स्त्रियों की खिलखिलाहटें
धू धू कर जला देती हैं अन्याय के महल चौबारे
और झूठी मनगढ़ंत कहानियाँ
इनमे तप कर सुन्दर सफ़ेद दीप्ति से निखर जाती हैं…
ये संसदीय गलियारों को थर्रा देती हैं
खिडकियों को धक्के मार मार कर
खोल डालती हैं पूरा प्रशस्त
जिस से धज्जियाँ बन बन कर उड़ जाएँ बाहर
सारे ऊल जलूल व्याख्यान…
स्त्रियों की खिलखिलाहटें पोंछ देती हैं
बुजुर्गों के चश्मों पर जम गयी ओस की बूंदें
और उन सब को एक एक कर के अपने आगोश में लेता जाता है
आनंद सागर में अहर्निश डुबोये रखने वाला छुतहा रोग
वे ऐसे ठहाके लगाने लगते हैं
मानों छा गयी हो जवानी उन पर फिर से एक बार…
अँधेरे तहखानों में बंद कैदियों को लगने लगता है
जैसे दिख गया हो उनको दिन का उजाला
जब जब उनकी स्मृति में कौन्धती हैं
स्त्रियों की खिलखिलाहटें…
नदी की धार सी बहती हैं स्त्रियों की खिलखिलाहटें
जो हाथ थाम कर मिला दिया करती हैं
अलग अलग मुंह फेर कर चलते विरोधी किनारे
आकाश में उठने वाले भभूके की तरह
वे एक दूसरे को देती हैं कूट संकेत
खुद की प्रवाहमान उपस्थिति का…
स्त्रियों की खिलखिलाहटें
कैसी अजब है ये भाषा
चपल, इतराती हुई और सिरे से विद्रोहिणी…
हमने तब से सुनी हैं ऐसी खिलखिलाहटें
जब पैदा भी नहीं हुए थे कानून और धर्म ग्रन्थ
और समझ गए थे
कि क्या होती है
असल में
आजादी….
***
१९२४ में जर्मनी में पैदा हुई लाइज़ेल म्यूलर १५ वर्ष की उम्र में हिटलर की तानाशाही बर्बरता से तंग आ कर अपने परिवार के साथ अमेरिका आ गयीं.कई प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानों में अध्यापन के साथ साथ उन्होंने साहित्यिक समीक्षाएं भी लिखीं.उनके करीब एक दर्जन कविता संकलन प्रकाशित हैं और पुलित्ज़र सम्मान समेत अनेक साहित्यिक सम्मान और पुरस्कार मिले.हाल में मुझे उनकी ये बहुचर्चित कविता पढने को मिली तो लगा क्यों न अनुनाद के सुधी पाठकों के साथ साझा किया जाये.
धू धू कर जला देती हैं अन्याय के महल चौबारे
और झूठी मनगढ़ंत कहानियाँ
इनमे तप कर सुन्दर सफ़ेद दीप्ति से निखर जाती हैं…
ये संसदीय गलियारों को थर्रा देती हैं
खिडकियों को धक्के मार मार कर
खोल डालती हैं पूरा प्रशस्त
जिस से धज्जियाँ बन बन कर उड़ जाएँ बाहर
सारे ऊल जलूल व्याख्यान…
स्त्रियों की खिलखिलाहटें पोंछ देती हैं
बुजुर्गों के चश्मों पर जम गयी ओस की बूंदें
और उन सब को एक एक कर के अपने आगोश में लेता जाता है
आनंद सागर में अहर्निश डुबोये रखने वाला छुतहा रोग
वे ऐसे ठहाके लगाने लगते हैं
मानों छा गयी हो जवानी उन पर फिर से एक बार…
अँधेरे तहखानों में बंद कैदियों को लगने लगता है
जैसे दिख गया हो उनको दिन का उजाला
जब जब उनकी स्मृति में कौन्धती हैं
स्त्रियों की खिलखिलाहटें…
नदी की धार सी बहती हैं स्त्रियों की खिलखिलाहटें
जो हाथ थाम कर मिला दिया करती हैं
अलग अलग मुंह फेर कर चलते विरोधी किनारे
आकाश में उठने वाले भभूके की तरह
वे एक दूसरे को देती हैं कूट संकेत
खुद की प्रवाहमान उपस्थिति का…
स्त्रियों की खिलखिलाहटें
कैसी अजब है ये भाषा
चपल, इतराती हुई और सिरे से विद्रोहिणी…
हमने तब से सुनी हैं ऐसी खिलखिलाहटें
जब पैदा भी नहीं हुए थे कानून और धर्म ग्रन्थ
और समझ गए थे
कि क्या होती है
असल में
आजादी….
***
१९२४ में जर्मनी में पैदा हुई लाइज़ेल म्यूलर १५ वर्ष की उम्र में हिटलर की तानाशाही बर्बरता से तंग आ कर अपने परिवार के साथ अमेरिका आ गयीं.कई प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानों में अध्यापन के साथ साथ उन्होंने साहित्यिक समीक्षाएं भी लिखीं.उनके करीब एक दर्जन कविता संकलन प्रकाशित हैं और पुलित्ज़र सम्मान समेत अनेक साहित्यिक सम्मान और पुरस्कार मिले.हाल में मुझे उनकी ये बहुचर्चित कविता पढने को मिली तो लगा क्यों न अनुनाद के सुधी पाठकों के साथ साझा किया जाये.
वाह, शुरू की तीन लाइन थोड़ी अटपटी जरुर लगी पर बाद में बेहतरीन है.
औरतों की खिलखिलाहटें सचमुच बहुत ताकतवर होती हैं .. कहीं शिकस्त देती हैं कहीं ऊर्जा बिना शब्दों के वार भी करती हैं .. बहुत सुन्दर कविता . बधाई
आस्था और आशावादिता से भरपूर स्वर इस कविता में मुखरित हुए हैं।
अनुनाद को हिंदी-भर, हिंदी-सीमित होने से बचाए रखने में यादवेन्द्रजी और भारतभूषण की प्रमुख भूमिका है.दोनों की दृष्टि सामने चमक रहे से दूर और गहरे जाती है. और हमारे जैसे प्रदर्शनप्रिय आत्ममुग्धों के बीच इतने चुपचाप काम करने वाले इन मित्रों से प्रेरणा ( और शर्म) मिलती है. दोनों के लिए चीयर्स.