व्योमेश शुक्ल ने अपनी कविता की ताक़त के बूते बहुत कम समय में पहचान बनाई है। उसके अपने बनाये बेहद जटिल और महान काव्यमूल्यों से बाहर मेरे लिए उसकी कविता का एक निष्कपट, नितान्त मानवीय, गाढ़ा और सरल जीवनमूल्य भी है, जहां मुझे विश्रांति मिलती है। हमारी पीढ़ी में वह एक ऐसा कवि है, जिसकी कविता के लिए लड़ा जा सकता है। इससे अधिक कुछ नहीं कहूंगा ……. यहां जो कविता मैं यहां लगा रहा हूं उसके लिए
हमारे मित्र और ब्लागर भारतभूषण तिवारी ने आग्रह किया है सो व्योमेश की ये कविता उनके नाम … वैसे ये कविता इसके प्रिंट एडिशन में मुझे समर्पित है और इस समर्पण पर मेरी आपत्ति के बावजूद व्योमेश अपने समर्पण पर अटल रहा …. सो, कविता के शीर्षक के नीचे यहां भी उस समर्पण को छापना पड़ रहा है! इस समर्पण के पीछे वजह शायद यह है कि हम दोनों सुदूर बचपन में एक ही स्कूल के विद्यार्थी रहे हैं, पर इसका अर्थ यह न लगा लिया जाए कि हम एक ही स्कूल के कवि भी हैं ! व्योमेश और मेरी कहन में बहुत अन्तर है !
द्वीप पर सैलानी
(दोस्त कवि शिरीष कुमार मौर्य के लिए)
बचपन का स्कूल स्मृति का अक्षय स्त्रोत है
वहाँ से एक सफ़र शुरू होता है
जैसे नदी का सफ़र
जिसे आगे चलकर मलिन, दुर्बल और शुष्क हो जाना है
तब भी जिस पर बरसता रहेगा हमेशा समुद्र का जल
बचपन के स्कूल की इमारत बरसाती पानी से
भीग जाती है
तुम्हारे सिर पर छाता है ताकि निर्विघ्न सकुशल पहुँचो
माँ के पास स्कूल से घर
बहुत यात्राएँ जो हो चुकी और की जानी हैं
कविता कहेगी माँ के गर्भ से नहीं स्कूल से शुरू हुई
बच्चा स्कूल की बैंच पर बैठ-बैठ जायेगा
“श्यामपट्ट पर जीवन का पहला पाठ लिखा हुआ
उतार लेगा बच्चा जीवन का पहला पाठ अपनी स्लेट पर
फिर अध्यापक की नज़र बचाकर थूक से मिटा भी देगा
स्कूल के शौचालय में से उठने वाली अमर मूत्रगंध
दरी और टाट की गंध के साथ
रक्त में सन रही है
होमवर्क न करके आने पर मिलने वाले कठोर दंड से
हम भविष्य के दंडों के लिए तैयार हो गए
अब धूल का अंधड़ आता है उस दिशा से
जिधर बचपन का स्कूल था
एक अकाल वृद्ध मित्र बताता है कि संतोष चौहान पागल हो गया
मैं सोचता हूँ या सोचता हूँ कि सोच रहा हूँ कि
जिस सहपाठी की हैंडराइटिंग इतनी सुंदर थी
वह पागल कैसे हो गया
यह वाक्य कविता में इस तरह आया है कि
जिसकी हैंडराइटिंग इतनी सुंदर थी
उसे पागल होना ही था
उसके पागल हो जाने की समकालीन ख़बर
और सुदूर स्थित अच्छी हैंडराइटिंग के बीच
स्कूल की कक्षाओं के रहस्य की नदी
रोज़-रोज़ सूखती जाती है
हमारे बचपन का
हिंदी माध्यम वाला दो दुनी चार वाला स्कूल
इस चमचमाते समय में अब ग़रीबों का स्कूल है
जैसे समुद्र हहरह करते हैं
वैसे जीवन का शोर उठता है
स्कूल स्मृति का द्वीप है
अब वहाँ सैलानी बनकर कभी-कभी जाना होता है !
भारत भूषण तिवारी की प्रतिक्रिया :स्मृतियों के द्वीप और द्वीपों के सैलानी
अनुनाद पर
‘एक दिन मैं मारा जाऊँगा’ के प्रकाशन के बाद इस कविता की व्याख्या/मीमांसा का जो दौर चला वो निश्चित ही अनोखा है। कृति-विशेष पर ऐसे विमर्श साहित्य के लिए कोई नई बात नहीं है; अनोखी बात है इस विमर्श का लोकतांत्रिक और समावेशी स्वरूप. साहित्यकारों, आम पाठकों और साहित्य के विद्यार्थियों तक का इस में हिस्सा लेना विमर्श को ही नहीं बल्कि समूचे साहित्यिक माहौल को समृद्ध करता है. अनुनाद का इस तरह साहित्य के सार्वजनिक फोरम में रूपांतरण होते देखना सचमुच सुखद है. शिरीष की कविता के बारे में बस इतना ही कि मेरे लिए इस का ‘रीडर्स टेकअवे’ इसकी ‘बहुत सुन्दर आखिरी पंक्तियाँ’ हैं (गिरिराज किराडू जी के शब्द आभार सहित).’स्मृतियों के द्वीपों’ से जुड़ी अभिव्यक्ति में सरल संवेदना के आने का ख़तरा होता है; और अगर यह द्वीप ‘बचपन का स्कूल’ हो तो कविता के अल्हड़ हो जाने का जोखिम भी होता है. व्योमेश की यह कविता इन दोनों संकटों से बखूबी बचती हुई एक ईमानदार आवाज़ की तरह गूँजती है. इस ईमानदारी में मौजूद है वह ‘द्वंद्वात्मकता’ और ‘बुद्धि का संगठन’ जो रघुवीर सहाय को अभिप्रेत था. इतना ही नहीं, यह ईमानदारी आत्मनिष्ठ न होकर मुक्तिबोधीय वस्तुनिष्ठता में स्थापित है. ‘द्वीप पर सैलानी’ कविता शिरीष कुमार मौर्य को क्यों समर्पित की गयी है यह तो कवि स्वयं ही बता सकता है. मगर मुझे व्योमेश की यह कविता ‘एक दिन मैं मारा जाऊँगा’ से एक विलक्षण तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश करती नज़र आती है. ‘द्वीप पर सैलानी’ शिरीष की कविता के मर्म से प्रस्थान करती लगती है. प्रस्थान इसलिए क्योंकि वह ‘मार देने वाली या पागल कर देने वाली समकालीन ज़मीन’ पर खड़ी होकर ‘स्मृतियों के अक्षय स्त्रोत’ पर दृष्टिपात करती है. आश्चर्यजनक तौर पर यही कविता शिरीष की कविता का नैरन्तर्य भी प्रतीत होती है. नैरन्तर्य इसलिए क्योंकि यह शिरीष की कविता की ‘बहुत सुन्दर आखिरी पंक्तियों’ के अन्यथा स्वायत्त अस्तित्व को वह विस्तार देती है जो शायद गिरिराज किराडू जी को अभिप्रेत है.अंत में एक बात और. मुझे नहीं लगता कि कहन में अंतर होने से स्कूल अलग हो जाता है. ललित कलाओं में ऐसा ज़रूर होता होगा, मगर जनाभिमुख रचनाधर्मिता में तो बिलकुल नहीं. हर ‘शामिल’ लेखक या कवि अंततः एक ही स्कूल को ‘बिलॉन्ग’ करता है शायद!मेरे आग्रह का मान रखकर ‘द्वीप पर सैलानी’ को अनुनाद पर प्रकाशित करने के लिए शिरीष जी का आभार.
(यह प्रतिक्रिया ई मेल द्वारा मिली। )
शानदार कविता! व्योमेश शुक्ल के लिए लिखा भी बहुत आत्मीय है
व्योमेश जी की कविता बहुत अच्छी है. जानकार अच्छा लगा कि आप दोनों एक ही स्कूल से निकले हैं. हिंदी साहित्य के बारे अधिक जानते हुए मैंने
जाना कि यहाँ कई दोस्तियाँ रही हैं, आपको भी मेरी शुभकामनाएं !
स्मृतियों के द्वीप और द्वीपों के सैलानी
अनुनाद पर ‘एक दिन मैं मारा जाऊँगा’ के प्रकाशन के बाद इस कविता की व्याख्या/मीमांसा का जो दौर चला वो निश्चित ही अनोखा है. कृति-विशेष पर ऐसे विमर्श साहित्य के लिए कोई नई बात नहीं है; अनोखी बात है इस विमर्श का लोकतांत्रिक और समावेशी स्वरूप. साहित्यकारों, आम पाठकों और साहित्य के विद्यार्थियों तक का इस में हिस्सा लेना विमर्श को ही नहीं बल्कि समूचे साहित्यिक माहौल को समृद्ध करता है. अनुनाद का इस तरह साहित्य के सार्वजनिक फोरम में रूपांतरण होते देखना सचमुच सुखद है. शिरीष की कविता के बारे में बस इतना ही कि मेरे लिए इस का ‘रीडर्स टेकअवे’ इसकी ‘बहुत सुन्दर आखिरी पंक्तियाँ’ हैं (गिरिराज किराडू जी के शब्द आभार सहित).
‘स्मृतियों के द्वीपों’ से जुड़ी अभिव्यक्ति में सरल संवेदना के आने का ख़तरा होता है; और अगर यह द्वीप ‘बचपन का स्कूल’ हो तो कविता के अल्हड़ हो जाने का जोखिम भी होता है. व्योमेश की यह कविता इन दोनों संकटों से बखूबी बचती हुई एक ईमानदार आवाज़ की तरह गूँजती है. इस ईमानदारी में मौजूद है वह ‘द्वंद्वात्मकता’ और ‘बुद्धि का संगठन’ जो रघुवीर सहाय को अभिप्रेत था. इतना ही नहीं, यह ईमानदारी आत्मनिष्ठ न होकर मुक्तिबोधीय वस्तुनिष्ठता में स्थापित है.
‘द्वीप पर सैलानी’ कविता शिरीष कुमार मौर्य को क्यों समर्पित की गयी है यह तो कवि स्वयं ही बता सकता है. मगर मुझे व्योमेश की यह कविता ‘एक दिन मैं मारा जाऊँगा’ से एक विलक्षण तादात्म्य स्थापित करने की कोशिश करती नज़र आती है. ‘द्वीप पर सैलानी’ शिरीष की कविता के मर्म से प्रस्थान करती लगती है. प्रस्थान इसलिए क्योंकि वह ‘मार देने वाली या पागल कर देने वाली समकालीन ज़मीन’ पर खड़ी होकर ‘स्मृतियों के अक्षय स्त्रोत’ पर दृष्टिपात करती है. आश्चर्यजनक तौर पर यही कविता शिरीष की कविता का नैरन्तर्य भी प्रतीत होती है. नैरन्तर्य इसलिए क्योंकि यह शिरीष की कविता की ‘बहुत सुन्दर आखिरी पंक्तियों’ के अन्यथा स्वायत्त अस्तित्व को वह विस्तार देती है जो शायद गिरिराज किराडू जी को अभिप्रेत है.
अंत में एक बात और. मुझे नहीं लगता कि कहन में अंतर होने से स्कूल अलग हो जाता है. ललित कलाओं में ऐसा ज़रूर होता होगा, मगर जनाभिमुख रचनाधर्मिता में तो बिलकुल नहीं. हर ‘शामिल’ लेखक या कवि अंततः एक ही स्कूल को ‘बिलॉन्ग’ करता है शायद!
मेरे आग्रह का मान रखकर ‘द्वीप पर सैलानी’ को अनुनाद पर प्रकाशित करने के लिए शिरीष जी का आभार.
shreshtha kavita. vismit & vichalit karnevaali. aaqhirkaar chup kar dene vaali. v. d. n. saahi ne kaha tha ki mahaan kalaa wah hai, jo chup kar de ! sachmuch, vyomesh jaisa kavi hindi mein "koi doosaraa nahin."
shirish ji ne bilkul sahi kaha ki yah hamaare beech ek aisa kavi hai, jiske liye lada ja sakta hai. to dosto ! ladne ka waqt to aa gaya !
—pankaj chaturvedi
kanpur
kisi ne ek din kahaa….
vyomesh shukl nam ke ek kavi h, banaras ke…
mere kaan khade ho gye,
maine kahaa banaras ke ??
achha…
ghar lauta to kavita kosh par vyomesh shukl ki kaviatye padhi…
fir wo din aur aaj ka din…
vyomesh ke kavy gun aur kavya mulya par sab ne jo kahaa h usase sahmat hu…
jodanaa ye h ki…vyomesh ne banaras ke kavya jagat pe pade sukhe se hume ubar liya h…
vyomesh ko shubhkamnaye…