अनुनाद

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इन्साफ़ की दुआ : शुभा

जिन्होंने दुख का स्वाद नहीं चखा
उन पर दुख टूट पड़ें
जो बिछुड़ने के दर्द को नहीं समझते
उनके घर बह जाएँ


जो मनुष्य की क़ीमत नहीं समझते
गुम जाएँ उनके जवान बेटे
जिन्होंने कभी ख़ुशी नहीं देखी
उन तक पहुंचे कोई ख़ुशी
**********
तीन दिन पहले अचानक यह कविता पढ़ने को मिली. इसने मुझे खासा बेचैन कर रखा है. आपकी राय क्या है?
संजय व्यास की राय
कविता भीतर होने वाले तमाम अनुवादों के उपकरणों को सक्रिय होने का मौका दिए बगैर सीधी उतरती है। एक बार में तो इस इन्साफ की दुआ के समर्थन में दुआ उठती है और तुंरत बाद में बौद्धिक विवेक इसके न्यायसंगत होने पर सवाल खड़े करता है. हर बार पढने पर,सच कहा आपने, बहुत बेचैन करती है.जिनको कोई ख़ुशी नहीं मिली वे दुखों की धरती उठाए है. शायद उनके दुखों में से गठरी भर दुःख कम करने की ज़रुरत भी है.
पंकज चतुर्वेदी की राय
यह एक महान, अद्भुत और अविस्मरनीय कविता है। किसी दुर्लभ और जादुई क्षण में मुमकिन हुई होगी। इसमें तमाम काव्य-परम्परा की स्मृतियाँ और अन्तर्ध्वनियाँ भी सुनाई पड़ती हैं। ‘महाभारत’में लिखा है कि छः किस्म के शोक होते हैं, जिनमें ‘पुत्र-शोक’ को ‘महा-शोक’ या सबसे बड़ा शोक कहागया है। इसी तरह शायद अमीर खुसरो ने लिखा है——“
जो मैं ऐसा जानती, पीत किये दुख होय!
नगर ढिंढोरा पीटती , पीत न कीजो कोय!”
तो कवयित्री शुभा जब असंवेदनशील और ममत्वहीन लोगों को शाप देती हैं, तो इन्हीं दुखों में उनके बर्बाद हो जाने का शाप उन्हें देती हैं। यह इस कविता की बहुत बड़ी ताक़त है। साथ ही, जिस सांस्कृतिक सन्दर्भ में यह कविता मौजूद है या जिसमें इसकी रचना हुई है, वह इसे और भी उदात बना देता है। मगर उस सन्दर्भ की पहचान के लिए भी आखिर शुभा ही सराहना कीअधिकारी हैं. धीरेश जी का बहुत-बहुत शुक्रिया !

0 thoughts on “इन्साफ़ की दुआ : शुभा”

  1. कुछ कुछ ऐसा है जैसे एक कमजोर लम्हे में मैंने तेरे लिए बददुआ मांगी…..दुनिया भर के नए लोगो से जब आप मिलते है आप रोज कोई ख्याल दिमाग में लिए घर जाते है ..

  2. धीरेश भाई, सचमुच यह कविता दिल को छू गई। यह नकली और लिजलिजी करुणा की धज्जियां उड़ाकर हमारा एक नई करूणा से आत्मीय परिचय कराती है। शुक्रिया दोस्त।

  3. इस शानदार कविता के लिए शुक्रिया धीरेश भाई. मुझे लगता है असद ज़ैदी, मनमोहन, शुभा, नरेन्द्र जैन जैसे कवियों की हिन्दी में एक अलग श्रेणी है, जिसका मूल्यांकन जानबूझ कर हमेशा पेंडिंग रखा गया. मेरा प्रस्ताव है कि अनुनाद के लेखक और पाठक ऐसे कवियों के अवदान पर टिप्पणियाँ लिखें, जिन्हें अनुनाद पर लगाया जाय.

  4. कविता भीतर होने वाले तमाम अनुवादों के उपकरणों को सक्रिय होने का मौका दिए बगैर सीधी उतरती है. एक बार में तो इस इन्साफ की दुआ के समर्थन में दुआ उठती है और तुंरत बाद में बौद्धिक विवेक इसके न्यायसंगत होने पर सवाल खड़े करता है. हर बार पढने पर,सच कहा आपने, बहुत बेचैन करती है.जिनको कोई ख़ुशी नहीं मिली वे दुखों की धरती उठाए है. शायद उनके दुखों में से गठरी भर दुःख कम करने की ज़रुरत भी है.

  5. यह एक महान, अद्भुत और अविस्मरनीय कविता है. किसी दुर्लभ और जादुई क्षण में मुमकिन हुई होगी. इसमें तमाम काव्य-परम्परा की स्मृतियाँ और अन्तर्ध्वनियाँ भी सुनाई पड़ती हैं. 'महाभारत'
    में लिखा है कि छः किस्म के शोक होते हैं, जिनमें 'पुत्र-शोक' को 'महा-शोक' या सबसे बड़ा शोक कहा
    गया है. इसी तरह शायद अमीर खुसरो ने लिखा है——
    " जो मैं ऐसा जानती, पीत किये दुख होय
    नगर ढिंढोरा पीटती , पीत न कीजो कोय"
    तो कवयित्री शुभा जब असंवेदनशील और ममत्वहीन लोगों को शाप देती हैं, तो इन्हीं दुखों में उनके
    बर्बाद हो जाने का शाप उन्हें देती हैं. यह इस कविता की बहुत बड़ी ताक़त है. साथ ही, जिस सांस्कृतिक सन्दर्भ में यह कविता मौजूद है या जिसमें इसकी रचना हुई है, वह इसे और भी
    उदात्त बना देता है. मगर उस सन्दर्भ की पहचान के लिए भी आखिर शुभा ही सराहना की
    अधिकारी हैं. धीरेश जी का बहुत-बहुत शुक्रिया !

  6. .अंतिम पंक्ति तक आते आते शुरूआती बेचैनी दुआ ban गयी…..बद्दुआ देना /नाराज़ रहना बहुत देर तक आसान नही..shubha
    की बात asar kartii है– bakhuubii

  7. नि:संदेह न केवल यह कविता अपने पहले ही पाठ में दिल में उतरती चली जाती है, बल्कि बहुत कुछ सोचने को भी विवश करती है। बहुत बहुत शुक्रिया धीरेश जी !

  8. हो सकता है मै गड्बड सोच वाला आदमी हू . पर कविता मे बददुआ को अप्रिशिएट नही कर सकता . sorry Friends!

  9. संजय व्यास सही कह रहे हैं. यह इन्साफ की दुआ नही, बद्दुआ है// किसी पर दुःख टूट पड़ना, किसी का घर बहना, बेटा गुम जाना भला कैसी कविता है// पंकज चतुर्वेदी जान सकते हैं// क्या स्त्री विमर्श यही है?

  10. एक झिंझोड़ देने वाली कविता … जाने क्यों एक ग़ज़ल की दो लाइनें याद आ गईं
    " दर्द से मेरा दामन भर दे या मौला,
    फिर चाहे दीवाना कर दे या मौला"

    ऐसी कविता वेदना के आख़िरी इम्तिहान के बाद जन्मती होगी .

  11. दुआ किसी भगवान् से ही मुखातब हो ; यह क़तई ज़रूरी नहीं है. दूसरी बात यह की स्त्री-विमर्श से इस कविता का कोई लेना-देना नहीं है. अब अगर यह देखा जाना अनिवार्य हो गया हो की कविता का रचयिता
    स्त्री-पुरुष, हिन्दू-मुसलमान, दलित-सवर्ण वगैरह में-से कौन है—-तो सिर्फ़ यही कहना चाहूँगा की कवि अपनी आस्तित्विक विशेषताओं से आक्रान्त ही नहीं रहता, उन्हें अतिक्रमित भी करता है. विडम्बना है की हिंदी में इस वक़्त ज़्यादातर समीक्षा-कर्म कला की इसी विलक्षणता को बिसराकर किया जा रहा है. जो मित्र इस कविता में क्रूरता का पाठ कर रहे हैं ; उन्हें सचमुच क्रूर लोगों की उस क्रूरता पर भी अपने कुछ विचार व्यक्त करने चाहिए , जिसके खिलाफ़ दरअसल यह कविता कारगर और प्रभावशाली ढंग से अपना नायाब हस्तक्षेप दर्ज करती है. अगर आप उस विध्वंसक और प्रतिगामी अमानुषिकता को नज़रअंदाज़ करेंगे ; तो एक दिन निश्चय ही आप लोग हिटलर को माफ़ कर दिए जाने का प्रस्ताव रखेंगे और आदि-कवि वाल्मीकि को उनके प्रथम श्लोक की रचना में एक वधिक को दिये गये निर्मम अभिशाप के कारण "क्रूर" बताने लगेंगे !
    ——-पंकज चतुर्वेदी
    कानपुर

  12. बात पते की है पंकज जी. लेकिन ज़रा सोचिये, बददुआ?
    मै छोटी सोच वाला कम्ज़ोर आदमी हू .
    फिर भी किसी को बददुआ देने का मन नही करता.
    अपने दुखो के लिये खुद को भी उतना ही ज़िम्मेदार् मांता हू जितना कि उन क्रूर लोगो को . बददुआ क्या हताशा का संकेत नही देती ?fir ye chaahe khuda ko sambodhit ho yaa kisee ko bhee jise sambodhit kee ja sakti ho
    क्या येह आप मे नकारात्मकता नही पैदा करती ?कोइ हिट्लर अंततह खुद को मुआफ नही करता .
    नही जानता कि बालमीकि क्रूर थे या नही. लेकिन उन के वो शब्द निस्सन्देह क्रूर थे . और मुझे ऐसे किसी भी शब्द को कविता मानने मे परेशानी है.
    ऐसी कविता कर्ने से बेह्तर है गन उठाये और उन कथित क्रूर लोगो की खोपडी मे एक एक छेद बनाये…..

  13. अजय जी,
    आप छोटी सोच वाले कमज़ोर आदमी हरगिज़ नहीं हैं ! यह आपकी शाइस्तगी ही है, जो आप ऐसा कह रहे हैं. इस मामले में आपका मत हमसे अलग है, बस इतनी-सी बात है और यह बड़ी स्वाभाविक-सी बात है. एक सच्चे लोकतंत्र में मत-वैभिन्न्य तो होना ही चाहिए और हमें अपनी कुर्बानी देकर भी इस मूल्य की हिफ़ाज़त करनी चाहिए ; क्योंकि दरअसल सहिष्णुता, स्वतन्त्रता और विचारों की समृद्धि का बुनियादी स्रोत यह मत-वैभिन्न्य ही है. इसलिए मैं निजी तौर पर आपके इस कमेन्ट का दिली इस्तकबाल करता हूँ. रही बात आपके इस प्रस्ताव की कि 'गन उठाकर क्रूर लोगों की खोपड़ी में छेद कर देना चाहिए', तो यह भी गौरतलब है ; मगर कवि के ख़ास सन्दर्भ में——-अगर उसमें इतना सामर्थ्य न हो तो——-वह अपनी कविता में शाप या बद्दुआ ही दे सकता है और यह बद्दुआ किसी गन से कम नहीं ———(कृपया यह समझने की भूल कभी मत कीजियेगा)——-बल्कि ज़्यादा ही होती है. कबीर की ये पंक्तियाँ शायद आपने सुनी ही होंगी———
    "दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय
    मुई खाल की श्वास सों, सार भसम हो जाय "
    दूसरी बात आपकी यह है कि 'कोई हिटलर अपने आपको मुआफ़ नहीं करता'——एकदम सच है——-ख़ुद हिटलर के उदाहरण से भी, जिसने आखिरकार आत्महत्या की थी और ऐसी आत्महत्याएँ मानव-इतिहास में कुछ और आतताइयों ने भी की हैं ; लेकिन क्या हम इस बात को कभी भूल पायेंगे या इसके लिए उन तमाम 'हिटलरों' को कभी माफ़ कर पायेंगे, जिन्होंने आत्मघात करने या कथित तौर पर ख़ुद को 'मुआफ़ न करने' के पहले न जाने कितने मनुष्यों को अप्रत्याशित बर्बरता और नृशंसता के साथ मौत के घाट उतार दिया ?
    ——पंकज चतुर्वेदी
    कानपुर

  14. मेरे बारे मे मेरि राय शायद थीक ही थी. मेरी सोच ग़डबडा गयी है.
    मै ईसा या तथागत समझ्ने लग्ता हूं खुद को और तमाम पापियों को क्शमा कर्ने मन करता है. उन्हे महज़ एक आदमी समझ कर.
    पता नही ईसा और बुद्ध क्या थे- आदमी या ईश्वर?

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