अनुनाद

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गीत चतुर्वेदी की डायरी पर गिरिराज किराडू की चिट्ठी …

मित्रो !
सबद पे गीत चतुर्वेदी की डायरी के अंश प्रकाशित हुए हैं जिनमें उन्होंने कुछ ऐसी चीज़ों के बारे में बात की है जो हम में से कईयों को और मुझे बहुत शिद्दत से महसूस होती रही है. हिन्दी में दो दुनियाएं हैं. एक ग्रासरूट दुनिया है जो “रूप” और “अंतर्वस्तु” के , “साहित्य” और “विचारधारा” के प्रश्न अब भी रोज़ उसी दीवानगी से सुलझा-उलझा रही है; चाहे उसे कस्बाई भावुकता समझा जाए पर परिवर्तन और उम्मीद के हर संकेत पर अब भी मर मिट जाती है; किसी पत्रिका में अपने नाम को ‘ड्राप’ हुआ देखकर उसे स्नेह, दोस्ती और लोयल्टी का मौका मानती है, अपने अंतर्विरोधों को लेकर अक्सर बेख़बर है; जीवन जीने का सामान जुटाने में इतनी खप जाती है कि बहुत अल्लम बल्लम स्टेट आफ द आर्ट थियरी नहीं जानती और अक्सर दूसरी दुनिया वालों का उपकरण बन जाती है.

दूसरी दुनिया मेट्रोपोलिस दुनिया है यूनिवर्सीटियों, दूतावासों, प्रकाशकों, अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक समारोहों मेलों के इर्द गिर्द बनती हुई. उसे पहली दुनिया के संघर्ष ‘रूडीमेन्टरी’ और साधारण लगते हैं. पर उसके पास वहां पाठक नहीं है! उसके सब गुणग्राहक अनुवाद में हैं.आइडियोलोजिकल कान्स्टिट्वेन्सी के साथ साथ उसका पाठक भी अक्सर पहली दुनिया में है.

हिन्दी इन दोनों से मिलकर बनती है. दोनों में बहुत प्यार और झगडे का रिश्ता है. एक की चिंता है हंस तद्भव वागर्थ ज्ञानोदय में क्या छपा, क्या चढा; दूसरे की चिंता है इस फेस्टिवल, इस फेयर में कौन गया? किसको अमरीकी प्रकाशक किसको योरोपीय अनुवादक मिला? किसको कौनसी ग्रांट कौनसी फेलोशिप मिली? किसकी किताब की रिलीज किस दूतावास में ?

दोनों में कुछ ऐसा है कि लिखा फिर भी हिन्दी में ही जाता है. दोनों दुनियाओं से कई लोग, दूसरी से ज्यादा, अंग्रेज़ी में लिख सकते हैं पर नहीं लिखते, नहीं लिख पाते. ये दोनों के बीच ओरगेनिक पुल है.

सोचा था ४-५ वाक्य का कमेन्ट होगा; पर ढाई पेज की समांतर चीज़ बन गया है.

आपका
गिरिराज

गीत की डायरी पर एक बढ़त

समाजविज्ञानी योगेंद्र यादव ने इन दिनों कहा कि अगर आप अमेरिकी मीडिया के इजरायल-प्रेम को समझना चाहते हैं तो मीडिया के शीर्ष पदों पर बैठे यहूदियों की बहुतायत को नजरअंदाज नहीं कर सकते. यह टिप्पणी लिखते हुए यह बात याद आ रही है. अगर आप हिन्दी की स्थिति को समझना चाहते हैं तो हिन्दी के ‘केन्द्रों’ के ‘शीर्ष-स्थानीयों’ के जीवन और ‘करियर’ को समझे बिना नहीं कर सकते.
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डायरी पढने का मजा तो नहीं आया पर गीत ने कुछ ऐसी बातें कही हैं जो हम में से कई बहुत शिद्दत से सोचते महसूस करते रहे है और मैं कुछ ज्यादा ही. पर यहाँ सिर्फ़ हिन्दी के हवाले से. अव्वल तो ऐसे बहुत हैं हिन्दी में जो आपको सिखायेंगे,”मुझे क्या मतलब बाहर मुझे कोई जानता है कि नहीं, मैं उनके लिए नहीं लिखता.” जब रश्दी ने विंटेज के लिए वो कुख्यात संकलन बनाया पचास साल के भारतीय लेखन के बारे में तब ऐसे खिसियाने वाले बहुत थे. मानों अपने समाजों से वाबस्ता लेखक दुनिया भर के बारे में न सोचते थे न उनका काम दुनिया भर में पहुँचा. ख़ुद ‘अपने’ समाज में रचनापाठ के लिए २० लोग जुटाना मुश्किल, किताब के लिए ५00-७00 प्रति के पार जाना मुश्किल और वास्तविक समाज में आपकी काव्य शक्ति को पाँच मिनट झेल पाना लोगों के लिए मुश्किल और यह सब सिर्फ़ इसलिए कि फासीवादी और बाजारवादी ताकतों ने पूरे देश को बर्बाद कर दिया है, हमारा लेखन तो उत्कृष्ट है.

दो कारण है:

१) हिन्दी के लेखकों के घनघोर आत्मकेंद्रिकता: अंग्रेज़ी से आरसी-फारसी, जर्मन-वर्मन, रूसी-वूसी, पोलिश-कोलिश के अनुवाद के जरिये कुछ प्रतिष्ठा, कुछ पैसा, कुछ संपर्क, कुछ यात्राएं कमाने वाले लेखकों ने हिन्दी के कितने लोगों को अंग्रेज़ी या दूसरी भाषाओँ में किया? दूसरा हिन्दी का जो भी सीमित अंतर्राष्ट्रीय एक्सपोज़र है (अक्सर वो खानापूर्ति ही होता है ओरोपीय/अमेरिकन आयोजकों के लिए) बाहर के आयोजनों में हिस्सेदारी या अनुवाद किसी भी रूप में वो अधिकारी/ पत्रकार लेखकों तक, ज्यादातर मेट्रोपोलिस लेखकों तक सीमित है या उन तक जो हिन्दी के दो तीन संगठनों के पदाधिकारी हैं या कभी कभार उन तक उन तक जो पहले दो टाईप के लोगों के दोस्त हैं या रिश्तेदार हैं. और इस सब के लिए खूब प्रयत्न करना पड़ता है. अपनी किताबों के अंग्रेज़ी अनुवाद कराने के लिए, निमंत्रण पाने के लिए. ऐसे संत मिलेंगे जो कहेंगे उन्हें यह सब प्रतिभा के कारण मिला है बाकी तो उसके दोस्त हैं या अधिकारी हैं. जब आपकी किताब हिन्दी में ५००-१००० लोग पढ़ रहे हैं तो जर्मनी में या अमेरिका में आपके बारे में दिलचस्पी पैदा कैसे हुई? बुकर वाली कम्पनी मैन ने तीन चार साल पहले मैन एशिया पुरस्कार जब शुरु किया तो उन्हें चीन में ऐसे समकालीन लेखक/किताबें मिले जिनकी बिक्री लाखों में थी भारत में?

(२) हिन्दी लेखकों की उतनी ही घनघोर आत्मदया: कोई बड़ा प्रयास हुआ नहीं अंतर्राष्ट्रीय एक्सपोज़र का. भारत भवन में विश्व कविता, एशिया कविता को लेकर हुए थे पर भारत भवन में कुछ अच्छा हुआ था यह मानने का रिवाज़ नहीं हिन्दी की मुख्यधारा में. जयपुर में अंतर्राष्ट्रीय स्तर का लिटरेचर फेस्टिवल ३-४ साल से हो रहा है. रश्दी और मैकिवान समेत दुनिया भर के बहुत लेखक आये हैं. (दानियाल भी आ रहा है इस बार) हर बार करीब सौ लेखक होते हैं हिन्दी के सिर्फ़ वही जो पेंग्विन या हार्पर के लेखक हो गए हैं. हिन्दी प्रकाशकों और शीर्ष-स्थानीयों से उनके सम्बन्ध में बारे में आप जानते हैं. वे हिन्दी के घेटोआईजेशन के लिए जिम्मेवार हैं, आधे साहित्य को ‘पिटी हुई उक्ति’ बनाने के लिए, प्रोपेगेंडा बनाने के लिए जिम्मेवार हैं. हिन्दी में वैकल्पिक प्रकाशनों को हिन्दी लेखक का समर्थन क्यों नहीं है? क्यों वो अब भी दिल्ली के २-३ प्रकाशनों से छपकर ही क्रांति करना चाहता है? क्यों वो हर सुबह अंग्रेज़ी के खिलाफ जिहाद में शामिल है और हर रात ये सपना देखता है कि उसकी किताब भी अंग्रेज़ी अनुवाद में छप जाय? सब ऐसे जताएंगे मानों बहुत संघर्ष कर रहे हैं. हिन्दी लेखक हो कर बहुत कष्ट उठा रहे हैं. जबकि हमारे ‘महत्वपूर्ण’ लेखकों को देखिये, उनमें एक निरंतर आत्मदया है. सेल्फ-जस्टिफिकेशन है, कोई सामाजिक योजना नहीं. कोई लेखकीय चुनौती नहीं। उठाने गिराने के कारनामे हैं. आधे नौजवान बुजुर्गों की सेवा में हैं. आधे बुजुर्गों को नौजवानों से ईर्ष्या है. और उस पर तुर्रा यह कि सब समाजसेवी संत हैं. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा! प्रसिद्धि !! शिव शिव शिव. ‘मुझे कोई नोबेल पुरस्कार नहीं जीतना था साहित्य लिखकर ‘एक महत्वपूर्ण’ कहानीकार के ताज़ा साक्षात्कार का शीर्षक है. मैं हिन्दी में उस लेखक का इंतज़ार कर रहा हूँ जो साहित्य अकादमी पुरस्कार को मोक्ष और ज्ञानपीठ को मुक्ति मानने और उन्हें पाने के लिये हर कोशिश कर गुजरने से साफ़ इन्कार करते हुए बिना हिचक, बिना शंका, बिना अपराधबोध यह कहेगा कि मैं नोबेल पुरस्कार जीतना चाहता हूँ. यह मेरा लक्ष्य है. ओरहान पामुक ने लिखा है कि वे बहुत महत्वाकांक्षी रहे है जब वे अपना पहला दूसरा उपन्यास लिख रहे थे तभी से उनका लक्ष्य था यह पुरस्कार जीतना. हिन्दी के त्यागी संतों से कहीं अधिक भला अमीर, एलीट पामुक ने अपनी भाषा और साहित्य का तो कर ही दिया है, शायद अपने समाज और देश का भी.

दोनों कारणों को एक वर्गीय- मिडलक्लास – आचरण की तरह समझ सकते हैं. अगर हमारी चिंता एशिया, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया में भारतीय लेखक की गुमनामी ना हो कर मुख्यतः यूरो-अमेरिकी दुनिया के बारे में है तो एक कारण यह है कि उपनिवेशोत्तर पश्चिमी समाज की दिलचस्पी, जिसमें अनुवादकों/प्रकाशकों की दिलचस्पी शामिल है अपने से बाहर वैसी कला की ओर रही है (और वो स्वाभाविक भी है) जो उनसे बहुत भिन्न हो. हिन्दी का बहुत सारा समकालीन/ आधुनिक/ प्रगतिशील साहित्य अनुवाद हो कर ‘मूल’ हो जाता है. ये एक खास औपनिवेशिक/हिन्दुस्तानी विडंबना है. जो समकालीन लेखन अनुवाद में पश्चिम के लिये सर्वाधिक नया हो सकता है वो बहुत कम अनूदित हुआ है जैसे हजारी प्रसाद द्विवेदी, रेणु.

समस्या तो यह भी है कि हिंदुस्तान को लेकर दिलचस्पी है ही कहाँ किसी भी क्षेत्र में. सिवाय सॉफ्टवेयर, योग,तंत्र, ‘फोक’, ‘क्लासिकी’ संगीत-नृत्य, और ‘बहुराष्ट्रीय’ व्यापार के. पाकिस्तान में एक नयी दिलचस्पी के कारण दूसरे हैं जो खासे ज़ाहिर हैं, उत्तर-९/११. और उत्तर-अफगानिस्तान. पोलैंड में दिलचस्पी के लिए भी आयरोनिकली पोलिश लेखकों को नाजियों का और युद्दोत्तर योरोप के अपराधबोध का शुक्रगुजार होना चाहिए!

*गिरिराज किराड़ू*

0 thoughts on “गीत चतुर्वेदी की डायरी पर गिरिराज किराडू की चिट्ठी …”

  1. आपके दिए लिंक में जाकर पहले गीत जी की डायरी पढ़ी, फिर आपके ब्लाग में दी गई गिरिराज जी की टिप्पणी! मुझे तो दोनों अच्छी लगीं। यह एक स्वस्थ बहस की शुरूआत है। अव्छा लगा कि आप किसी झंझट में पड़े बग़ैर एक अच्छी बहस में यक़ीन रखते हैं। इस प्रकरण पर आगे किसी और की टिप्पणी भी दीजिए। और लाल्टू जी की कविताएं भी अच्छी लगीं।

  2. गीत की डायरी पढ़ी थी और सहमति भी बनी. गिरिराज जी का लिखा भी खासा विचारोत्तेजक लगा. कहीं ऐसा तो नहीं कि पूरी श्रृंख्ला ही शुरू करने का पिलान कर रिये हो गुरु?

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