अनुनाद

विदग्ध देहों का जल-स्पर्श – अमिताभ चौधरी की कविताऍं / चयन : प्रशांत विप्‍लवी

अमिताभ चौधरी की कविताऍं कवि प्रशांत विप्‍लवी ने अपनी एक टिप्‍पणी के साथ उपलब्‍ध करायी हैं। इस सहयोग के लिए अनुनाद प्रशांत जी का आभारी है। इधर के प्रचलनों से अलग ये कविताऍं एक अलग कहन की कविताऍं हैं और बरते गए शब्‍दों और वाक्‍यों के अलावा उनके बीच की दूरियों और रिक्तियों में भी मौजूद हैं। अमिताभ चौधरी का अनुनाद पर स्‍वागत है। 
 
   विदग्ध देहों का जल-स्पर्श   
 
कविता उसके सर्वांग में है। उसने स्वभावगत निश्चिंतता के लिए एकाकीपन वाले जीवन को चुना। साहित्य की शाब्दिक तपस्या को उसने यथार्थपूर्ण ढ़ंग से जीना सीख लिया है। उन्हें (अमिताभ चौधरी) मैं  एक विशुद्ध कवि मानता हूँ । उनकी कविताओं का अपना एक अलग संसार है। समकालीन कविता के द्रुत लय-ताल वाले बहुधा पाए जाने वाले फॉर्मैट से दूर उनकी अपनी शैली , अपनी भाषा और अपना कथानक है, जो विलम्बित शास्त्रीयता के नियमों पर अग्रसर है। विषयों की विविधता और उन पर बहुआयामी दृष्टिकोण भी उनकी कविता की विशिष्टता है। उनकी कविता संगीत वाली शिष्टता भी कायम रखती है और जबकि अर्थ स्पंदन अपनी संवेदना और चेतना वहन में उतने ही सफल भी हैं।

प्रशांत विप्‍लवी
[एक]
पीड़ा का अंत नहीं है, प्रिये!

वह देखो : 


एक नवजात की किलक सुनकर

बाँझ स्त्री के स्तनों में दूध उतर आया
है।
देखो प्रिये : दूध के दाब से
फटते स्तनों को
वह अपने हाथों से
चुआ रही है।
अपनी रिक्त गोद में वह कितने
बच्चे खिला रही है
?

देखो!

[दो]
किसी अकिंचन की भावना से
रोटी का मूल्य आँकते हुए
मैं क्या कह सकता हूँ?
जबकि,

खेत-के-खेत
मेरे समक्ष उपस्थित हैं,

और अभी-अभी राम
बरसा है।
उपस्थितियों के सामने
पृष्ठ टिकाकर कविता लिखने की
कल्पना दूभर है
,
मित्र!
रोटी को उदर पर रखकर
भूख कै करने के लिए उबकियाँ
लेना
असाध्य है।
[तीन]
,
विदग्ध देहों का जल-स्पर्श!
गूढ़,
अकाल,
अंतःस्रावी;
और कितनी मिट्टी तुम्हारे ऊपर
है
?—

कि
मैं
,

पृथ्वी की आत्मा से आकंठ मिलूँ

तो कविता का रस बरसे!

[चार]
तैरते-तैरते
नावें सूख गई हैं।
सारा काठ उतर गया है।
[देखो!]
किंतुतुमने केवल नदी की शांति/
उन्माद
और
आंदोलन देखे हैं :

नदी के प्रतिबिंब में मुख देखकर

तुमने केवल

जल की आर्द्र ध्वनियाँ कंठ की हैं।
[ऐसे, एक वृक्ष की काया काटना अच्छा बात नहीं हैव्यक्ति!]
[पाँच]
मरूस्थल के एक आकाशीय
विस्तार में
जल के लिए मछली की तड़प है—
       समुद्रों/

नदियों/

झीलों/

तालों से कहीं दूर

मछली की तड़प।

: ग्रीष्म की एक दोपहर

मैं बाएँ डग से चप्पल उतारकर

बालू को स्पर्श करता हूँ,  “मेरे राम!”
यदि मैं कहना चाहता हूँ : मेरे
पैरों में
चप्पलें हैंइसलिए
मैं मछली की तड़प को नहीं
पहुँचा हूँ
;
तो तुम कहना, ” हाँ!”
तुम कहना मेरे प्यार! …
[छह]
दूर तक—
बहुत दूर तक
एक नीलगाय है;
[केवल एक
नीलगाय।]
कुछ होने के भय से चौंकी हुई :

जन्मने को योनियाँ टोहती
मेरी आत्मा

उसकी आँखों में होनी
चाहिए!०००

[यद्यपि,


मैं उसे सूझ जाऊँगा तो वह धक्से रह जायगी।]
[सात]
ओ मेरी प्रभुता!
तुम कहाँ जगलों में रह गई।
मैं कहाँ नगरों में खो गया।
धरती के ऊपर आकाश इतना क्या हो
गया
     कि
एक कविता में भटकता हुआ आहत मैं
कि
मैं दुःख के लिए रो सकता हूँ :

घास-फूस तक जाकर

मैं तुम्हारे लिए पृष्ठ हो सकता हूँ

यदि  निरक्षर


तुम मुझे पढ़ती हुई मिलो :
मैं नग्न हो सकता हूँ
कि मैंने वस्त्र पहने हैं, इसलिए
तुम मुझे अश्लील कहो …
[आठ]
मैं तुम्हें देखता हूँ
और तुम्हें सुंदर कहता हूँ।
तुम्हें देखते हुए
मैं तुम्हारी आत्मा से भर जाता
हूँ :

तुम्हारा वक्ष।—

तुम्हारा दर्प।—

तुम्हारी आन।—

तुम्हारी नाभि के वृत्त में मैं
पृथ्वी को घूमते हुए देखता हूँ
और शून्य साध लेता हूँ।

तुम्हारी स्पृहा की
कल्पना में

मैं अपने रोयों से निकलता
हूँ
     और

ऐसे स्थिर होता हूँ

जैसे कहीं चला गया।
[नौ]
रात भर मैं ने अँधेरा देखा :

निष्प्रभ उजाले को कोख देता

केवल अँधेरा।
पलकें उठाने व गिराने को एकसार
करता यह समय
प्रतिबिंब झाँकने के लिए कितना
उपयुक्त है
?     कि

मैं केवल
स्पर्श करके अपना मुख

देख सकता
हूँ।
मैं समझता हूँ [जैसे मैं समझता
हूँ] :
 

पानी
प्रतिबिंब की काया से
मुझे मेरा मुख दिखाकर झील की
तहें लोका लेता है
    कि
मेरे समक्ष गहराई का अभिप्राय
प्रकट हो
,—

अँधेरे-सा
स्पष्ट     

निष्कलुष।

[पानी : समय जैसा
पारदर्शी पानी। …]
[दस]
बाँझ के बेटे-सा

एक विचार     सुमुखी
जन्म ले रहा है।
यदि,

तुम योनियाँ लहुलुहान होने को आवश्यक नहीं समझते हो

तो मेरी कोख को टटोलो।

[टटोलना जैसे स्पर्श करना है।]
तुम यह समझने का यत्न करो कि
मेरी पीड़ा प्रसवदर्श नहीं है
        ,,और      —और
मेरी रिक्त गोद में एक शिशु का भार है :

पृथ्वी जैसे गोल      और

हरा।

[ग्यारह]
शुष्क जल की कल्पना में
आर्द्र काठ की इच्छा से
मैं तहों-की-तहों डूबा हूँ।
मुझे तैरती नावों से प्रयोजन है
: नहीं है।
मेरी साँस के बुलबुले
तुम्हारे हाथ आते हैं तो अच्छी
बात है।—
मेरी देह तुम्हारी नाव को छूती
है तो छूने दो : मत छूने दो!
मिट्टी पर ढेर हुई मछली की दो
आँखों के एक बिंदु पर
मेरी भौंहों का बीच है,
इसी को यथार्थ समझकर तुम मेरी
टोह लेना : नहीं लेना!!
***
   परिचय   
अमिताभ चौधरी
जन्म : राजस्थान में चुरू जिले के ग्राम थिरपाली छोटी में।
शिक्षा : एम ए [हिंदी साहित्य]
पूर्वग्रह, अहा ज़िंदगी, सदानीरा,
समालोचन आदि साहित्यिक ब्लॉग्स और पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।

0 thoughts on “विदग्ध देहों का जल-स्पर्श – अमिताभ चौधरी की कविताऍं / चयन : प्रशांत विप्‍लवी”

  1. अच्छी कविताएँ। शब्द और वाक्यो के बीच रिक्तियां अर्थ बोध को अधिक सघन बना देती है। कहन और भाव स्तर पर अमिताभ नया रच रहे है। बहुत बधाई

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