अनुनाद ने अजंता देव से कविताओं के लिए अनुरोध किया था और हमें उनकी चार शीर्षकविहीन कविताऍं मिली हैं। यहॉं कुछ बुझता है तभी कुछ जलता है की एक अनोखी प्रस्तावना से हमारा सामना है, जिसे दरअसल पहली कविता के निष्कर्ष के रूप में लिखा गया है। ज़हर से बचने के लिए एक बार उसका शिकार बनने की ज़रूरत को रेखांकित करने वाली कवि अजंता देव का यह कवि-समय उतना संक्षिप्त और सरल नहीं है, जितना एकबारगी दिखाई पड़ता है। आप एक पंक्ति पढ़ते हैं और आगे बढ़ जाते हैं, कुछ आगे बढ़ने पर अचानक आपको उसी पंक्ति पर दोबारा लौटना पड़ता है। आप यहॉं कुछ भी चमकीला नहीं पाते, बस इतना पाते हैं कि यही जीवन है। कवि के प्रति आभार व्यक्त करते हुए अनुनाद अब इसे अपने पाठकों को सौंप रहा है।
***
1.
क्या एक चिर काली चादर काफ़ी होगी
मेरे जीवन भर के स्फुलिंग ढकने के लिए
जैसे रोशन हुए थे एक एक कर तारे
क्या वैसे ही बुझ जाएँगे एक एक कर
जैसे खो दिया प्यार क्या खो दूँगी प्यार के फ़रेब भी ?
बारिश की बूँदों की तरह टपक रही है मृत्यु
मेरे अंगारे छनक रहे हैं रह रह कर
मेरे जीवन भर के स्फुलिंग ढकने के लिए
जैसे रोशन हुए थे एक एक कर तारे
क्या वैसे ही बुझ जाएँगे एक एक कर
जैसे खो दिया प्यार क्या खो दूँगी प्यार के फ़रेब भी ?
बारिश की बूँदों की तरह टपक रही है मृत्यु
मेरे अंगारे छनक रहे हैं रह रह कर
किसी सुबह ये सिर्फ़ कोयले रह जाएँगे
पूरी रात वर्षा के बाद
कुछ बुझता है तभी जलता है कुछ ।
***
2.
साफ़ चमकीली हँसी सिर्फ़ ख़ुद के लिए होती है स्त्रियों की
तुम्हारे सामने वो पान दोख्ते और लिपस्टिक से ज़्यादा होती ही नहीं
क्या तुम जानते हो कब कब हँसी थी स्त्री
जब तुम कमज़ोर थे
बेरोज़गार
डरे हुए
शंका और दर्प के बीच झूलते हुए थे
उसने ख़ुद को बचाया हँस कर
उसने तुम्हे भी बचाया
और हँस पड़ी मुँह छिपा कर
आते हुए भी हंसी थी
तुम्हारे पीठ पीछे
और जाते समय भी हँस देती है स्त्री
जिसे देख नहीं पाता पुरुष
पीछ से ।
तुम्हारे सामने वो पान दोख्ते और लिपस्टिक से ज़्यादा होती ही नहीं
क्या तुम जानते हो कब कब हँसी थी स्त्री
जब तुम कमज़ोर थे
बेरोज़गार
डरे हुए
शंका और दर्प के बीच झूलते हुए थे
उसने ख़ुद को बचाया हँस कर
उसने तुम्हे भी बचाया
और हँस पड़ी मुँह छिपा कर
आते हुए भी हंसी थी
तुम्हारे पीठ पीछे
और जाते समय भी हँस देती है स्त्री
जिसे देख नहीं पाता पुरुष
पीछ से ।
***
3.
ज़हर से बचने के लिए
एक बार बनना पड़ता है उसका शिकार
पता लगाना पड़ता है
शरीर में कहाँ कहाँ उसने गड़ाए हैं पंजे
जगाना पड़ता है अपनी सुप्त सफ़ेद कोशिकाओं को
ज़हर से ज़हर ही लड़ सकता है
और इसकी कोई तालीम नहीं मिलती उस्तादों से
जाना ही पड़ता है मौत की कगार तक ।
***
4.
अगर तुम नहीं पहचानते ज़हर तो ज़रूर मर जाओगे किसी दिन धोखे
में
उसे चखो ,उसका स्वाद याद रखो
याद रखो कि अब कभी नहीं चखना है ये स्वाद ……..
में
उसे चखो ,उसका स्वाद याद रखो
याद रखो कि अब कभी नहीं चखना है ये स्वाद ……..
***
बहुत बढ़िया
"जहर से जहर ही लड़ सकता है।" बहुत अच्छी कविताएँ। बधाई।
'मोरपंखों के रंग इतने सहज नही जितना समझते हैं कवि','कुछ बुझता है तभी जलता है कुछ','जहर से जहर ही लड़ सकता है',जाना ही पड़ता है मौत की कगार पर' बहुत ही उत्कृष्ट पंक्तियां।बहुत ही सुन्दर रचनाएं।इन कविताओं में विशेषोक्ति का प्रयोग कविता को विशेष बनाता है।सरल,सहज भाव कविता को पाठक के आत्म में स्वप्रवेशित करते हैं।सहज कवियित्री हैं रंजना जी।धन्यवाद और आभार अनुनाद को।
अच्छी कविताएं पढ़वाने का शुक्रिया