अनुनाद

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यादवेन्द्र की कविता – कुहासा

एक सुखद आश्चर्य की तरह आज याद्वेन्द्र जी का मेल मिला और साथ मे यह कविता..अनुनाद के पाठक ज़रूर इसे पसन्द करेंगे…
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शिरीष,
आपके यहाँ जब पिछले दिनों आया था तो हलकी बरसात और कुहासे के अंदर तैरते हुए हम आपके घर तक आए थे.तब से यह एहसास मेरे अंदर बसा हुआ था.उसको संजोने की एक कोशिश:

— यादवेन्द्र

कुहासा

कई बार हम देखने पर ज्यादा जोर देते हैं
कई बार महसूस करने पर…
कचहरियों की तरह प्रमाण को जरुरी मानते हैं कुछ लोग
और पिटी हुई स्त्री की आँखों में दुबके डर की बजाय
शरीर पर दर्ज चोट के निशान ढूँढते हैं लेंस ले कर….
छूना, सुनना,सूँघना, चखना बीच बीच में पड़ने वाले पड़ाव हैं.

बड़ी शिद्दत से ऐसे भी लोग हैं जो चाहते हैं
कभी कभी कुछ देखें न…ऑंखें बंद किये रहें
और ठोस छुअन के साथ नंगे पाँव बिना गिरे पड़े
स्मृतियों की तंग गलियों में लम्बा चक्कर लगा कर
बिना किसी से पूछे समझ जाएँ कौन कौन गाँव छोड़ गया.

आँखें खुली रखने का देखने से दरअसल कोई सम्बन्ध नहीं है
देखते हम वही हैं जो शिकारी ड्रोन सा सचमुच देखना चाहते हैं
गर्दन घूमे न घूमे,निगाह दसों दिशाओं में घूम जाती है
फिर भी कइयों को तो शरीर से चिपके जोंक तक नहीं दिखते

हाँ,सामने बैठा शख्स तिरछी नजर पलभर में ही जरुर भांप लेता है.

प्रेम दिखाई नहीं देता सिवा आँखों की तरलता के
क्रूरता होने से पहले सिर्फ आँखों की धधक में तैरती है
अवसाद को तिरछी नजर की तरह साथ के लोग देखते हैं मारते हुए कुंडली.
उसी तरह महकता है तभी दिखता है
कुहासा
जब सौंप देता है अपनी सारी तरलता

रुखी सूखी पथरीली धरती को.
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