अनुनाद

अनुनाद

कुछ न होता तो ख़ुदा होता उर्फ़ गनीमत है कि कुछ है · अशोक कुमार पाण्डेय


(एक)

जिन सड़कों पर कोई नहीं चलता वे भी कहीं न कहीं जाती हैं
उन घरों में किस्से रहते हैं जो अब
खाली हैं
यह काग़ज़ एक हराभरा पेड़ था
उस पर चिड़ियाँ थीं जो
उन जैसी आवाज़ नहीं किसी शब्द में
उन पत्तों जितनी खामोशी भी नहीं
आग़ भय से मुक्ति के लिए बनी थी
अब भय उसका प्रेमी है
पहला पत्थर रक्षा के लिए उठा था
आखिरी आत्महत्या के लिए उठेगा
आदम से अधिक हव्वा खुश थी स्वर्ग से
मुक्ति पर
अब वह आदम से मुक्ति के रास्ते तलाश
रही है
लोग बसने जाते हैं  और विस्थापित हो जाते हैं

(दो)
हर दिल्ली में एक इजराइल है
हर आजमगढ़ में एक ग़ाज़ा
इस घर को गौर से देखो
यहाँ अशोक कुमार पाण्डेय पैदा हुआ
था
अब इस खंडहर सा ही है अशोक आज़मी
अब जब यह घर नहीं रहा आजमगढ़ में
एक आजमगढ़ मेरे भीतर है और मैं
दिल्ली में रहता हूँ
मैं कविता में शरण लेने नहीं आता
जितना बस की खिड़की से दिखे उतना
गाँव भीतर हो भी तो क्या?
तुम एक शब्द लाओगे स्मृतियों के
कोटर से
और कविता में सजा कर रख दोगे
वह एक फुलकारी सजा कर रख देगा कमरे
में
ग़ाज़ा कब्रगाह में है
शुक्र है 
आजमगढ़ जेल में है
कवियों
बख्श देना आज़मगढ़ को
दिल्ली की बख्शीश के बदले
ग़ाज़ा पर अभी अभी एक बम गिरा है …

(तीन)

“आग़ हर चीज़ में बताई गयी थी” *
पठार धधकते हैं सीने की आग से
बम की आग से रेगिस्तान बन जाते हैं  
सीने की आग संविधान के खिलाफ है कवि
चूल्हे की आग विकास के खिलाफ है
माचिस में आग नहीं तीलियाँ हैं बस
आग उन्हें रगड़ने वाले हाथों में थी
कभी
तुम ग़लत साबित हुए कवि
और वे सही
किसी झूठे ने लिखा था
सत्यमेव जयते
कवितायेँ सारी दिन के सपनों में
लिखी गयीं थीं
सारे सपने रतजगों की पैदाइश थे या
सस्ती शराब के नशे के
जिन्होंने शराब बेची वही सपने भी
बेचते रहे
हम ख़रीदार थे ख़रीदार रहे.

(चार)

पक्का कह सकते हो हव्वा ने ही खाया
था वह फल?
यह भी तो हो सकता है उस दिन आग न
रही हो चूल्हे में
और घर लौटने में हव्वा को देर हुई
हो तो आदम ने खा लिया हो वह फल
तुम रोज़गार सुनते हो और आदम कहते हो
तुम खेती सुनते हो और आदम कहते हो
तुम्हें भूख सुनकर हव्वा की याद
क्यों आती है?
ईश्वर ने आदम को निकाला था स्वर्ग
से
हव्वा चिता पर जब चढ़ी तो ज़िंदा थी.
(पांच)
राजपथ पर कोई नहीं रहता
यहाँ कोई नहीं बसता
वह राजपथ पर चली तो नष्ट हुई
मेरी भाषा कि मेरे गाँव की झाँकी
सैल्यूट के लिए उठे हाथों में जो रह
गयी है मिट्टी
सैल्यूट लेते जूतों के पैरों में
उतनी भी नहीं
इस रस्ते पर मत आओ कवि
यहाँ बिन पानी सब सून है…



* चंद्रकांत देवताले की काव्य पंक्ति

0 thoughts on “कुछ न होता तो ख़ुदा होता उर्फ़ गनीमत है कि कुछ है · अशोक कुमार पाण्डेय”

Leave a Reply to अरुण चवाई Cancel Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top