शिरीष,
आपके यहाँ जब पिछले दिनों आया था तो हलकी बरसात और कुहासे के अंदर तैरते हुए हम आपके घर तक आए थे.तब से यह एहसास मेरे अंदर बसा हुआ था.उसको संजोने की एक कोशिश:
कुहासा
कई बार हम देखने पर ज्यादा जोर देते हैं
कई बार महसूस करने पर…
कचहरियों की तरह प्रमाण को जरुरी मानते हैं कुछ लोग
और पिटी हुई स्त्री की आँखों में दुबके डर की बजाय
शरीर पर दर्ज चोट के निशान ढूँढते हैं लेंस ले कर….
छूना, सुनना,सूँघना, चखना बीच बीच में पड़ने वाले पड़ाव हैं.
बड़ी शिद्दत से ऐसे भी लोग हैं जो चाहते हैं
कभी कभी कुछ देखें न…ऑंखें बंद किये रहें
और ठोस छुअन के साथ नंगे पाँव बिना गिरे पड़े
स्मृतियों की तंग गलियों में लम्बा चक्कर लगा कर
बिना किसी से पूछे समझ जाएँ कौन कौन गाँव छोड़ गया.
आँखें खुली रखने का देखने से दरअसल कोई सम्बन्ध नहीं है
देखते हम वही हैं जो शिकारी ड्रोन सा सचमुच देखना चाहते हैं
गर्दन घूमे न घूमे,निगाह दसों दिशाओं में घूम जाती है
फिर भी कइयों को तो शरीर से चिपके जोंक तक नहीं दिखते
प्रेम दिखाई नहीं देता सिवा आँखों की तरलता के
क्रूरता होने से पहले सिर्फ आँखों की धधक में तैरती है
अवसाद को तिरछी नजर की तरह साथ के लोग देखते हैं मारते हुए कुंडली.
उसी तरह महकता है तभी दिखता है
कुहासा
जब सौंप देता है अपनी सारी तरलता
dekhna aur sunna kitna aindrik hota hai aur kitna aatmik isi ko paribhashit karti hai kavita.
sundar kavita hai. badhai yadvendra ji ko.
कुहासे का महकना और दिखना — ध्यान पड़ रहा है कि कुहासे की भी अपनी महक होती है –निराली
क्लोरोफिल सी नरम, नम, हरी, और ज़िन्दा कविता .