अनुनाद

अनुनाद

अरुण देव की कविताएँ

मैं ब्‍लागिंग की अपनी शुरूआत में काफी सक्रिय  रहा…फिर  ग़ायब-सा हो गया या कहिए कि होना पड़ा। इस बीच कुछ बहुत सुन्‍दर और सार्थक कर दिखाने वाले ब्‍लाग आए हिंदी में, जिन तक मैं देर में पहुंचा। समालोचन ऐसा ही ब्‍लाग है। अरुण देव कवि-साथी के रूप में परिचित नाम रहे हैं। उनकी कविताएं पत्रिकाओं पढ़ी….कुछ जगह हम साथ भी छपे। उनकी आवाज़ साथ की आवाज़ है…जो कभी ज़ोर से सुनाई नहीं दी…बस धीरे-धीरे एक मंद्र गम्‍भीरता भरा आलाप …. मानो बाद के ख़याल और तानों और द्रुत तरानों की तैयारी में जुटा। मैंने उन्‍हें इसी तरह जाना और पहचाना है। अनुनाद पर उनकी पहली आमद भी इसी तरह की विलम्बित आमद है।
***
अरुण देव
यहां छप रही कविताओं में हिंदी की युवा कविता के वो अनिवार्य दृश्‍य हैं, जिनमें संज्ञाएं पहली बार पुकारे जाने के रोमांच में मुड़ मुड़ देखती हैं …. यह मुड़ मुड़ कर देखना, लौटना या पीछे हो रही गतिविधियों में शामिल हो जाना नहीं बल्कि आगे की यात्राओं के लिए पाथेय जुटाने जैसा है।  इन कविताओं में वो ज़रूरी इतिहास भी आता है, जिसका इधर लोप होता जा रहा है – जिसे अरुण इन बेहद कोमल गुनगुनी पंक्तियों में सम्‍भव करते हैं:पहले खिलौने की ख़ुशी  में/ धरती गेंद की तरह हल्‍की होकर लद गई/ हड़प्‍पा और मोहनजोदड़ो से मिली मिट्टी की उस गाड़ी पर / जिसे तब से खींचे लिए जा रहा है वह शिशु  – कविता बच्‍चे और खिलौने के बारे में है पर हड़प्‍पा और मोहनजोदड़ों से मिली मिट्टी की गाड़ी को तब से खींचे लिए जा रहे उस शिशु की छवि दरअसल उस मनुष्‍यता की छवि है, जो सहस्‍त्राब्दियां पार करके आयी है और अब भी उतनी ही निष्‍कलंक और नवजात है… उसमें जो गुंजाइश है, सम्‍भावना है, उसी को अरुण की कविता स्‍वर देती है। जाहिर है कि मनुष्‍यता नष्‍ट हो रही है, बड़े पैमाने पर संकटग्रस्‍त है।  हमारे समय की कितनी ही आवाज़ें उसे रेखांकित करना चाहती हैं – कर भी रही हैं – हमारा रेखांकन अधिकाशंत: तबाह हो चुके का है, जबकि अरुण का बचे हुए का, इसे हमारी आवाज़ों में उपस्थित एक अनिवार्य अंतर की तरह भी देखा सकता है। अरुण की कविता एक संकल्‍प भी है – मैं ही निकालूंगा तुम्‍हें / तुम्‍हारे ही कपट और कीच से … इस संकल्‍प में अहंकार नहीं, एक मानवीय गूंज है। अरुण के संकल्‍प और भी हैं, मसलन यायावरी का यह संकल्‍प कि उसे अभी अपने से भी / पार जाना था …..।  इन्‍हीं कविताओं में दर्ज़ है हमारे राष्‍ट्र के कवि-नागरिक की टीस कि न मेरा राशन कार्ड है / न राशन /कोई सरकार नहीं मेरी /मेरा मत नहीं …. और देखिए कि किस तरह यह टीस हक़ीक़त की इस शिनाख्‍़त में बदलती जाती है-  मैं तो देखता रहता हूँ वह करतब / जिसने  इस धरती के सबसे भले लोगों को सिखा दिया/ आग, रस्सी और काँटों के साथ जीना…..

रोने के संवेद और अपने पर हँसने की खिलती हुई हंसी की इन जीवन्‍त और अर्थपूर्ण कविताओं के लिए अनुनाद अरुण का आभारी  है  
– शिरीष
*** 


जन्म

भीगे आंगन में
दो नन्हे पाँव भटक रहे हैं
हथेलियां लेना चाहती हैं पानी का स्वाद
उत्सुक आँखों में जैसे पहली बार खिला हो चन्द्रमा
आरक्त तलवें तपते हैं सूरज की किरणों पर

जिह्वा पर ध्वनिओं का नया संगीत है
अटपटे झरते हैं वर्णमाला के अक्षर
व्याकरण के बाहर कागज के छोटे छोटे नाव
लिए फिरते हैं अभिव्यक्ति के नए नए सुख

संज्ञाएं पहली बार पुकारे जाने के रोमांच में
मुड़-मुड़ देखती हैं.
***

खिलौना

धरती पर उसके आगमन की अनुगूँज थी
वयस्क संसार में बच्चे की आहट से
उठ बैठा कब का सोया बच्चा

वहां गेंद थी
एक ऊंट थोड़ा सा ऊटपटांग
बाघ भी अपने अरूप पर मुस्कराए बिना न रह सका

पहले खिलौने की खुशी में
धरती गेंद की तरह हल्की होकर लद गयी
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से मिली मिट्टी की उस गाड़ी पर

जिसे तब से खींचे लिए जा रहा है वह शिशु.
 ***

 अहिंसा

 तुमने जो चुभोए थे कांटे
 तुम्हें भी चुभे होंगे
 जो फेकोगे पत्थर
 वे तुम पर ही गिरेंगे
 और जब दब जाओगे अपने ही फेंके पत्थरों के बीच
 लहूलुहान हो जाओगे काँटों की चुभन से
 
 मैं ही निकालूँगा तुम्हे
 तुम्हारे ही कीच और कपट से.
***
यायावर

यह रास्ता कहाँ जाता है
रौशनी में डूबी दोपहरी से
एक जोड़ी जूते ने पूछा
जूते के चेहरे पर यायावरी के गहरे निशान थे

फीकी मुस्कान लिए दोपहर ने
शाम की छतरी तान ली
शाम को रात में गिरना था
रात में जुगनू की लाठी पकड़े
उस एक जोड़ी को फिर भी
कहीं जाना था

क्या कोई रास्ता कहीं जाता है ?
रेत के समुद्र में उस कंटीली झाडियों से
पूछा था उसने
जहाँ दिशाएं एक दूसरे में गुम
किसी अंतहीन विस्तार में खो गयी थी

घडी की टिकटिक से
जाना जा सकता था काल को
जिसकी पूछ को खा रहा उसका ही मुंह

दिशाहीन अनंत काल में यायावरी?

पेड़ पर पीठ टिकाये
उसका प्रश्न चिडियों की चहचहाहट में बदल गया था
जूते के तस्मे बांधते हुए
उसे पहाड़ी के उस पार जाना था

उसे अभी अपने से भी
पार जाना था .
***


कपास

कपास का सर्दियों से पुराना नाता है
जब हवा बदलती है अपना रास्ता और
पहाड झुक जाते हैं थोड़े से

दो पत्तों के बीच वह धीरे से मुस्करा देती है
जैसे पहाडों की सफेदी पिघलकर उसमें समा गयी हो

सर्दियो के आने से पहले आ जाते हैं कपास के उड़ते हुए सन्देश
और आने लगती हैं धुनक की आवाजें

धुनक के तारों  से खिलती  है  कपास
गाती हुई सर्दिओं के गीत
एक ऐसा गीत जो गर्म और नर्म है
दोस्ताना हाथ की तरह.
***

राष्ट्र

छूट गया वह यात्री मैं
जिसकी कोई मंजिल नहीं
न घर, न पता, न देश

जहां जहां से गुजरती है ट्रेन
जहां जहां है गति
जहां से कोई जा सकता है कहीं
हूँ मैं वहीँ
उसके अंतिम छोर पर
टांट और मूँज की ओट में अपने घाव सुखाता
अपने को छिपाता, गुम करता हुआ

न मेरा राशन कार्ड है
न राशन
कोई सरकार नहीं मेरी
मेरा मत नहीं

कहीं लोहा गलाता
कहीं कठफोड़वा की तरह लकड़ी खटखटाता
अपनी मुर्गिओं और बकरियो के साथ

मेरे दुधमुहें बच्चे घूमघूम दिखाते हैं करतब
रस्सी पर चलते हुए
आग से गुजरते, कील पर सोते हुए
यह तो हमारा जीवन ही  ठहरा

मैं तो देखता रहता हूँ वह करतब
जिसने  इस धरती के सबसे भले लोगों को
सीखा दिया आग, रस्सी और काँटों के साथ जीना

मेरी औरते अपने काले जिस्मों से घिसघिस कर
छुडाती हैं न जाने किसके पाप
सहचर हैं हमारी
इस विपदा में भी रही हमारे साथ

मेरे ये छोटे छोटे छौने
जो घूमते नंगे बेखटक
मलिन और अधपके
देश के भविष्य ने जैसे इनके भविष्य से
अपने को अलग कर रखा है  

हाँ! बेदखल कर दिया गया है मुझे
इस धरती के मेरे ही हिस्से से
हमारी छाया से भी बेखबर है राष्ट्र!

यह भी पुराने खुदाओं की तरह निकला.
***

खिलने का गीत 
 
उगने और पनपने के लिए एक उम्मीद
एक प्रार्थना फैलने और पसरने के लिए
थोड़ा जा जल नमी और लचक के लिए
कुछ शब्द जो पक जाए फलों में
जिसे बारबार दुहराता जाए तोता
कुछ खाए और कुछ गिराये
फिर से अंखुआने के लिए

थोड़ी सी जिद्द तने रहने के लिए
गुस्सा भी जरूरत भर का जब चुभे कांटे किसी को भी
और कांटे भी मखमली भाषा के लिए जबतब
मिटने और मिटाने का साहस विवेक की डिबिया में 
रोने का संवेद और अपने पर हँसने की खिलती हुई हंसी भी.
*** 
अरुण देव
युवा कवि और आलोचक
क्या तो समय,कविता संग्रह, ज्ञानपीठ -2004 पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और लेख
सम्प्रति- सहायक प्रोफेसर
           साहू जैन कालेज,नजीबाबाद (बिजनौर,उ.प्र.)
           मोबाइल- 09412656938
             ई.पता- devarun72@gmail.com     

 प्रयुक्‍त तस्‍वीरें गूगूल इमेज से साभार

0 thoughts on “अरुण देव की कविताएँ”

  1. ‎"उगने और पनपने के लिए एक उम्मीद
    एक प्रार्थना फैलने और पसरने के लिए
    थोडा सा जल लचक और नमी के लिए
    कुछ शब्द जो पक जाय फलों में…!" अरुण जी की ये कवितायेँ..शिथिल हो रही आवाजों में प्राण भरती है..और अपनी विनम्र उपस्थिति को नैतिक साहस के साथ मनुष्यता के पक्ष में संलग्न करती है..! 'अनुनाद ' के साथ अरुण जी को हार्दिक बधाई !

  2. यह उस कवि के लिए जिसकी कविताओं की सांद्रता बहुत भली लगती है. यह कविताएँ आदिम मिट्टी को छूती हुई आज पर आती हैं और भविष्य को सुरक्षित रखने का आश्वासन देती हैं.

  3. वाह क्या कविताएँ पढवाई हैं अनुनाद ने. अरुण जी कि कविताओं में डूबना-उतराना अच्छा लगा.

  4. थोड़ी सी जिद्द तने रहने के लिए
    गुस्सा भी जरूरत भर का जब चुभे कांटे किसी को भी
    और कांटे भी मखमली भाषा के लिए जब-तब
    मिटने और मिटाने का साहस विवेक की डिबिया में
    रोने का संवेद और अपने पर हँसने की खिलती हुई हंसी भी.

    सहज भावाभिव्यक्ति की कवितायें

  5. जीवन के रंग से सराबोर ये कवितायें हमारे भीतर के उल्लास को गति प्रदान करती हैं …जन्म, खिलौना और 'खिलने का गीत' , दरअसल जीवन का ही गीत है , जिसे इस कठोर समय में गाया ही जाना चाहिए …अरुण जी और अनुनाद का आभार

  6. Purushottam Agrawal

    पहले खिलौने की खुशी में धरती गेंद की तरह हल्की हो कर लद गयी
    हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से मिली मिट्टी की उस गाड़ी पर
    जिस तब से खींचे लिए जा रहा है वह शिशु….

    क्या बात है….बहुत अच्छी कविताएं हैं अरुण…बधाई…

  7. Kaal ki poonch ko uska hi muh kha rahaa…….

    Kavita ise dekhti h.

    Arunji idhar ke vaachaal…sarvgyaat …prachand …aavegi or khoonta baddh kavya abhinay karte h…unme behad satyagrahi ki trh savinaya avagya ke kavi h.

    Unki bhasha …..biimb party gat kavitayee se ptadushit nahi lagti ….apne kavya ko bachaye rakhna darasl apna upyog n hone dena h.

    Niyati ke jatil prashan or sansaya kavita me saadhak bhaav se hi apna roop grahan kr sakte h….ye buniyadi sankalp arunji ko apne Tathakahit Samkaalino se prithak khadaa dikhata h.

    M unki yatra ko aage bhi …sneh or sajagtaa se kekhtaa rahoonga . Kuch kavitayen baar baar padhe jaane ki hoti h. Rakt me …..gunguni sansanaahat ki trh .

    Shirishji ka vaktavya behad aatmiya or sahishnu kavyaman se likha gayaa h.isvar unhe aisaa hi man….vivek de.

  8. आपकी कविताएँ मैंने पहली बार पढ़ी है अरुण जी ! 'समालोचन' के सम्पादक से अलग रूप में आपको इन कविताओं से जानना निस्संदेह अच्छा लगा 🙂
    सभी कविताएँ अच्छी है, दीवार में खिड़की दिखाती हुई… पर जैसे कि हमारा कविता देखने का धीरे धीरे एक ढंग यां नजरिया बन जाता है तो हम कविताओं में उस आलोक को ढूँढ़ते है यां एक झटके को यां चिउंटी को जो हमारी यथास्थिति से हमें झकझोर दे, एक गति दे जैसे कि जीवन हर समय रुक जाने की चेतावनी दे रहा हो और हम गति के लिए कविता की ओर देख रहें हों , एक पाठक के रूप में ऐसी कोई इमेज, ऐसा कोई विचार, ऐसी कोई खिड़की देखती हूँ कवितायों में हालाकि पाठक को भी पढने के अपने ढंग को नया करते रहना चाहिए, आपकी कविताओं में कुछेक पंक्तियाँ इसी तरह गतिमान लगीं

    संज्ञाएँ पहली बार पुकारे जाने के रोमांच में
    मुड़ मुड़ देखती हैं

    भाषा को हस्तगत करने की प्रक्रिया बहुत रोचक होती है और शायद जो लोग भाषा से प्रेम करते हैं, उन्हें संज्ञाएँ ताउम्र ऐसे ही रोमांचित करती हैं, उसी पहली बार का एहसास लिए language acquistion को आपने बहुत रोचक प्रस्तुत किया

    पहले खिलौने की ख़ुशी में
    धरती गेंद की तरह हल्की होकर लद गई…हल्के होकर लद जाना…इसे अभी समझने का प्रयास कर रही हूँ

    दिशाहीन अन्तकाल में यायावरी ? बेशक सनद कर रही है

    'कपास के उड़ते हुए संदेश'… dynamic इमेज है, इसे पढ़ते हुए वर्डस्वर्थ की The Solitary Reaper भी अनायास स्मरण हुई
    2 seconds ago · Like

  9. बेहद शांत और सुन्दर रचनाएँ हैं, अरुण जी .
    जन्म..खिलौना…कपास …खिलने का गीत , सभी मन को छू गईं .
    "और कांटें भी मखमली भाषा की तरह ", आपके शब्दों ने बेहद कोमलता से सारे भाव बयाँ कर दिए हैं ..

    सादर

  10. आप सभी मित्रों का आभार. शिरीष भाई ने इतने स्नेह और मान से मुझे स्थान दिया.कृतज्ञ हूँ.

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