कहां तो तय था चराग़ां हरेक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
यहां दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए
न हो कमीज़ तो पांवों से पेट ढंक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए
वे मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूं आवाज़ में असर के लिए
तेरा निज़ाम है, सिल दे ज़बान शायर की
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए
जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए
दो
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कंवल के फूल मुरझाने लगे हैं
वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
का़यदे-क़ानून समझाने लगे हैं
एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहखानो से तहखाने लगे हैं
मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं
मौलवी से डांट खाकर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं
अब नई तहज़ीब के पेशे-नज़र हम
आदमी को भूनकर खाने लगे हैं
एक शेर
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
shukriyaa..ek se badhkar ek baat..
शुक्रिया…..
अरे भाऊ ये पिपरिया कहाँ से आ गया और वो भी भोपाल के नज़दीक?
दुष्यंत जी या उनकी शायरी के बारे में अलग से कहने की ज़रूरत नहीं… मैं तो पिपरिया वाले सवाल में उलझ गया.
Jiyo!!!
aur baar-baar aisee rachnaaye padhwaate raho!!!
दुष्यन्त जी की गजलों के लिये धन्यवाद.
बेहतरीन. दुष्यंत कुमार को बार बार पढ़ना अच्छा लगता है. एक अन्य ग़ज़ल यहाँ भी है अगर पढ़ना चाहें :
http://kisseykahen.blogspot.com/2008/05/blog-post_03.html
http://kisseykahen.blogspot.com/2008/04/blog-post.html
भला दुष्यंत जी को भी भूला जा सकता है! पुनः पढ़वाने का शुक्रिया
सर्दियां हैं इसलिए बता रहा हूं इस आदमी को भुनी मटर बहुत थी। एक बार इसने अपनी किताब बेच कर मटर इलाहाबाद के एक ठेले पर खाई थी और फिर यह पहली वाली लिखी थी।
shukriya