अनुनाद

अनुनाद

कवितायें पढ़ने वाली लड़कियाँ

(शालिनी को समर्पित)
कम ही सही पर वे हर जगह हैं
इस महादेश की करोड़ों लड़कियों के बीच अपने लायक जगह बनाती
घर से कालेज और कालेज से सीधे घर आने के
सख़्त
पारिवारिक निर्देशों को निभातीं
वे हर कहीं हैं

मैं सोचता हूँ कि हिन्दुस्तान के बेहद करिश्माई सिनेमा
और घर-घर में घुसी केबल की सहज उपलब्ध अन्तहीन रंगीन दुनिया के बावजूद
वे क्यों पढ़ती हैं
एक बेरंग पत्रिका में छपी
जीवन के कुछ बेहद ऊबड़खाबड़ अनुभवों से भरी
हमारी कविताएँ

जिन पच्चीस रुपयों से ली जा सकती हो
गृहशोभा
मेरी सहेली
वनिता
बुनाई – कढ़ाई या सौन्दर्य विशेषांक
या फिर फेमिना जैसी कोई चमचमाती
अंग्रेज़ी पत्रिका
क्यों बरबाद कर देती हैं उन्हें वे
हिन्दी की
कुछेक कविताओं की खातिर ?

कल फोन पर मुझसे बात की थी एक ऐसी ही लड़की ने
पूर्वांचल के एक दूरस्थ सामन्ती कस्बे से आती उसकी आवाज़ में
एक अजीब-सा ठोस विश्वास था
और थोड़ा-सा तयशुदा अल्हड़पन भी
वह धड़ाधड़ देती जा रही थी प्रतिक्रिया मेरी महीना भर पहले छपी
एक कविता पर
जो प्रेम के बारे में थी

मैं लगभग हतप्रभ था उसकी उस निश्छल आवाज़ के सामने
वह बांज के जंगल में छुपे किसी पहाड़ी सोते-सी मीठी
और निर्मल थी
और वैसी ही छलछलाती भी

मैं चाहता था कि उससे पूछूं
वही एक सवाल –
कि दुनिया की इतनी सारी मज़ेदार चीज़ें को छोड़ आख़िर तुम क्यों पढ़ती हो कविताएँ ?

लेकिन काफी देर तक मैं चुपचाप सुनता रहा उसकी बात
उसमें एक गूँज थी
जो कालेज से घर लौटती सारी लड़कियों की आवाज़ में होती है
घर लौटने के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद
जो रुक जाती हैं थोड़ी देर
गोलगप्पे खाने को
और साथ ही खरीद लाती हैं
वह पत्रिका भी
जिसमें मुझ जैसे ही किसी नौजवान कवि की कोई कविता होती है

वे पढ़ती हैं उसे
बैठकर घर की खामोशी में
किसी तरह समझातीं और चुप करातीं अपने भीतर बिलख रहे संसार को
छुपातीं अपने सपने
अपने दु:ख
अपनी यातनाएं
और कभी अमल में न लाई जा सकने वाली
अपनी योजनाएं

वे कविताएँ पढ़ती हैं
घर के सारे कामकाज और कालेज की ज़रूरी पढ़ाई के
साथ-साथ
किसी तरह मौका निकालकर

अन्त पर पहुंचाते हुए इस बातचीत को जब पूछ ही बैठा मैं
तो पलटकर बोली वह
बड़ी निर्दयता से
कि पहले आप बताइए
आप क्यों लिखते हैं कविताएँ ?

अब अगर किसी पाठक की समझ में आ गया हो
तो वह कृपया मुझको भी समझाए
कि बाहर की सारी लुभावनी चकाचौंध से भागकर
हर बार
अपने भीतर के घुप अन्धेरों में
कहीं किसी बचे-खुचे प्रेम की थोड़ी रोशनी जलाए
ये कुछ लड़कियाँ

आख़िर क्यों पढ़ती हैं
कविताएँ ?


0 thoughts on “कवितायें पढ़ने वाली लड़कियाँ”

  1. बहुत गहरी बात. बताने के लिए शब्द नहीं मिल रहे. लेकिन, जब आप कविता लिखते हैं, तो पढ़ना तो पड़ेगा ही. और आपकी कविता में ही तो होती उनकी अपनी बात.

  2. aap kyo paDhate hai? kyo likhte hai???

    Ladkiyan kya ladko se itanee alag hotee hai????

    Vaise, is savaal kaa zabaab ki koi bhee maanav/maanvi kyo kavitaa paDhataa hai kaa zabaab is kitaab me milega

    “Necessity of Art” jiska hindi anuvaad “kalaa kee Zaroorat” bhee available hai.

    Anyway ye kavitaa bhee achchchee hai.

  3. पता नहीं क्यों । मैंने तो नहीं पढ़ीं थीं, केवल गद्य ही पढ़ा और खूब पढ़ा । कविता से मुलाकात तो हाल में ही हुई ।
    घुघूती बासूती

  4. इस विकट समय में अपने को अनगिनत प्रलोभनों और भटकाओं से बच-बचाकर आप जेहन में बची रह गई जिन बेचैनियों को अभिव्यक्ति देने के लिए कविता लिखते हैं शायद उन्ही बेचैनियों को जीने के लिए वह कविता पढ़ती है।
    बहुत सुंदर कविता। धन्यवाद

  5. ajkal jo upanyas padh raha hun usme ek sadhu se dikhnewale gyani se ek ladki badi sahajta se poochhti hai ki mujhe apne bare nahi balki ye batao ki shrishti me hawa kab ayee aur dhup kab ayee….apki kavita aise hi chirantan satya ko prashn ke taur par samne rakhti hai.naya kuchh na hone par bhi kai baar aapka baat kahne ka andaj itna nirala hota hota hai ki sab kuchh anchhua sa lagne lagta hai.

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