ये सभी अनुवाद आलोचना के अंक जनवरी-मार्च 1987 से साभार। इन पन्द्रह कविताओं को श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुत करने का इरादा है और यह उम्मीद भी कि आप आने वाले कुछ दिनों तक लोर्का को पढ़ना पसन्द करेंगे।
(पचास बरस पहले लोर्का शहीद हुए थे। अगस्त 1936 में वे फासिस्टों की गोली के शिकार हुए थे। फेदेरिको गार्सिया लोर्का वामपंथी क्षेत्रों में सक्रिय न थे, पर वे जनता के कवि थे। स्पेन में वे एक ताक़त थे। उनकी किताबें जलायी गई थीं। “एक बुलफाइटर की मौत पर शोकगीत” उनकी अमर कविता है और एक तरह से वे स्वयं भी “सांड़ के सींगों पर” मरे। लोर्का भरी जवानी में मारे गए – उस समय वे सिर्फ 37 वर्ष के थे। अठारह वर्षों की संक्षिप्त किंतु सक्रिय सृजन अवधि में उन्होंने अनेक अमर गीतों और नाटकों की रचना की। उनका हर गीत ऐसा है, जो “चीज़ों की आत्मा तक पहुंचता है” और इसलिए वह “एक दमकता, इस्पात जैसा ढला गीत” है। हमारे लोर्का यही हथियार छोड़ गए हैं, जिससे हम आज भी फासिस्ट ताक़तों से लड़ सकें और उन मूल्यों की रक्षा कर सकें जो सत्य हैं और सुन्दर हैं। – सम्पादक : आलोचना)
विष्णु खरे के अनुवाद
तीसरा पहर कहता है: मैं छाया के लिए प्यासा हूं
चांद कहता है:मुझे तारों की प्यास है
बिल्लौर की तरह साफ झरना होंट मांगता है
और हवा चाहती है आहें
मैं प्यासा हूं खुश्बू और हंसा का
मैं प्यासा हूं चंद्रमाओं, कुमुदिनियों और झुर्रीदार मुहब्बतों से मुक्त
गीतों का
कल का एक ऐसा गीत
जो भविष्य के शांत जलों में हलचल मचा दे
और उसकी लहरों और कीचड़ को
आशा से भर दे
एक दमकता, इस्पात जैसा ढला गीत
विचार से समृद्ध
पछतावे और पीड़ा से अम्लान
उड़ान भरे सपनों से बेदाग़
एक गीत जो चीज़ों की आत्मा तक
पहुंचता हो
हवाओं की आत्मा तक
एक गीत जो अन्त में अनन्त ‚दय के
आनन्द में विश्राम करता हो!
१ – मालागुए-या
मौत
शराबखाने में
आती-जाती है
काले घोड़े
और फरेबी लोग
गिटार के गहरे रास्तों
के बराबर चलते हैं
और समन्दर के किनारे
बुखार में डूबी गंठीली झाड़ियों से
नमक की और औरत के खून की
बू आती है
मौत
आती और जाती है
आती और जाती है
मौत
शराबखाने की !
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मालागुए-या : एक विशेष नृत्य और गीत का नाम
शिरीष जी कुछ समय के अंतराल पर नेट मिल पाया। आपके ब्लाग पर आई , सब कुछ अच्छा ही पाया – लोकाZ की कविताएं लाजवाब! अगली किस्तों का इन्तजार है।
बहुत अच्छे। लगे रहो।
अच्च्हा लगा इन कविताओ को पधना. बधाइ. पल्लव,उदैपुर
हर बार की तरह श्रेष्ठ प्रस्तुति।
dono kavitayen achchhi hain. aabhar.
pehli kavita achhi hai.balki bahutachhi . doosri vali to kahin aur se guzar gayee.
LORCA ko nahi padh paya tha..kafi mushkil se net naseeb hota hai. itnee saari aur itni achhi kavitaon ka asar rahega mudatto.n tak
बहुत अच्छी कविताएँ। आभार अनुनाद।
देर से ही पढ़ी पर सही, अच्छी कविता सदा ताजा रहती है।