एक पुरस्कार समारोह से लौटकर
वह सीकरी का दरबार ही था भरा-पूरा
और वहां संत ही थे सारे
यह ग़र्मियों की एक ख़ुशनुमा शाम थी
जब शहर के सारे पेड़ मुरझा चुके थे
उस लान की घास रंगों से भी ज़्यादा गहरी हरी थी
और इतनी ताज़ी कि शायद ओस भी शर्माती होगी उन पर गिरने से पहले
फूल सारे के सारे खिले हुए
और पत्तियां मंच पर बैठी मोहतरिमा के भौंहों की ही तरह तराशी हुईं
कुर्सियों के कवर इतने सफ़ेद
कि बैठने से पहले कई बार देखा अपनी मटमैली सी जींस को
और जूते चुपचाप छुपा लिये कुर्सियों में घुसा
मंच पर उसी सफ़ेदी की चकाचौंध थी
दिवंगत नगरसेठ की आदमक़द तस्वीर
और उसके सामने सकुचाई सी प्रतिमा सरस्वती की
सारे नास्तिकों के हाथ जुड़े थे और आंखे झुकीं मंच की ओर
शायद सरस्वती की भी
सारे नायक चाय परोसने में व्यस्त थे
खलनायक पढ़ रहा था स्वागत भाषण
नायिका अभी-अभी सरस्वती वंदना गा कर दुबक गयी थी अपनी कुर्सी में
सारे संत उसके स्वर की प्रशंसा करते हुए
लगातार देख रहे थे मंच की तरफ़
वह सीकरी ही थी गर्मियों की उस ख़ुशनुमा शाम
कुम्भनदास दरवाज़े के बाहर घूम रहे थे बेक़रार
और जो संत थे
सारे के सारे भीतर गा रहे थे मंगलाचार!
***
भाई
इस दौर में या किसी भी दौर में कुंभन दास को तो बाहर रहना ही होगा…..अच्छा कथन
हम्म विवश आक्रोश झलक रहा है एक एक पंक्ति में….बड़ी कुशलता से बयाँ की है सच्चाई…
बढ़िया कविता..
ख़ूब कहा है…
संत…सीकरी…फिर बचता ही क्या है…
कुंभनदास बाहर ही ठीक है।
प्रतिरोध को कविता में ढालने की कला किसी में तो बची है…
बहुत सुंदर और सच्ची कविता . बधाई
kya shabd kya chaya sab aakrosh mein…..
सही तस्वीर बनायीं कविता में अशोक जी! सुन्दर!
कवि के आँखों के लेंस कितने साफ़ हैं सफेदी में छुपे अनेक सच्चाई के रंग देख लिए …
भाईयो, पहले क्षमा माँग लूँ. ये कुम्भन दास जी आज अचानक दिखे, समारोह से बाहर . 25 बरस पहले के एक गुरु जी याद आ गए जो इतिहास पढ़ाते हुए कुम्भन दास का ज़िक्र श्रद्धा से किया करते थे. इन के साथ और भी नाम याद आते हैं …… छीत्स्वामी, अष्ठ छाप , बल्लभ सम्प्रदाय ….सब भूल भाल गया हूँ, सच में. और समझ नही पाया कुम्भन दास को असोक भाई *सीकरी के समारोह* से बाहर क्यो कर रहे?
बताएं. प्लीज़. ताकि मेरे साथ और लोग भी समझें. दिल से कह्ता हूँ.
AJEY BHAI
Bas kumbhandas kaa vah doha quote kar deta hoon..is ummiid ke sath ki aap mazak nahi kar rahe…
jin mukh dekh dusah sukh upaje
tinkau karat pare parnam
santan ko kahan siikari se kaam..
और इतनी ताज़ी कि शायद ओस भी शर्माती होगी उन पर गिरने से पहले
फूल सारे के सारे खिले हुए
और पत्तियां मंच पर बैठी मोहतरिमा के भौंहों की ही तरह तराशी हुईं
कुर्सियों के कवर इतने सफ़ेद
कि बैठने से पहले कई बार देखा अपनी मटमैली सी जींस को
और जूते चुपचाप छुपा लिये कुर्सियों में घुसा…waah ji waah !!!!!!!!!!!!!
लाजवाब ! लाज़वाल !!