अनुनाद

बापू की लाठी पर टिकी है पृथ्वी – रोहित कौशिक की कविताऍं

   कवि का कथन   
कविता मेरे लिए जीवन को समझने का माध्यम है। हर व्यक्ति जीवन को किसी न किसी तरह से समझने का प्रयास करता ही है। कवि या कथाकार के लिए जीवन वृहद रूप में सामने होता है। इसलिए उसके लिए जीवन को समझने का नजरिया भी भिन्न और बड़ा फलक लिए हुए होता है। युगों से कवि यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि कविता आखिर है क्या ? इस प्रश्न का कोई बँधा-बँधाया उत्तर मिलना भी कठिन है। मैं और मेरे समय के अन्य कवि भी इसी प्रश्न का उत्तर खोज रहे हैं। मेरे लिए अपने समय की सच्चाई को पकड़ने का प्रयास ही कविता है। जरूरी नहीं कि मैं इस प्रयास में सफल होऊँ। इस दौर में कविता कला भर नहीं है, बल्कि एक कदम आगे बढ़कर अपने समय का यथार्थ है। निश्चित रूप से कविता में बिम्बों और प्रतीकों का अपना महत्व है लेकिन न जाने क्यों मुझे बिम्बों और प्रतीकों से आक्रान्त कविता सच्चाई से मुँह मोड़ती हुई नजर आती है। सुखद यह है कि इस दौर की कविता आँखों में आँखें डालकर बात कर रही है।

इस समय कविता में छन्द को लेकर बहस चल रही है। विडम्बना यह है कि इस अँधेरे समय में हमारे जीवन से लय गायब होती जा रही है। अगर हमने इस दौर की सच्चाई को पकड़ लिया तो शायद हम जीवन की लय को भी पकड़ पाएँगे। कविता के माध्यम से इस लय को पकड़ने की कोशिश ही में कोई रास्ता दिखा पाएगी।
रोहित कौशिक

बापू-एक

बापू!
वे तुम्हारे पुतले को
गोली मार रहे हैं

पुतले की रगों में
खून नहीं दौड़ता
इसलिए दोबारा नहीं बहाई जा सकती
खून की नदी।

और पुतले भी
कहॉं गोली चला सकते हैं  
पुतले पर?

बापू-दो


बापू !
वे तुम्हारी लाठी को
हिंसा का प्रतीक बताते हैं

लाठी कहाँ हिंसक होती है
हिंसक होते हैं
लाठी चलाने वाले हाथ।

उन्हें नहीं दिखाई देती
निर्बल शरीर को
सहारा देती लाठी।
या बुढ़ापे की लाठी

उन्होंने ढूँढ़ ली है
बुढ़ापे की लाठी में भी हिंसा
ये वहीं लोग हैं
जो अपने माता-पिता की लाठी
में भी ढूँढ़ लेते हैं हिंसा।

एक आँख से देखो
तुम्हारे दादा लाठी पकड़कर
घूम आए हैं खेत।

देखो दूसरी आँख से
तुम्हारी दादी
पड़ोस वाली चाची से बतियाकर
लाठी पकड़ चली आ रही हैं।

तीसरी आँख से देख पाते
तो देखते
बापू ने पकड़ ली है लाठी
अहिंसा समा गई है
लाठी के पोर-पोर में
अहिंसक लाठी के सामने
फीकी है अंग्रेजों की हिंसक लाठी।

शेषनाग के फण
कच्‍छप की पीठ
और गाय के सींगों पर नहीं
देखो
बापू की लाठी पर
टिकी है पृथ्वी।

बापू-तीन


बापू ! तुम्हारे चश्मे से
आपत्ति है उन्हें
तुम दुनिया देखते हो
अपने चश्मे से
जबकि वे तुम्हें देखते हैं
अपने चश्मे से
हालाँकि उन्हें नहीं मालूम
अपने चश्मे का नम्बर।

जब उनसे पूछा जाता है
उनके चश्मे का नम्बर
तो वे चश्मे का नम्बर न बताकर
एक रंग का नाम बताने लगते हैं

बापू ! तम्हारे उस चश्मे से
आपत्ति है उन्हें
जिससे दिखाई देता है इन्द्रधनुष

बापू ! आपत्ति है उन्हें
तुम्हारे उस चश्मे से
जो हमें धर्मान्धता की
गहरी खाई में नहीं धकेलता
न ये दाढ़ी वाले के काम का है
चोटी वाले के

बापू ! तुम्हारे समय में
और तुम्हारे बाद भी
तुम्हारे चश्मे से
देखने की कोशिश होती
तो हमेशा उड़ते रहते सफेद कबूतर।

उन्हें पता नहीं चल रहा
बापू के चश्मे के कारण
उजली है बापू की दृष्टि
या बापू की दृष्टि के कारण
उजला है बापू का चश्मा।
***
परिचय
रोहित कौशिक
जन्म: 12 जून, 1973, मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा: एम.एससी.,एम.फिल. (वनस्पति विज्ञान), पी.जी.डी. (पत्रकारिता)
प्रकाशित कृतियाँ: 1. 21वीं सदी: धर्म, शिक्षा, समाज और गाँधी (लेख संग्रह)
                2. इस खण्डित समय में (कविता संग्रह)
                3. संवाद के दायरे में साहित्य (साक्षात्कार)
अन्य प्रकाशन: देश के प्रतिष्ठित अखबारों के सम्पादकीय पृष्ठों पर निरन्तर आलेखों का प्रकाशन। लगभग सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में साहित्यिक रचनाओं का प्रकाशन।
साहित्यिक-सामाजिक सरोकार: 1. प्रतिवर्ष मुजफ्फरनगर में पर्यावरण, कला, साहित्य और संस्कृति पर केन्द्रित ‘सरोकार’ नामक व्याख्यान का आयोजन।
2. हर रविवार फेसबुक पर प्रकाशित होने वाले स्तम्भ ‘रविवार की कविता’ को देशभर के कवियों एवं लेखकों का स्नेह प्राप्त
सम्पर्क: 172, आर्यपुरी, मुजफ्फरनगर-251001, उत्तर प्रदेश
मोबाइल: 9917901212
ई मेल: rohitkaushikmzm@gmail.com


0 thoughts on “बापू की लाठी पर टिकी है पृथ्वी – रोहित कौशिक की कविताऍं”

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top