शाह की राजशाही में ईरान छोड़ने को मजबूर हुए अहमद 1978 में शाह के तख़्तापलट के बाद वापस ईरान आए लेकिन जल्द ही उन्हें नई सरकार के धार्मिक कट्टरवाद का सामना करना पड़ा – उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जो अब भी जारी है।* उन्हें फिर देश छोड़ना पड़ा और अपनी देश की जनता के चहेते होने के बावजूद एक निर्वासित कवि के रूप में उन्होंने अपनी अंतिम सांसें लीं। ईरान के लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष आंदोलन में अहमद शामलू की कविताएं आज भी सबसे ज़्यादा प्रासंगिक हैं -वर्तमान जनाक्रोश के जो विवरण बाहर आ रहे हैं, उनसे भी यह बात प्रमाणित होती है।
सूंघ-सूंघ कर वे देखते हैं तुम्हारी सांसे –
कहना नहीं चाहिए था तुम्हें….. “ मैं करती हूं तुमसे प्यार´´
वे सूंघ-सूंघ कर देखते हैं दिल तक
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय ….
वे कोड़े बरसाते हैं
प्यार पर
सड़कों पर सरे-आम खड़ा करके
बेहतर होगा हम छुपा दें प्यार
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ….
इस कुटिल बंद गली के अंदर
अंजर पंजर ढीला कर देने ठंड में
लपटों को और खूंखार बनाने के लिए वे
झोंकते जाते हैं हमारे गीत और कविताएं…..
ऐसे में अपना जीवन सान पर चढ़ाकर
नष्ट न होने दो नाहक ही
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय …
आधीरात में दरवाज़े पर दस्तक देकर
अंदर घुसने वाले
सबसे पहले तोड़ते हैं तुम्हारा दीपक ही
बेहतर होगा कि हम छुपा दें अपनी रोशनी
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में …
सभी चौराहों पर तैनात हैं क़ातिल
खून से सनी तलवारें और लाठी-डंडे लेकर –
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय..
उनके निशाने पर हैं सब ओर
होंटो की मुस्कुराहटें
और गीतों की गुनगुनाहटें
बेहतर होगा कि हम छुपा दें अपनी खुशियां…
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ….
रंग-बिरंगे फूलों की आग जलाकर
उसकी आंच में भून रहे हैं वे सुकुमार परिन्दों को
अजीबोग़रीब दौर है यह मेरी प्रिय..
विजयोन्माद के नशे में धुत्त शैतान
पसरकर बैठ जाता है
हमारी अंत्येष्टि के भोज में
बेहतर होगा कि हम छुपा दें ईश्वर
कहीं घर के किसी अंधियारे कोने में ….
इतनी बड़ी पोस्ट पर अब तक एक भी टिप्पणी का ना होना हैरान करता है. लोग बुद्धिविमर्श में लगे रहते हैं और संसार के जुल्मो-सितम से आँख फेर लेते हैं. यादवेंद्र जी आपने अहमद शामलू की कविता यहाँ लगाकर एक सार्थक हस्तक्षेप किया है. मेरी ओर से शुक्रिया.
कभी कभी किसी पोस्ट पर टिप्पणी करने का मन नही भी करता . रागिनी जी आप की टिप्पणी पढ़ कर कविता का पुनर्पाठ किया . अभी भी कुछ कहने का मन नही है. पता नहीं क्यों?
रागिनी जी,
आप इस बात से तो सहमत लगती हैं कि किसी पोस्ट की सफलता या गुणवत्ता को टिप्पणी की संख्या से नहीं आँका जा सकता. कभी कभी कोई पोस्ट इतनी अच्छी होती है कि टिप्पणी की ज़रूरत ही नहीं महसूस होती. इसे ही 'लाजवाब कर देना' कहते होंगे शायद. अरब जगत और मध्य-पूर्व के अनसुने, अनचीन्हे कवियों से परिचित कराने का काम जिस नियमितता से यादवेन्द्र जी कर रहे हैं, वह 'हस्तक्षेप' से कहीं ज्यादा है. इसके लिए समूचा अनुनाद परिवार (लेखक और पाठक दोनों) उनका अहसानमंद है. रही बुद्धि-विमर्श की बात, तो अनुनाद पर वह भी ज़ुल्मो-सितम के खिलाफ़ ही किया गया है.
एक ही परिवार के सदस्य होने के नाते इतनी बातें कह गया. उम्मीद है आप अन्यथा न लेंगी.
अजय जी मेरी शिकायत पर आपने प्रतिक्रिया दी और बताया कि आपका भाव और विचार संसार कैसा है – इसके लिए शुक्रिया!
भारत जी आपने मेरी बात समझी! आपने जो लिखा मैं उससे सहमत हूँ. आपकी बात भी मेरी समझ आई. अजय जी का अंदाज़ थोड़ा आक्रामक लगा मुझे.
और शिरीष जी कमेंट बॉक्स सबके लिए खोलने का एक लाभ – अब मुझे टिप्पणी करने के लिए हर बार गूगल आई डी साइन नहीं करनी पड़ेगी, जैसे की अभी भी नहीं किया और टिप्पणी भी लग गई ! इसके लिए अलग से शुक्रिया.
आक्रमण नही किया जी…..
मन की बात केह दी थी. कहने की तमीज़ नही है. अब इसे मेरा अन्दाज़ ही मान लीजिये. फर्क़ इत्ना सा है कि समझदार लोग चुप रहे, मुझ से रहा न गया . भारत भूषण जी ने सही कहा . लाजवाब .
हर रचना प्रतिक्रिया नही मांगती शायद.
लेकिन इस्का मत्लब ये क़दापि नही कि वो अनिवार्य रूप से खराब रचनअ थी.
हिंसक होने के लिये स्सॉरी.