अनुनाद

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आँखों की नदी में हिल रहे हैं सपने – जितेन्‍द्र श्रीवास्‍तव की कविताऍं


जितेन्‍द्र श्रीवास्‍तव चर्चित कवि हैं। उनकी कुछ प्रेम कविताऍं अनुनाद को मिली हैं। पुरानी बयाज़ से निकाल कर सत्ताईस  बरस बाद कवि ने इन कविताओं का संग्रह प्रकाशित कराना तय किया है और उसी संग्रह से ये कविताऍं साझा करते हुए अनुनाद कवि को शुभकामनाऍं देता है।

                                                                     




तब जब ऐसे समय में कविता क्योंजैसे नावाजिब से सवाल उठें और जाने किस भ्रम में सब इसके जवाब ढूँढने लग जाएं, तब जब ऐसी कविताऔर वैसी कविताके बीच एक कृत्रिम  फांक सी बनाई जा रही हो और सब इस बाजू या उस बाजू में अपना ठिया बसाने में लग जाएं, तब जब बहुत धुंधलका सा हो हर तरफ और सब प्रकाश के मुग़ालते में अंदर नहीं बाहर की ओर दौड़ लगाने लग जाएं तब, तब ही कविता के भीतर की आंच और कवि को अपने भीतर के प्रकाश को पानेकी ज़रूरत सबसे ज़्यादा होती है. जितेन्द्र कविता की अंदरूनी आंच और अपने भीतर के प्रकाश की ओर लौटते दिख रहे हैं.

जितेन्द्र की इन प्रेम कविताओं को पढ़ना भरी दुपहरी कड़े घाम में किसी दरख़्त के साये तले एक क्षण रुककर दो घूंट पानी पी लेने के जैसा है. लगता नहीं कि कुछ मानीखेज़ किया हो पर होता बहुत ज़रूरी सा कोई काम है. जटिल, शुष्क और प्राणघातक जीवन व्यवहारों के इस काल में प्रेम इकलौती शय है जो कविता और जीवन दोनों को सहेज रखने के क़ाबिल है. डेढ़ दशक से ज़्यादा समय पहले लिखी इन कविताओं में सहेज कर रखी गई कोमलता और रोपा गया प्रेम आज और आने वाले समय में कवि और कविता पर उठ रहे प्रश्नों का माकूल जवाब बन सकने की काबिलियत रखते हैं.
      अमित श्रीवास्‍तव(युवा कवि-कथाकार)

जल में छाया की तरह

किसी पत्ती को छूता हूँ
और महसूस होता है तुम्हें छू रहा हूँ

झुकता हूँ किसी फूल पर
और लगता है जैसे झुक आया हूँ तुम्हारी ओर

जल भरी अँजुरी को लगाता हूँ होठों से
और चमकने लगते हैं तुम्हारे अधर
पानी में छाया की तरह

देखो न!
मैं हूँ जहाँ
वहीं तो हो तुम भी !!
(1993, गोरखपुर)


उपस्थिति

कल रात
सो न सका मैं

कल पूरी रात
पलकों के बीच मुस्कुराती हुई
बैठी रहीं तुम।
(1994, गोरखपुर)

परछाइयों के पीछे

कुछ कहानियों की उम्र
बस तीन दिन होती है

एक दिन मन में उठती हैं
दूसरे दिन उन्हें मिलता है आकार
तीसरे दिन हो जाती हैं तिरोहित
किसी अन्य के आख्यान में

कई बार जीवन में
प्रेम भी आता है
महज तीन दिन के लिए
 
एक दिन लेता है आकार
दूसरे दिन उसे मिलती है पृथ्वी
तीसरे दिन शाम के धुँधलके में खो जाता है कहीं

कुछ लोग जीवन भर दौड़ते रहते हैं
परछाइयों के पीछे।
(1993, गोरखपुर)


मैं अनादिकाल से गा रहा हूँ

मैं अनादिकाल से गा रहा हूँ तुम्हारे लिए गीत
पर तुम कहाँ सुनती हो !

आँखों की नदी में हिल रहे हैं सपने
लेकिन मैं डरता हूँ तुम्हारी रुसवाई से

मैं रोज अपनी हथेली पर सजा लेता हूँ
पूरा का पूरा दिन
इस उम्मीद में
कि शायद तुम धूप बनकर चली आओ

मैंने कई चिट्ठियां भी लिखीं तुम्हारे नाम
पर भेजी नहीं कभी

अब तुम्हीं बताओ
कौन खोल पाया है अपना पूरा मन चिठ्ठियों में !

सोचता हूँ
जब मिलूँगा तो पूरा मिलूँगा

कभी  फुर्सत मिले तो देखना
ये महज बातें नहीं हैं
मेरा हर पल घुला है तुम्हारी प्रतीक्षा में
अब इस जीवन में कोई दूसरी चाह नहीं शेष।
(1993, गोरखपुर)


मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ

मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ
इसलिए तुम्हारी देह को भी प्रेम करता हूँ

मैं आकर्षण से भरा हूँ तुम्हारी देह के लिए
इसलिए करता हूँ तुमको प्रेम
यह कहना असंगत होगा पूरी तरह

सखी!  ओ सखी!!

प्रेम में होती है देह
पर देह के बिना भी होता है प्रेम।
(1996, जे एन यू)
 
सावन की फुहारों से कहीं

सोचता हूँ
कुछ चिट्ठियां जरूर आई होंगी
उस पते पर जहाँ
फिर जा न सका मैं चाहकर भी

क्या पता
डाक बाबू ने उन्हें फाड़ दिया होगा
या दे दिया होगा किसी मित्र को
कि शायद वह पहुँचा देगा मुझ तक

सम्भव है
उस मित्र ने लिफाफा खोलकर पढ़ ली हो चिट्ठी
आनन्द लेते हुए ज़िक्र किया हो दूसरे मित्रों से
और ईर्ष्यावश या शायद भूलवश
उसे भेज न पाया हो मेरे नए पते पर

क्या पता वह आखिरी चिट्ठी
तुम्हारी रही हो
जिसे तुमने सजल नैनों और काँपती उंगलियों से
मुझे अलविदा कहते हुए लिखा हो

पर हाय अभागा मैं
पा न सका तुम्हारी उंगलियों का अंतिम स्पर्श भी
बचा न सका अपनी त्वचा में तुम्हारे आंसुओं का नमक

वैसे एक ख़त मैंने भी लिखा था तुम्हें
तुम्हारे उस पते पर
जहाँ अब तुम नहीं रहती हो लेकिन
जो घुल गया है मेरे रुधिर में

न जाने वह खत तुम्हें मिला
या गल गया तुम्हारे स्पर्श की चाह लिए
सावन की फुहारों में कहीं!
(1997, जे एन यू)
 
अंतराल

उस दिन यह महज संयोग ही था
कि हम एक ही ट्रेन की
एक ही बोगी में बैठे थे आमने-सामने
और चुप थे
जबकि बातें बहुत थीं मेरे पास

ट्रेन भाग रही थी
कभी जिंदगी से थोड़ी तेज
कभी थोड़ी मद्धिम

मैं बच रहा था  उसे बार-बार देखने से
इसलिए बार-बार देख रहा था खिड़की से बाहर
दूर तक फैली हरियाली
और कभी-कभी वीरानी भी

समय बरौनियों से उतरकर
समा गया था पुतलियों में

वहाँ उभर आए
असंख्य प्रतिविम्ब और आँखों के लाल डोरे
हिल रहे थे स्मृति-जल में

कि अचानक  कुछ  देर बाद
मुझे लगातार देख रही उसकी लगभग दो वर्ष की बेटी
चढ़ आई मेरी गोद में

क्षण भर के लिए अचकचा गया मैं
फिर पुचकारने लगा उसे
दिखाने लगा खिड़की से बाहर का दृश्य

वह देखती रही कुछ देर बेटी का मेरे साथ खेलना
फिर बिना कुछ कहे
बच्ची को ले लिया अपनी गोद में

फिर रात ने तान ली रजाई
सन्नाटा पसर गया ट्रेन में

अगली सुबह उतरने से ठीक पहले
कहा उसने-
बहुत बदल गए हो
मैंने बहुत देर में पहचाना तुम्हें
पर तुम्हें तो बोलना चाहिए था कुछ

फिर चुप रहकर कुछ पल
बहुत धीरे से कहा उसने-
सब कुछ है तुम में
बस समय पर कह नहीं पाते तुम समय की बात
और समय निकल जाता है आगे

उस क्षण उदास सी लगी वह मुझे

मैंने कुछ कहा नहीं
बस चुपचाप सुनता रहा उसकी बात

मुझे लगा
कहीं कोई घाव था
जो रिस रहा था उसके भी भीतर।
(1997)

ओ मेरी साँवली आभा

मन की टहनी पर बैठी
ओ मेरी कोयलिया
उड़ मत जाना

मैंने कभी किसी और को
बैठने न दिया यहाँ
पल भर के लिए भी

तुम्हारी प्रतीक्षा में
टकटकी लगाए बैठा रहा हूँ वर्षों

अब जब आ ही गई हो
तन्मय होकर साधो जीवन संगीत
भूल जाओ यात्रा की थकान
अब मेरा हृदय है तुम्हारा मकान
इस मकान को बना लो घर
मैं भी कबसे भटक रहा हूँ बेघर

देखो, नहीं है मेरे पास कोई आश्वासन
बस विश्वास है
जो दे रहा हूँ तुमको
और बस यही चाहता हूँ तुमसे

ओ मेरी साँवली आभा
अब उड़ना
तो मुझे भी साथ लेकर उड़ना !
(1993, गोरखपुर)
 
जीवन का गीत

चलो सुलेखा
मिलकर गाएं जीवन का गीत

जो तुम सोचो
वह समा जाए मेरे कंठ में
जो मैं सोचूँ
उसे कह दो तुम

चलो प्रिय
मिलकर छांटे
जीवन -अन्न में घुस आए
कंकड़- पत्थर

चलो
साथ-साथ चलें
बीच-बीच में एक दूसरे को निहारते हुए
एक दूसरे के तलुओं से काँटे निकलते हुए

चलो सुलेखा
हम बदल दें अनचाही बदरी को
मन चाहे सुख के बादलों में

चलो सुलेखा
चलो न!
(1996, जे एन यू)
 
सुलेखा ओ सुलेखा!

यह कार्तिक की चाँदनी रात है
या तुम्हारी स्मृतियों की बरसात ?

भींग गई हैं
अरावली की पर्वत श्रृंखलाएं
शिरीष की सुगंध में समा गई है
थोड़ी सी नमी

पुरवा चल रही है मंथर-मंथर
पिरा रहा है मन का घाव

सुलेखा ओ सुलेखा!
क्या तुम भी जगी हो अभी
क्या जल रही है तुम्हारे भीतर कोई अगन
क्या बैरी चन्द्रमा
आकर बैठ गया है तुम्हारी पलकों के बीच ?

सुलेखा !
ओ मेरी  जीवन प्रिया!!
पंछी बन
चली आओ उड़कर अभी इसी पल

यहीं बनाएंगे हम घरौंदा
न स्मृतियों की बरसात होगी
न होगी विरह की अगन

बस होंगे हम दोनों
मगन मगन।
(1996, जे एन यू)
 
निवेदन

प्रेम है
तो होगी चर्चा भी

अब क्या सकुचाना क्या भरमाना
किससे लजाना!

मन की स्लेट पर
भावों की खड़िया से लिखी
इबारत है इश्क
जिसे धुल नहीं सकता कोई पानी
रोकी नहीं जा सकती जिसकी रवानी

वह प्रेम ही क्या
जिसे लगा दे कोई
जिसे बुझा दे कोई

देखो,मैं आया हूँ तुम्हारे पास निवेदन लेकर
लरज रही है मेरी आवाज
पैरों में कम्पन है आम की पत्तियों सा
बस थोड़ी सी जगह दे दो पुतलियों में कहीं
मैं चुपचाप वहीं बैठा गुजार दूँगा उम्र।
(1993,गोरखपुर)

0 thoughts on “आँखों की नदी में हिल रहे हैं सपने – जितेन्‍द्र श्रीवास्‍तव की कविताऍं”

  1. बहुत अच्छी कविताएं। प्रेम कविता की बनावट सिखाती हुईं। इन कविताओं का संग्रह आना सुखद होगा।

    'परछाइयों के पीछे' और 'अंतराल' कविता विशेष तौर पर पसंद आईं।
    ~ देवेश पथ सारिया

  2. प्रेम के ऐसे भावपूर्ण चित्र कि पाठक मंत्रमुग्ध होकर बहता जाए। बहुत सुंदर कहन है-प्रेम में होती है देह
    पर देह के बिना भी होता है प्रेम

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