व्योमेश शुक्ल की यह प्रश्नोत्तरी सापेक्ष के आलोचना महाविशेषांक से – पहली किस्त |
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अपनी रचना-प्रक्रिया पर प्रकाश डालिए। आलोचना में रुचि क्यों और कैसे हुई? इस क्षेत्र को आपने क्यों चुना? क्या आपने दूसरी विधाओं में भी लिखा है?
ख़ुद की रचना-प्रक्रिया पर बात करने का यह पहला मौका है, और मेरे पास अपनी रचना-प्रक्रिया को सोचने का कोई अनुभव भी नहीं है। हिन्दी साहित्य संसार का यह विचित्र हाल है कि कुछ लोगों की रचना-प्रक्रियाएँ अत्यन्त प्रकाशित हैं। वे लगभग जगमगा रही हैं। ऐसी चमकीली रचना-प्रक्रियाओं पर बात करते हुए कवि एक रहस्यवादी अंदाज़ में ऐसा कुछ कहता नज़र आता है कि `मेरे लिये रचना-प्रक्रिया पर बात करना अंधे कुएँ में झाँकने जैसा है´। इस वक्तव्य में `अंधेरा´ शब्द दरअसल रोशनी का प्रतीक है। ऐसे तथाकथित अंधेरे कुएँ में झाँककर पाठक को और स्वयं कवि को कुछ उपलब्ध नहीं होता। वहीं दूसरी ओर मुक्तिबोध जैसे प्रचण्ड कवि की रचना-प्रक्रिया है जो अंधेरे की ही धातु में ढली हुई लगती है और आज़ाद भारत की आधुनिकता का एक प्रासंगिक विमर्श है। वह रचना-प्रक्रिया अपने पाठक को कितना छिन्न-भिन्न करती है। और उस प्रक्रिया को आप किस श्रेणी में रखेंगे ? साहित्येतिहासकार और नियन्तागण उसे निबन्ध, कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, आलोचना क्या मानेंगे ? उसमें आने वाले चरित्र आजकल की जगमगाती हुई रचना-प्रक्रियाओं के बरअक्स कितने अशुभ और अन्धकारमय लगते हैं। और वे वाह्य के आभ्यंतरीकरण, कलानुभव, रचना-प्रक्रिया और यथार्थ के साक्षात्कार सामर्थ्य जैसे मुद्दों पर कितनी विकलता कितने धीरज के साथ बात करते हैं। मुक्तिबोध के अपार आत्म को आप अनेक वस्तुओं, व्यक्तियों, संबंधों और समस्याओं में विघटित होता हुआ यहाँ देख सकते हैं। यह अपने ज्ञानात्मक संवेदन को रेशा-रेशा कर डालना है। हिंदी के कवि की रचना-प्रक्रिया असल में रक्तरंजित ही हो सकती है। ऐसी ही होनी चाहिए। मुक्तिबोध के विराट के सामने हम कितने ही नगण्य हों, लेकिन हमारी भी रचना-प्रक्रिया का मॉडल मुक्तिबोधीय ही होना चाहिए। आलोचना में मेरी रुचि के तर्क शायद राजनीति में मेरी रुचि में हैं। यह याद करना आज कुछ शर्म, कुछ अफ़सोस से भर देता है कि 1989 में, जब मैं 9 साल का था, मुझे तत्कालीन वी। पी। सिंह सरकार के सभी कैबिनेट मंत्रियों, राज्य मंत्रियों के नाम याद थे और वाराणसी का सांसद बन पाना मेरे कैशोर्य का केन्द्रीय स्वप्न था। राजनीति के मुद्दों पर बात करना और ख़ास तौर पर असहमतों से बात करने का नशा था। यहीं से आलोचना का काम शुरू होता है। आलोचना हमेशा असहमतों को कन्विंस करने के लिये लिखी जाती है। जो लोग आपकी बात नहीं मानना चाहते( उनको राजी करना कितना स्वप्नसंघर्षमय युटोपिया है। तो संसदीय राजनीति की सडांध में से मैंने कम से कम अपने लिये विकल्प का प्रारिम्भक किस्म का आश्वासन अर्जित किया। हाँ, मैं दूसरी विधाओं में भी कुछ न कुछ लिखता हूँ। शायद हर पहली से इतर दूसरी विधा में। और यह भी एक तथ्य है कि मैं बहुत देर तक और दूर तक इन विधाओं में फ़र्क नहीं कर पाऊँगा।
आजकल हिन्दी आलोचना का क्षितिज संकीर्ण हो गया है। आलोचक अपने मित्रों की रचनाओं पर लिखते हैं। समग्र मूल्यांकन कोई नहीं करता?
हाँ! जीवन-व्यवहार के दूसरे क्षेत्रों की तरह आलोचना का भी क्षितिज संकीर्ण तो हुआ है। जैसे यह चेतनाओं के भी निजीकरण का वक्त है। कल तक जो असहमतियाँ थीं वे आज खीझों में तब्दील हो गई हैं। बेशक कुछ लोग अपने मित्रों की रचनाओं पर लिखते रहते हैं और उसे ही आलोचना भी मानते हैं लेकिन यह सब सतह पर संपन्न हो रहे कार्यकलाप हैं – जैसे हमारे सामूहिक व्यक्तित्व की त्वचा पर खुजली हो गई हो, जबकि बड़े संकल्प और महाभियान चेतना के गहनतम स्तरों पर जारी रहते हैं। वे हमारे स्वार्थ, लालच, अवसरवाद, तत्कालवाद, तदर्थवाद, समायोजनवाद और दूसरे ऐसे हीनतर कृत्यों के खिलाफ़ हमारी ही जासूसी करते रहते हैं। अपने अमूर्तनों में मूल्यांकन और निष्कर्ष आकार लेते रहते हैं – कभी यह सब भाषा में दर्ज हो जाता है, कभी नहीं हो पाता। लेकिन उसके अस्तित्व से इंकार नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा नहीं होता तो बग़ैर किसी आलोचना की प्रत्यक्ष उपस्थिति के, विष्णु खरे और विनोद कुमार शुक्ल को रघुवीर सहाय के बाद के दौर का केन्द्रीय कवि कैसे मान लिया गया होता। आपकी शिकायत है कि समग्र मूल्यांकन कोई नहीं करता। मैं कहना चाहता हूँ कि एक पूरे दौर को तो जाने दीजिए, क्या एक कवि का भी समग्र मूल्यांकन हम फि़लहाल कर रहे हैं। विजयदेव नारायण साही ने `शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट´ जैसा लेख शमशेर की कविता पर लिखा( मैं उसके निष्कर्षों से सहमत नहीं हो पाता लेकिन वह पेशकश व्याकुल कर देती है। क्या देवी प्रसाद मिश्र पर वैसा लेख हमारे पास है ? दूसरी ओर मैं यह भी देख रहा हूँ कि लोग उत्कृष्टतम आलोचना के आगे या तो डर और चालाकी के मारे चुप हो जाते हैं या विषयांतर कर डालना चाहते हैं। हमारे पास `आलोचना की आलोचना´ प्रत्यक्षत: नहीं है और अक्सर अच्छी आलोचना बुरी आलोचना में फर्क नहीं किया जा पाता और दोनों साथ-साथ चलती रहती हैं। हमारे गुर्दों ने काम करना बंद कर दिया है और हम डायलिसिस पर हैं और हमारे खून में पेशाब मिल गई है। निकट अतीत की बात करें, क्या हमारे लेखन में मलयज के लेख `काव्यभाषा का इकहरापन´ की कोई स्मृति है ? अशोक वाजपेई का लेख `बूढ़ा गिद्ध क्यों पंख फैलाये´ या विष्णु खरे का लेख `उत्तर छायावादी तलछट का अन्त´ किस उम्र में लिखा गया है ? अशोक वाजपेई तब 26 साल के थे और विष्णु खरे 30 साल के। यह लेख तब की साहित्यिक सत्ता – `अज्ञेय´ के सामने कितनी निर्भीकता के साथ खड़े हैं। और यह पढ़ने वाले को भी साहस और उमंग से भर देते हैं। मंगलेश डबराल का लेख `शमशेर का मतलब´ अपनी पाकीज़गी और भीतरी शान्ति की वजह से पाठक को शमशेर के होने के एहसास के क़रीब पहुँचा देता है। वह लेख इतना पारदर्शी है कि उसमें निहित वस्तुओं और अवधारणाओं को आप छू सकते हैं।
रचनाकार की शिकायत है कि वे बिना पढ़े समीक्षाएँ लिखते हैं, जबकि आलोचक कहते हैं कि रचनाकार समीक्षाएँ नहीं पढ़ते ?
रचनाकारों की यह शिकायत कि आलोचक बिना पढ़े समीक्षाएँ लिखते हैं या आलोचकों की रचनाकारों से ऐसी ही शिकायत दूर तक जायज़ है। ऐसी हालत हमेशा रही होगी लेकिन फिलहाल यह आदत आसमान पर है। ऐसी उदासीनता से सबसे ज्यादा नुकसान वस्तुस्थिति का होता है। किसी भी आदमी से बात कीजिए, काव्यदृश्य के बारे में उसकी जानकारी और राय हर दूसरे आदमी से इतनी भिन्न होती है कि हैरान रह जाना पड़ता है। लेकिन इतिहास का निर्मम धाराप्रवाह ऐसी अपर्याप्तताओं और एकांगिताओं को बहा ले जाता है और अनिवार्यतम रचनात्मकताएं बची रह जाती हैं।
क्या आलोचना में सिद्धान्त से ज्यादा महत्व व्याख्या का है?
मैं सिद्धान्त और व्याख्या को अलग-अलग नहीं मानता हूँ। ऐसे विज़न हालाँकि खूब प्रचलित हैं लेकिन इनमें इहलोक और परलोक जैसी कोटियाँ बनाने वाले भीरु हिन्दू मानस के संकेत देखे जा सकते हैं। एक सार्थक व्याख्या ही असल काव्य सिद्धान्त है और जायज़ सिद्धान्त अपनी व्याख्या पर ही टिका हो सकता है। व्याख्या और सिद्धान्त एक ही चीज़ के नाम हैं और वो चीज़ ज़रूरी है। तुलसीदास की मशहूर अर्धाली याद आती है : गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
परंपरा के प्रति राय कैसी होनी चाहिए? पुनर्मूलयान्कन क्यों ज़रूरी है?
परंपरा एक ऐसी चीज़ है जिस पर शक किया जाना चाहिए। अपनी परंपरा को अर्जित करने की आज़ादी और उसे आत्मसात करने का संघर्ष भी इसी सवाल के हिस्से हैं। अब यह बिल्कुल ज़ाहिर है कि कई परंपराएँ हैं। वर्चस्ववादी परंपरा को चुनौती देती असंख्य परंपराएँ जो अब तक समाज और संस्कृति के हाशिये पर रही आई थी। उन्होंने मुख्यमार्ग को संकीर्ण और अवरूद्ध कर दिया है और काफी गहमागहमी पैदा कर दी है। इसीलिए व्यापक पुनर्मूल्यांकन की दरकार है। रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास को ही ले, खड़ी बोली के खाते में पस्त, लद्धड़, देहाती, राजभक्त और चापलूस हिन्दी उनके लिए महत्वपूर्ण है लेकिन मीर और ग़ालिब नहीं । तो उनके इतिहास की अनिवार्यता को चैलेंज करते पुनर्मूल्यान्कन की अरसे से ज़रूरत है। बल्कि जैसा कि विष्णु खरे कहते हैं, `नकार की डाइयलेक्टिक्स´ की ज़रूरत!
आलोचक और आलोचना की क्याभूमिका है?
आलोचक और आलोचना सभ्यता के लिए हमेशा अनिवार्य रहे हैं। इसे प्रेमचन्द के आलोचनात्मक विवेक का प्रतिफलन माना जाना चाहिए कि वे मैथ्यू आर्नाल्ड को उद्धृत करते हुए साहित्य को जीवन की आलोचना मानते हैं। अगर आप क्रिटिकल नहीं हैं तो यथास्थिति के मददगार हैं और मेरा मानना है कि महान अवधारणाओं और अद्वितीय सुन्दरताओं को भी यथावत स्वीकार नहीं किया जा सकता। टोका-टोकी, मोल – भाव , रास्ताजाम, धरना-प्रदर्शन, भूख -हड़ताल, आमरण-अनशन और ज़रूरी हो तो मानव बम बन के फट जाना – सब अन्तत: आलोचना के संस्करण हैं। चराचर में घट रहा सब कुछ आलोचना के दायरे में हैं। वह हमारी जैविकी में शामिल है और आलोचक होना तो बकौल रोलाँ बार्थ, `एक खास तरह से जीने के पद्धति´ है।
रचना की तुलना में क्या आलोचना द्वितीयक है? अगर नहीं तो रचना और आलोचना में समानता का आधार क्या है?
रचना और आलोचना में से कोई भी प्राथमिक या द्वितीयक नहीं है। दोनों ही सर्वोच्च हैं और एक दूसरे से प्रतियोगिता नहीं करते । जयशंकर `प्रसाद´ की कामायनी और मुक्तिबोध के `कामायनी : एक पुनर्विचार´ में कोई मुकाबला कैसे सम्भव है? और वह बोध कितना अटपटा होगा जिसमें इस तरह की कोई कुश्ती लड़ी जा रही हो! ऐसा मुकाबला हद से हद कुछ देर का मनोरंजन है। एक राजनीतिरहित गुदगुदी। दरअसल हम राजनीतिकरण नहीं कर पा रहे हैं। यह एक व्यापक दिक्कत है और आलोचना और रचना दोनों की दिक्कत है। हमारे पास विकल्प का डिज़ाइन नहीं है और रचनात्मक आदतें सामाजिक परिवर्तनों की गति के सामने कहीं ज़्यादा सुस्त और धीमी है।
एक रचनाकार आलोचक किस तरह पेशेवर आलोचक से भिन्न होता है?
विश्वविद्यालय के परिसरों से निकलने वाली आलोचना हुत ज़्यादा संदिग्ध हो चुकी है। वह साहित्य संसार में प्रसरित अभिजन संस्कृति का हिस्सा है। दरअसल हिंदी की सार्वजनिक तस्वीर कुछ ऐसी ही है कि हर साल इसके शिक्षण-प्रशिक्षण, प्रचार-प्रसार और विकास पर अकूत धन खर्च होता है, लेकिन आज़ादी के साठ साल बाद भी विश्वस्तर की साहित्यिक आलोचना में – वह चाहे मार्क्सवादी हो या ग़ैर मार्क्सवादी – कुछ जोड़ने वाला आलोचक मुक्तिबोध के अलावा कौन है? मुक्तिबोध को ही रचनाकार आलोचक होने की कसौटी भी बनाया जा सकता है। हमारे संस्थानों के पास मुक्तिबोध जैसे रैडिकल चिन्तक को जज़्ब करने की प्रणालियाँ नहीं हैं। यह ठीक है कि सारे पाप सारी बुराइयों की जड़ में अमेरिका है लेकिन वहाँ के संस्थानों के भीतर मुमकिन हो रही आज़ादी और निर्बन्धता भारत के लिए ख़्वाब है। नॉम चॉमस्की और हावर्ड ज़िन जैसे अमेरिकी राज्य के कटु आलोचक अमेरिकी विश्वविद्यालयों का हिस्सा हैं। हमारे यहाँ क्या ऐसी स्वायत्तता और सरकार सम्भव है? और नॉम चॉमस्की का असर – अमेरिकी सरकार और उसके सहयोगियों का प्रचारतन्त्र पूरी दुनिया में पड़ रहे न‚म चॉम्स्की के असर को कम करने या खत्म करने के लिये हर साल एक असंभव राशि ख़र्च करता है। एक इन्टेलेक्चुअल निर्भीकता पतनशील साम्राज्यवाद के लिए कितनी महँगी साबित हो सकती हैं, यह तथ्य इसका उदाहरण है। इसके उलट हमारी हिन्दी का हाल देखिये। इसके प्रगतिशील माने जाते आलोचक नामवर सिंह भाजपाई उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत के साथ सफ़र करते हैं। मुंबई में मुरारी बापू के सानिध्य में मुरारी बापू के धनाढ्य बनिया और मारवाड़ी भक्तो के मनोरंजन के लिए माथे पर टीका लगाकर, गले में माला पहनकर प्रवचन करते हैं जिसका प्रसारण एक ओछे फासिस्ट धार्मिक चैनल से किया जाता है। यह वृतान्त यह बताने के लिये कि पेशेवर हिन्दी बुद्धिजीवी की क़ीमत मीडिया, धर्मतंत्र दूसरी सत्ताओं के सामने कितनी गिरी हुई है। कभी रघुवीरसहाय ने कहा था कि सच्ची कविता लिखने वाले वहीं से निकलेंगे जहाँ कविता का मूल्यांकन करने वाला तन्त्र नहीं होगा। यह वाक्य बताता है कि किस कदर पेशेवर आलोचना को अपना चरित्र बदलने की ज़रूरत है।
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अगली किस्त में जारी
शिरीष जी! आप फिर विचार की पटरी पर आ गए। आपने पिछली बार मुझे समझाया फिर भी ये बात कह रही हूं। विचार की पोस्ट आम आदमी या पाठक के किसी काम की नहीं, हां आप लोगों का विमर्श जरूर हो जाता है । पता है विमर्श शब्द मैंने हंस के पुराने अंकों में देखा और अब इस्तेमाल कर रही हूं। व्योमेश जी बुरा मत मानिएगा। मैंने तो शिरीष जी से अपनी बात कही है। आपकी बतकही भी अच्छी है लेकिन फिर कहूंगी कि मुझ जैसे लोग, जो रचनाकार न होकर, सिर्फ पाठक हैं – हमारे किस काम की ये बातें!
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