अनुनाद

फिलीस्तीनी कवि मोरीद बरग़ौटी (Mourid Barghouti) की कविताएं : चयन, अनुवाद तथा प्रस्तुति – यादवेन्द्र

कवि का वीडियो , विस्तृत जीवन परिचय तथा अन्य सभी जानकारी इस लिंक पर मौजूद हैं।

आलिंगन

दादी के बारे में बच्चे ने बताया
अंतिम दिन
मृत्यु आई और बैठ गई उनकी गोद में
उन्होंने उसे सहलाया और दुलार किया
फिर सुनाने लगीं एक कहानी
इसके बाद सो गए गहरी नींद
वहीं दोनों साथ-साथ


कैदखाना

आदमी ने कहा :
कितने खुशकिस्मत हैं पिंजरे के पंछी
उन्हें इतना तो जरूर मालूम है
कि क्या होती हैं
सीमाएं कैदखाने की!



तीसरी दुनिया

चुम्बक ने कहा लोहे के बुरादों से :
तुम सब आज़ाद हो
अब पूरी तरह
चले जाओ, अब जिधर चाहे !


समझ अपनी-अपनी

कवि बैठा है कॉफी हाउस में
कुछ लिख रहा है:

बूढ़ी औरत सोचती है
लिख रहा है ख़त
अपनी मां को !

युवा स्त्री को लगता है
लिख रहा है प्रेमपत्र मशगूल होकर
अपनी प्रेमिका को !

बच्चा समझता है
वह बना रहा है कोई चित्र !

व्यापारी अनुमान लगाता है
तैयारी में है किसी लेन-देन की !

मुसाफि़र सोचता है
भेज रहा है किसी को पोस्टकार्ड !

बाबू समझता है
उलझाए हुए है उसे उसका क़र्ज़
अपने हिसाब-किताब में !

और खुफ़िया पुलिस
धीरे-धीरे बढ़ती है दबे पांव
उसकी ही दिशा में !


अपवाद

सब के सब पहुंचे
नदी और रेल
ध्वनि और जहाज़
रोशनी और पत्र
दिलासा देने वाले तार
रात के खाने के निमंत्रण
कूटनीतिक श्रेणी के थैले
अंतरिक्ष यान
– सब के सब पहुंच गए
सब के सब

नहीं पहुंच पाए तो बस मेरे क़दम
अपने देश तक !


बरग़ौटी अपने बारे में

मौन ने कहा :
सत्य को नहीं दरकार किसी वाक्पटुता की –
घुड़सवार के ढेर हो जाने के बाद
वापस घर की ओर लौटता घोड़ा
कह देता है सब कुछ
कुछ भी कहे बग़ैर !


लालसा

उसकी चमड़े की बेल्ट
टंगी हुई है दीवार पर
जूते वह जो अपने पीछे छोड़ गया था
अब भुरभुराकर बिखरने लगे हैं
गर्मियों में पहनने की सफ़ेद कमीज़ें
दुबकी पड़ी हैं आलमारियों में
बेतरतीब बिखरे कागज़-पतरे
खूब बताते हैं
कि गए हुए उसे हो गया अब लम्बा अरसा

पर वह है
जो जाने कब से किए जा रही है
उसका इंतज़ार
वहीँ टंगी हुई है अब भी ज्यों की त्यों
उसकी चमड़े की बेल्ट
और दिन बीतते बीतते बिला नाग़ा
वह बढ़ाती है क़दम
कि छू पाएगी एक बार उसका नंगा सीना
और फिर से टिक जाती है
वहीं आकर दीवार के सहारे


यह भी अच्छा है

यह भी अच्छा है
कि बिस्तर पर पड़े पड़े मौत आ जाए
साफ़ सुथरे तकिया पर
और दोस्तों से घिरे घिरे
अच्छा हो कि मौत आए एक बार
खाली और दुर्बल
रक्तहीन
खरोंचों, ज़ंजीरों और इश्तिहारों के बग़ैर
और मांगपत्रों से अनुपस्थित
सीने पर बंधे हुए हों अपने हाथ

अच्छा है मौत हो तो साफ़ सुथरी और टंच
कमीज़ में गोलियों से बने हुए सूराख न हों
और न दिखें शरीर पर चोट के निशान

अच्छा है कि मौत आए सफ़ेद तकिए पर
सड़क पर लुढ़के न पड़ें हो सिर
हमारे हाथ गुंथे हो हमारे प्रियजनों के हाथों के साथ
और हमें घेरे हुए हों नर्सें और चौकस डॉक्टर
– चाहे कुछ भी न बचा हो
पर विदाई तो शालीन होनी चाहिए

इतिहास की ओर कर लें हम चाहे अपनी पीठ
और दुनिया को वैसी ही बनी रहने दें जैसी वह है
पर उम्मीद करें
आएगा एक दिन
ज़रूर
जब इसको बदलने की ठानेगा
कोई न कोई


सफ़र जैसा होता है

मुझे नहीं दिखा कोई ख़ौफ़
नहीं दिखा कोई ड्रैगन इलाक़े में
मैंने नहीं देखे समुद्र में उठते तूफ़ान
न ही कोई चुड़ैल या पुलिस वाला
दिन के प्रारम्भ में अचानक

ऐसा नहीं कि लुटेरों ने झपट ली हो
मेरी इच्छाओं की बागडोर
न ही चोरों ने पीट पीट कर
तोड़ डाले दरवाज़े मेरे जीवन के

मेरी ग़ैरहाज़िरी यूं तो इतनी लम्बी नहीं थी
पर गुज़र तो गया इसमें एक भरपूर जीवन
अब कैसे दिखेंगे
घाव मेरे चेहरे के
व्यथा मेरी आंखों की
मन और हडि्डयों की गुमचोट और खरोंचें
ये सब तो महज मरीचिका हैं

मैंने देखा नहीं कोई ख़ौफ़
सब कुछ उतना ही सहज था जितना होना चाहिए था
परेशान मत होना
क़त्ल के बाद तुम्हारा बेटा
सुरक्षित है अपनी कब्र में
और ठीकठाक भी है
एकदम !


यादवेन्द्र : अपने परिचय-स्वरूप यादवेन्द्र जी का कहना है कि यूँ तो वह रहने वाले बनारस के हैं पर उनका बचपन बीता है बिहार में और बिहार के हाजीपुर, भागलपुर और पटना में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है, इसलिए प्राय: दफ़्तर या अन्य जगहों पर इस बात पर अक्सर विवाद कर बैठते हैं कि बिहार के मायने केवल लालू ही नहीं होता। जन्म- 1957 में। इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद थोड़े समय कोरबा(छत्तीसगढ़) में रहे, फिर 1979 से निरंतर रुड़की में हैं। यहाँ सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इन्स्टीच्यूट में एक वैज्ञानिक और उप-निदेशक के तौर पर काम कर रहे हैं। ‘दिनमान’, ‘रविवार’, ‘आविष्कार’, ‘जनसत्ता’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘हिंदुस्तान’, ‘समकालीन जनमत’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘कथादेश’, और ‘कादम्बिनी’ जैसी अनेक हिंदी की शीर्षस्थ पत्र-पत्रिकाओं में मुख्यतौर पर विज्ञान लेखन करते रहे हैं। गत कुछ वर्षों से अनुवाद की ओर रुख किया है। अपनी माँ को अंग्रेजी में लिखी एक भारतीय कहानी पढ़वाने के लिए अनुवाद शुरू किया और अब इसमें उनका खूब मन रमता है।

सम्पर्क : ए-24, शांति नगर, रुड़की-247667,उत्तराखंड

0 thoughts on “फिलीस्तीनी कवि मोरीद बरग़ौटी (Mourid Barghouti) की कविताएं : चयन, अनुवाद तथा प्रस्तुति – यादवेन्द्र”

  1. अच्छी कविताओं का अच्छा अनुवाद। “समझ अपनी अपनी” कविता तो लगता है जैसे हिन्दी में ही लिखी गई हो।

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