हूँ
मुझे ऊँचा पहाड़ बना दो
मैं बादल के फाहों पर
आकृतियाँ बना उन्हें
मनचाहा आकार दूँ
हे देव
मैं अपनी पकड़ से फिसल कर
नही रच पाती कोई दंतवंती कथा
मुझे काँटेदार रास्ता बना दो
मेरे तलवों को दरकार है
टीस और मवाद के ठहराव की
अनुभव लिखने को
हे देव
चिकने फर्श पर मेरे
पैर फिसलते हैं
मुझे छिले हुये पंजे दो
मेरे पंजों के छापे
सबको चौराहों का संकेत दें और करें
उनका मार्गदर्शन
हे देव
मेरे आँसू घुटने टिका
बहने को तत्पर रहते हैं
मुझे मरूस्थल बना दो
वीरानियों और सूखी धरा को
ये हक है कि वे मेरे अश्रुओं
को दास बना लें
हे देव
प्रेम मेरी नब्ज़ पकड़
मेरी तरंगें नापता है
मुझे बोधिसत्व का ज़ख़ीरा बना
दो
त्याग मेरा कर्म हो
मुझे अस्वीकार की
स्वतंत्रता चाहिये
हे देव
मेरे कुछ सपने अधूरे रह गये है
मुझे संभव और असंभव के बीच की
दूरी बना दो
मैं पथिकों का बल बनूँ
उनकी राह की
बनूँ जीवनगाथा
हे देव
मैंने अब तक पुलों पर सफ़र किया
है
मुझे तैराक बना दो
मैं हर शहरी बच्चे को तैराकी
सिखा सकूँ
शहर के पुल बेहद
कमज़ोर है
हे देव
मेरे बहुत से दिवस बाँझ रहे है
मुझे गर्भवती बना दो
मेरी कोख से जन्मे कोई इस्पात
जो ढले और गले केवल
संरक्षण करने को
सभ्यताओं को जोड़े रखे
हे देव
मैं अपनी कविताओं की किताब
ना छपवा सकी
मुझे स्याही बना दो
मैं समस्त कवियों की
लेखनी में जा घुलूँ
और रचूँ इतिहास
***
बू….
मैंने एक जगह रुक के डेरा डाला
मैंने चाँद सितारों को देखा
मैंने जगह बदल दी
मैंने दिशाओं को जाना
मैं अब ख़ानाबदोश हूँ
मैं नखलिस्तानो के ठिकाने जानती
हूँ
मैं अब प्यासी नहीं रहती
मैंने सीखा कि एक चलती हुई चींटी
एक ऊँघते हुये
बैल से जीत सकती है
मुझे बंद दीवारों से बू आती है
मैं सोई
मैंने सपना देखा कि जीवन एक
सुगंधित घाटी है
मैं जगी
मैंने पाया जीवन काँटों की खेती
है
मैंने कर्म किया और पाया कि
उन्हीं काँटों ने
मेरा गंदा खून निकाल दिया
मैंने स्वस्थ रहने का रहस्य
जाना
मुझे आरामदायक सपनों से बू आती है
मैं दुखी हुई
लोगों ने सांत्वना दी और बाद में
हँसे
मैं रोई
लोगों ने सौ बातें बनाई
मैंने कविता लिखी
लोगों ने तारीफ़ें की
मेरे दुख और आँसू छिप गये
मैं जान गई कि लोगों को दुखों
के कलात्मक
ढाँचे आकर्षित करते हैं
मुझे आँसुओं से बू आती है
मैंने बातूनियों के साथ समय
बिताया
मैंने शांत रहना सीखा
मैंने कायरों के साथ यात्रा की
मैंने जाना कि किन चीज़ों से
नहीं डरना
मैंने संगीत सुना
मैंने अपने आसपास के अंनत को भर
लिया
मैं एकाकीपन में अब झूम सकती
हूँ
मुझे खु़द के ही भ्रम से बू आती
है
मैंने अपने बच्चों को सर्कस
दिखाया
मुझे जानवर बेहद बेबस लगे
मैंने बच्चों से बातें की
उनकी महत्वकांक्षाओं की लपट
ऊँची थी
मैंने उन्हें अजायबघरऔर
पुस्तकालय में छोड़ दिया
अब वे मुझे अचम्भित करते हैं
मैंने जाना कि बच्चों के साथ
पहला क़दम ही
आधी यात्रा है
मुझे प्रतिस्पर्धाओं से बू आती
है
मुझे दोस्तों ने शराब पिलाई
मैंने नक्सली भावों से खुद को
भर लिया
मैंने जलसे देखे
मैंने अपना अनमोल समय व्यर्थ
किया
मैं खुद ही मंच पर चढ़ गई
मेरे दोस्त मुझपर गर्व करते है
मैंने जाना कि सम्राट सदैव पुरुष
नही होते
मुझे खु़द के आदतों से बू आती
है
मुझे कठिनाईयाँ मिलीं
मैंने मुँह फेर लिया
मैंने आलस बन आसान डगर चुनी
मुझे सुकून ना मिला
मैंने कठिनाईयों पर शासन किया
मेरी मेहनत अजरता को प्राप्त
हुई
मैंने देखा कठिनाई अब भूत बन मेरे
पीछे नही भागती
मुझे बैठे हुये लोगों से बू आती
है
मैंने प्रेम किया
मैंने दारूण दुख भोगा
मैंने अपने प्रेमी को दूसरी
औरतो से अतरंगी
बातें करते देखा
मैं जलती रही रात भर
मैंने प्रेम को विसर्जित कर
दिया
प्रेम ईश्वर के कारख़ाने का एक
मुद्रणदोष है
प्रेम कुष्ठ रोग और तपैदिक से
भी भयंकर
एक दिमाग़ी बीमारी है
मुझे उस पल से बू आती है
जब मैंने प्रेम किया
***
परिचय
शिक्षा- एम.ए (अंग्रेज़ी), बी.एड, एम.एड, पीएचडी (ओल्ड,
मिडिल एंड कंटेम्परेरी इंग्लिश लिट्रेचर)
प्रधानाचार्या,
स्प्रिंगडेल मॉर्डन पब्लिक
स्कूल, आगरा
कत्थक में प्रभाकर
सीबीएसई की कोर्सबुक्स में
एडिटिंग (अंग्रेज़ी और सोशल साईंस विषय)
सीबीएसई से जुड़े सेमिनार्स और
वर्कशॉप्स आयोजित कराना
प्रथम काव्य संग्रह-
सुधानपूर्णा (दीपक अरोड़ा सम्मान)
ईमेंल – jyotsnaadwani33@gmail.com
अद्भुत कविताएँ! बहुत बधाई।
ज्योति शोभा के बाद सहसा जोशना की कविताओं पर ध्यान गया। जोशना की कविताओं का स्वाद नया है और इनमें भरपूर ताज़गी है। जोशना की कविताएं प्राय: देखता और पसंद करता हूं। ज़ाहिर है, अनुनाद से ऐसी अच्छी प्रस्तुति की उम्मीद बनी रहती है।
बहुत अलग बहुत खास
अपनी अंतरात्मा से भेंट करवाती हैं आपकी कविताएं।
यूं ही लिखती रहें 🙏❣️
बहुत बढ़िया
बहुत अच्छी कविताएं हैं।
Bahut hi gahri aur sunder kavitayein hai aapki. Kai baar padhi maine. Mann nahin bharta.
जोशना जी को पढना अलग अनुभूति से साक्षात्कार है। गहरी मर्मान्तक