अनुनाद

अनुनाद

एक गड़बड़ कविता ……..

दोस्तो / पाठको !

ये एक पुरानी कविता है, जिसे अपनी उलझनों के कारण एक पत्रिका में मैंने छपते छपते रोक लिया था। कविता कई जगह पर टूटी बिखरी है – विचार के स्तर पर भी उलझी हुई है लेकिन इन संकटों के बावजूद ये है कि बस है ! आज सोचा आप सबके साथ इसे साझा किया जाए और आपकी प्रतिक्रियाएं जानी जाएं।

एक विकल वानर-दल……..
(निराला को समर्पित, जिनकी पंक्तियों से इतने बरस बाद भी एक युवा कवि को इतनी मदद और दिशा मिली)

घरों के ऊपर टीन-छतों पर
छज्जों पर
पेड़ों पर
बिजली के ठण्डे खंभों पर
दिनभर
विचरता रहता है
एक विकल वानर-दल

दुनिया को
घरों में घुसेड़ती केबल के सहारे
चलती चली जाती है
वानर मां

सड़क के इस पार से उस पार
अपने ललछौंहे नवजात को
छाती से चिपटाए

मुहल्ले की तमाम औरतों की तरह ही
जाड़ों की सुखद धूप में
बच्चों के साथ सबसे ऊंची छतों पर
अलसाने में विशेष रुचि रखता है
वानर-मांओं का समूह

वहां रोज ही
मैंने देखा है उसको
सबसे तंदुरुस्त
वह शायद दलपति की प्रमुख प्रेयसी है
गर्वीली और शानदार
हर वक़्त घुड़कती
बच्चे के निकट आते नौउम्र किशोर
वानरों को
जिन्हें सिर्फ उसके बालों से
जूं निकालने की
इजाज़त है

दलपति
कड़ी निगाह रखता है उन पर
जो बहुत पूंछ उठाकर चलते हैं
और कभी-कभार तो
एक अक्षम्य उद्दण्डता के साथ
जा बैठते हैं
उसके बैठने की जगह से भी ऊपर
किसी जगह पर

उसका कठोर अनुशासन
अकसर
ऐसे वानर के घायल पांवों या उधड़ी चमड़ी में
दिखता है

नीचे सड़कों पर मानव चलते हैं
आदमी

औरतें

और बच्चे
अपने ऊपर कायम इस दुनिया से
लगभग बेपरवाह
जबकि जीवन के कठिन समर में
उनके इनके बीच
कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है

हां, इतना है कि नीचे सड़कों पर
भीड़-भाड़
या झगड़ा हो जाने पर रुकने-थमने-सा लगता है
मानव-जीवन-प्रवाह
लेकिन ऊपर
बिजली के तारों तक पर वानर-दल का आना-जाना
अनथक
जारी रहता है

हालांकि उसमें भी झगड़े होते हैं
लेकिन बिना किसी दुर्भावना के
बिलकुल द्वेषहीन
ज़्यादा से ज़्यादा खाने को या फिर दल में अपने लिए
एक सम्मानजनक जगह बनाने को
आपस में
थोड़ी लूटपाट भी होती है

रहा कड़क अधिनायकवाद ऐंठी दुम वाले
दलपति का
तो वह अलग बात है-
कहां
उसके संजीदा चेहरे पर दिखती दुर्धर्ष इच्छा
और क्षमता भी
अपने समूह में जीवन को सुगम बनाने की
और कहाँ
मनुष्य की वह विनम्र शातिर
कायरता

दलपति वाकई बहुत साहसी है
उसे किसी का भय नहीं
हमेशा ही
झपट लाता है दुकानों और ठेलों से खाने की चीज़ें
जिन्हें
वह सिर्फ अपनी प्रमुख प्रेयसी के साथ बांटना पसन्द करता है
ललचाई आवाज़ में
गुहार लगाती थक जाती हैं
उसके हरम की दूसरी
मादाएं
लगातार उनमें अपना वंश-बीज बोते भी शायद
उसके मन में
बस एक ही का प्रेम पलता है

नीचे
सड़कों पर लोलुप नज़रों से
पकी उम्र वाले गंभीर पुरूष भी
कालेज से लौटती लड़कियों और साथी का हाथ पकड़कर
बिन्दास घूमती सैलानी स्त्रियों को
ताकते गुज़रते हैं

एक पागल है
जो लगातार बकता है गालियां
एक और है जो अचानक कहीं से नंगा होकर आ जाता है
शर्मिन्दा करता हुआ सबको

ऊपर बैठे वानर इस सबमें कोई दिलचस्पी नहीं रखते
बिना संक्रमित हुए वे पागल भी नहीं होते
उनकी निगाह तो
हर वक़्त बाज़ार और छतों पर बिखरे सामान पर रहती है
जिसमें वे
सिर्फ़ और सिर्फ़ अपना खाना तलाशते हैं

देखता हूं आज
नीचे सड़क अब भी गुलज़ार है
बीती रात दुकान से वापस जाते एक बूढ़े और
अशक्त मुनीम को
चाकू मार गया कोई
शायद पैसों के फितूर में
लेकिन रोज़ की ही तरह खुला बाज़ार
उतने ही रहे बेशर्मी के आसार
अपनी प्राथमिक जांच रिपोर्ट में पुलिस ने कहा-
एक ही सधे हुए वार में फेंफड़ो तक चाकू उतार देने वाला
वह ज़रूर कोई शातिर हत्यारा था

याद आया कुछ रोज पहले ही
दिल्ली से आयी किसी धनपशु की भव्य कार के नीचे
कुचलकर मारा गया था
एक वानर किशोर
दल में उसकी जगह बहुत मामूली थी
पर अकस्मात
सड़क पर उतर आया पूरा वानर-समूह
ज्यों राक्षस-विरुद्ध प्रत्यूह, क्रुद्ध-कपि-विषम-हूह
आने-जाने वालों पर झपटकर
उसने
बीस मिनट तक रास्ता रोके रखा था

एक ही साथ
बेहद करुण और क्रुद्ध स्वर में पुकारते
उन विकल वानरों का-सा स्वर
क्या मानव के भीतर नहीं उपजता?

सचमुच ऊपर-ऊपर चलता है
संसार हमारा
भीतर-भीतर रीता जाता है
यों जब अपने पर बीते तो हम भी रो सकते हैं
हमको भी गुस्सा आता है

वे वानर
ज़्यादातर बाहर के जीवन को जीते हैं
भीतर कुछ उठता भी है
तो उसको फौरन बाहर ले आते हैं
हममें संवेदन उनसे ज़्यादा है
पर खुद से बाहर
अकसर ही
हम असफल हो जाते हैं

यों दो अलग-अलग
प्राणी समुदाय
एक ही जगह बसर करते हैं
दो अलग धरातल हैं शायद
जीवन के
कि वे भरते हैं पेट फक़त
हम जेबें भी भरते हैं।

देखता हूं मैं नज़र भरकर
झुटपुटे में शाम के
एक भारी पेड़ की ऊँची डगालों पर
शयन करने को गया
वानर-दल

नींद की इस सरल दुनिया से तनिक नीचे
अभी तक
रोशनी में जगमगाती है
सड़क
और उसकी लपलपाती बांह में
बाज़ार अब भी सज रहा है

लेकिन भीतर हमारे
फिर अमानिशा
फिर उगलता गगन घन अंधकार
हम खो रहे
फिर से दिशा का ज्ञान

अप्रतिहत गरजती गाड़ियां अब भी
विशाल
बहुत ऊपर डाल पर बैठा हुआ दलपति –

भूधर ज्यों ध्यान-मग्न
उसकी आँखों में कहीं
जलती मशाल!
  
27 अक्टूबर 2005

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  1. कविता के प्रथम पाठ में ऐसा लगता है कि इसमें आदमी और उसकी विफल सृष्टि को एक ऐसी दुनिया के धरातल से देखा परखा गया है जहां सब कुछ मूलभूत और आदिम है.आदमी की दुनिया में जहाँ रौशनी का विस्फोट है वहीं खुद आदमी दिशा और दृष्टिहीनहै.कहीं न कहीं दोनों दुनियाएं एक ही जगह से शुरू होती है पर आदमी की दुनिया अन्दर से लगातार खाली होती रहती है और उसके ठीक ऊपर एक दुनिया लगभग अपरिवर्तित रूप में अपने को सुरक्षित,संक्रमणरोधी बनाए रख पाती है.
    कविता ये तो बताती है कि बेहतर दुनिया कहाँ है पर दोनों में से कोई अपने को बेहतर करने की कोशिश में नहीं दिखती.एक तरफ भ्रम, कायरता,खोखलापन, अँधेरा और टुच्ची संवेदनाएं है तो दूसरी तरफ सरलता, आवेग,स्थायित्व और अस्तित्व जैसी मूल स्थितियां है.एक बेहतर दुनिया इनके बीच में कहीं है जो फिलहाल हमारे पास नहीं है.
    शिरीष जी इस कविता का सौन्दर्य इसके यूँ ही, ऐसे ही होने में है.

  2. मैंने एक आम पाठक की तरह कविता पाठ का आनंद लिया। आलोचकीय दृष्टि से पढ़ने में कविता पढ़ने का रस नहीं मिलता। हाँ इतना जरूर कहुँगा कि यह एक अच्छी कविता है।

  3. शिरीष भाई कुछ ऎसे ही बिम्ब कभी मेरे भीतर अटके थे, पर उन्हें उस वक्त पूरी तरह से कविता में दर्ज करने का अवकाश न था, बाद में पकडने की कोशिश की तो संभव न हुआ। कुछ पंक्तियां फ़िर भी उसे पकडने की कोशिश में लिखी पर वह समय पकड ही न आया। कोशिश में लिखी गई पंक्तिया दर्ज कर रहा हूं, टिप्पणी स्वरूप
    राज काज के ढंग निराले

    आज, कल, परसों, तरसों
    न जाने कितना रीत गया जीवन,
    बीते वर्षों

    छाती पर चिपकाये बच्चे को बंदरिया
    बन्दर पीछे-पीछे
    घात लगाये,
    दुश्मन होगी आंख जो भी सीधे टकराये

    चना चबैना, गुड़ की भेली,
    चलता राहगीर बगल दबाये

    बच-बचकर जाने रे भाई
    राह तके बन्दर बौराये
    मा ओ मा ओ कर चिल्लाएं

  4. कविता सामाजिक ढांचों को परखती हुई अंत में किसी अदृश्य निंद्रा में विलीन हो जाती है. उपेक्षित मन के भीतर उपजी असुरक्षा की भावना का समाधान तलाशते हुए प्रकृति के उसी नैसर्गिक व सार्वभौमिक सिद्धांत की सत्यता परखने के लिए अपने सबसे निकट के प्राणी के जटिल व्यवहार की गूढ़ टोह लेते हुए आगे बढ़ती है. इसी उपक्रम में कविता डार्विन के वक्तव्य को परिभाषित करती है आगे उसके मानव समाज में स्वीकृत हो चुके विकृत रूप पर प्रश्न भी प्रस्तुत करते हुए विकल शब्द के प्रयोग से प्रत्येक समाज के समक्ष उपस्थित संकट को भी रेखांकित करती है.
    इस कविता को पढ़ते हुए कई जगह शानदार घुमाव मुझे उलझाते हैं किन्तु मेरा उनसे बाहर आने का प्रयास सफल भी हो जाता है अंततः मैं इस कविता से समझ पाता हूँ कि विकास और परिवर्तन के नाम पर हम जहाँ पहुँचने का दावा करते है उसके विपरीत हम अपनी मूलभूत स्थिति से दो कदम पीछे खड़े हुए हैं. सच है कविता मेरे भीतर बड़ी गड़बड़ करती है.

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