फेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविताओं / गीतों के अनुवाद की ये दूसरी किस्त ………
चांद उगता है
चांद उगता है
जब चांद उगता है
घंटियां मंद पड़कर ग़ायब हो जाती हैं
और दुर्गम रास्ते नज़र आते हैं
जब चांद उगता है
समन्दर पृथ्वी को ढक लेता है
और ह्रदय अनन्त में
एक टापू की तरह लगता है
पूरे चांद के नीचे
कोई नारंगी नहीं खाता
वह वक्त हरे और बर्फीले फल
खाने का होता है
जब एक ही जैसे
सौ चेहरों वाला चांद उगता है
तो जेब में पड़े
चांदी के सिक्के सिसकते हैं!
अलविदा
अगर मैं मरूं
तो छज्जा खुला छोड़ देना
बच्चा नारंगी खा रहा है
(छज्जे से मैं उसे देखता हूं)
किसान हंसिये से बाली काट रहा है
(छज्जे से मैं उसे सुन रहा हूं)
अगर मैं मरूं
तो छज्जा खुला छोड़ देना!
अभी पिछली पोस्ट पढ़ कर हटा ही था की पुनः इतनी सार्थक कवितायें पढ़ने को मिली। पढ़वाने का शुक्रिया।
बहुत आभार.
बहुत प्यारी कवितायें हैं. भाई कुछ और कविताएँ देना था.
vijay ji ki baat se poora sahmat.isi shrinkhala ko jaari rakhe.
शुक्रिया साथियो !
यह श्रृंखला जारी रहने वाली है। आपका प्रोत्साहन अच्छा लगा।
keval alvida achhi lagi.
lekin vishnu khare ji chhajje ko kaise khula rakhen?