अनुनाद

अनुनाद

कुँवर रवीन्द्र : बोध और द्वन्द के सजग शिल्पी – उमाशंकर सिंह परमार

कुंवर रवीन्द्र पर कुछ पहले किसी पत्रिका के लिए मैंने एक लेख लिखा था, जो छपा पर मुझसे कहीं गुम हो गया। अभी मुझे मेलबाक्स में उन पर यह लेख मिला तो ख़ुशी हुई। उमाशंकर सिंह परमार पहली बार अनुनाद के लिए लिख रहे हैं, उनका यहां स्वागत है। आशा है आगे भी वे कविता पर अपना दृष्टिकोण हमें देंगे। 
*** 
कला  के विभिन्न उपगमों में चित्रकला ही सौन्दर्य शास्त्रीय अध्ययन की दुष्टि से कविता के सन्निकट है व एक दूसरे को भाव पूर्वक समाहित करते हैं। कविता और चित्र का अन्तरंग और बहिरंग सम्बन्ध हिन्दी के के लिए नया नही है। छायावादी कविता में महादेवी वर्मा का अध्ययन बगैर उनकी कला को समझे हुए नही किया जा सकता जब भी कवि यथार्थ को लेकर भावात्मक रूप से उद्वलित होता है तो विभिन्न ललित कलाओं का मधुरिम घाल मेल कर देता है। सच यह है कि भावनात्मक संवेदन ही सम्पूर्ण कलाओं की उत्स भूमि है। एक चित्रकार भी कवि की तरह जमीनी टकरावों और विसंगतियों का भोक्ता होता है कवि या चित्रकार की अन्तःवृत्तियों का टकराव जब सामाजिक यथार्थ की परिस्थितियों से होता है तो भावनात्मक संवदेना खुद ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम अन्वेषित कर लेता है। 
पाश्चात्य विचारकों में हीगल और क्रोचे तो हिन्दी में महादेवी वर्मा, विजेन्द्र आदि चित्रकला व कविता के मिलन सूत्र है। हीगल और क्रोचे ने कला के सन्दर्भ में कला को संकुचित करे के आका है। चित्रकला की सार्थकता रंगों का काल्पनिक संम्मेलन है। ऐसा उनका अभिमत है। कला यथार्थ का अंकन है तो क्रोचे ने कला को यथार्थ का परिष्कृत रूप कहा है, उसका कहना है कि यथार्थ विद्रूप होता है – उसका हूबहू कविता या चित्र में अंकन कला को कला नही रहने देता क्योंकि विद्रूप का चित्रांकन भी विद्रूप ही होगा, जबकि चित्रकला विद्रूप का अंकन नही , सुन्दर का अंकन करती है। क्रोचे का अभिमत अधूरा है क्योंकि आज के दौर में चित्र यथार्थ का ही अंकन करता है, यही उसका सौन्दर्य है। विद्रूप यदि दर्शक पर भावनात्मक दबाव देता है तो विद्रूप भी सुन्दर है। आज सुन्दरता के मायने बदल चुके है यथार्थ के परिपे्रक्ष्य में काल्पनिकता द्वितीयक वस्तु है। यही कारण है कला को जीवन का अंकन कहा जाता है। इस अभिमत को मानने वालों की संख्या आज सबसे अधिक है, जीवन का अंकन ही कला है एवं जीवन का अंकन ही कविता है। 
चित्रकला में मिथक व क्लासिकल रूढ़वादी परम्पराओं को छोड़कर यथार्थ की नैसर्गिक प्रवृत्ति का चित्रण करने वाले चित्रकार बहुत कम मिलते है ऐसा चित्रकार कवि भी हो यह तो और भी मुश्किल है। कुँवर रवीन्द्र ऐसे ही कलाकार हैं, उनकी कला/कविता का दायरा वस्तुगत जगत का स्वउपभुक्त यथार्थ है। वस्तुगत जगत की विसंगतियों में जी रहे मनुष्य के जीवन का सिद्दत के साथ सर्वांग रैखिक बिम्व सृजन करना एवं शब्द बिम्वों से उसे संपुष्ट करना उनकी विलक्षणता है। जितनी सिद्दत के साथ चित्रकला को यथार्थ से सरोबोर करके कलात्मक टच दिया है उसी सिद्दत के साथ वें अपनी कविताओं में यथार्थ के विरूद्ध गम्भीर आक्रोश व्यक्त करते है। कुँवर रवीन्द्र के चित्रों को समझने के लिए उनकी कविता बहुत की कारगर औजार है। चित्रों के रंग संयोजन में व हल्के गहरे आरोह-अवरोह में कौन सा तथ्य छिपा है, इसकी जानकारी उनकी कविता ही दे सकती है। अमूमन चित्रकला को कल्पना से जोड़ने की बहुत बड़ी गलती कर दी जाती है कुँवर रवीन्द्र के चित्र इस गलती का खण्डन है। वह सिद्ध कर देते है कि चित्रकला का आशय रेखाओं और रंगों में प्रकृति के सर्वभौम जीवन को मूर्त करना है यही मूर्तन पुनः अंकन है, यही कला है एवं कविता में यही मूर्तन सम्वेद्य बिम्व है। चित्रकार की उत्प्रेरणा भौतिक प्रकृति की रचनात्मक शक्तियों का प्रतिबिम्व है वह जिस जीवन का अध्ययन कर रहा है, जिन परिस्थितियों से प्रभावित हो रहा है, वह जिस यथार्थ से आम लोक मानस को आबद्ध देख रहा है उस यथार्थ को रंगों में व्यक्त करना ही चित्रकला है और कुँवर रवीन्द्र इस मानक में खरे उतरते है। 
रवीन्द्र ने वाह यथार्थ का अनुभव अपने चित्रों में बखूबी सहेजा है उनकी कवितायें भी इस कटुता को दर-कनिार नही करती अपितु यथार्थ के प्रति कवितायें उतनी ही मुखर है जितना की उनके चित्र। रवीन्द्र ने श्रमजीवी समूहों के श्रम में ही कविता खोजी है वे कला और कविता को मनुष्य से पृथक करके देखना पसंद नही करते किसान के मिट्टी फैलाने, फावडा चलाने में भी उन्हें शब्दों का सामूहन दिखाई देता है, यही उनकी रचनात्मकता का वस्तुगत यथार्थ है। देखिए एक उदाहरण व यह चित्र जिसमें रंगों का आलेखन वही कह रहा है जो कविता कह रही है।
नही वह मिट्टी नही फैला रहा है
वह कविता लिख रहा है
       जमीन पर जमीन की कविता           
‘‘जमीन पर जमीन की कविता’’ यह कथन उनकी कविता की विषय दृष्टि व भौतिक जगत की अंकन दृष्टि का परिचय करा देती है इस कविता में प्रयुक्त शब्द चित्र के किसी भी कोण में भी विसंगति उत्पन्न नही करते यथार्थ के प्रति कही भी अतिरंजना का शिकार नही है किसी भी विचार से यह चित्र कल्पना यूटोपिआई सुमच्चय नही हैं बल्कि यथार्थ के अनुभव को ही उन्होंने अपनी बिम्व सृजक प्रतिभा से और भी स्पष्ट कर दिया है। इसी क्रिया को रूसी आलोचक चेरनोंवस्की ने यथार्थ का पुनः अंकन कहा है। उसने कहा है कि ‘‘कोई भी कलाकार भौतिक प्रकृति का जितनी गहराई से अंकन करता है उतनी ही कुशलता से हमारे समक्ष अनुभूत होकर प्रस्तुत होता है वह कलाकार उतना ही महान होता है’’। रवीन्द्र ने इस कविता एवं चित्र में यही किया है।
रवीन्द्र की कवितायें यथार्थजन्य पीडाबोध को अनेक सन्दर्भों में व्यक्ति करती है इस पीडाबोध के कई कारण है। सबसे बड़ा कारण तो लोकतन्त्र में लोक की बजाय अभिजन की बहुलता उन्हें अखरती है। स्वतन्त्रता के बाद पूँजीवादी शक्तियों ने जिस तरह समूची लोकतान्त्ररिक प्रक्रियाओं को अपने स्वार्थानुसार स्वयं की सुरक्षा हेतु ढ़ाल लिया है यह परिस्थिति आम लोक मानस के हक के लिहाज से तनाव और घुटन का कारक है। राजनैतिक सत्ताधारियों के पूँजीवादी वर्ग चरित्र ने आम जनता के लिए केवल धोखा, अभाव व मरणासन्न परिस्थितियाँ ही सृजित की है। रवीन्द्र इस हकीकत से वाकिफ है उनके चित्रों में सामयिक लोकतान्त्रिक विसंगतियों की लोकोन्मुख समझ बखूबी अभिव्यक्त हुई है। उनके कई चित्र व कवितायें जनतन्त्र के इस खण्डित स्वरूप को बया करती है। देखे एक चित्र व कविता जहाँ वे अपनी लोकतान्त्रिक आस्था के साथ-साथ लोकतान्त्रिक सन्त्रास को भी मूर्त रूप देते है एवं विभिन्न रंगों की उतार-चढ़ाव में तनाव, घुटन, असहजता को भी व्यक्त कर देते है।
बुद्ध तुम एक बार फिर
वृक्ष के नीचे बैठोगें
और ढूड सकोगे
लोकतंत्र से उपजे
    दुःख, सन्ताप और मृत्यु का निदान           
रवीन्द्र अपने युग की तमाम हलचलों एवं समस्याओं से निरपेक्ष नही है वे उन कलाकारों में है जो सम्पूर्ण व्यवस्था का महा मंथन करते हुए उसमें छिपी मानवता विरोधी साजिशों का पर्दाफाश करते है। वे जानते है भारत का किसान किस कारण से आत्म हत्या कर रहा है वे समझते है कि मजदूर शोषाण का शिकार क्यों है, वे जानते है कि अधाधुन्ध शोषण व पूँजीवादी हृदय हीनता ने समूची मानवता को बाजार में बिकने को उतारू उत्पाद बना डाला है, वे समझते है कि गरीब की रोटी छिन जाने से कौन खुस है, वे समझते है कि लोकतंत्र का सबसे बडा कटु सत्य यही है कि सब कुछ बाजार में बदल दो व मूल्य सहेजना तो दूर मूल्यों को कैद कर दो। स्वप्न वही देखों जो बाजार दिखा रहा हो स्वप्न वही खरीदों जो बाजार बेच रहा है। इस कथ्य को व्यंजित करता हुआ यह चित्र एवं कविता देखिए।
वे खुश होते हैं
कि आज मैने सपने बेचे
उन भूखे-नंगों को
जो सपने में देखते है सिर्फ
बदसूरत रोटियाँ               
यही वैज्ञानिक वर्गीय समझ रवीन्द्र के चित्रों का मूल स्वर है। जिस वर्गीय समझ को उन्होंने अपनी कविता का प्रतिपाद्य बनाया है वही वर्गीय समझ विभिन्न रेखाओं और रंगों के सान्द्र आवेष्ठन से उनके चित्रों में अन्र्तभूत है यदि चित्रों को उनकी कविता के समानान्तर रखकर विवेचित किया जाय तो चित्र अपनी सन्देश परकता में कविता से भी आगे निकल जाते है। अधिकांशतया मनुष्य के जैवकीय दंश उनके चित्रों मे मटमैला रंग लेकर अवतरित होते है यह मटमैला रंग अभिव्यंजित कर देता है कि संवेद्य भाव जमीन से जुडे है वह कटु यथार्थ का उपभुक्त अंकन है। परिवेश के प्रति यही सजगता उनके पाठकों को कचोट देती है। यही सजगता उनकी कविताओं में तीखापन उत्पन्न करती है। रवीन्द्र इस परिवेश के प्रति अदृश्य लगाव को ‘‘जहरीली आस्था’’ कहते है। ऐसे परिवेश का कथ्य सान्ध्य कालीन चित्र बखूबी बया करते है जहाँ अन्धकार का घोर कालिमा युक्त प्रपीड़क परिवेश साकार हो जाता है।
जहरीली होती जा रही है
आस्थायें
टूटते जा रहे है
सपनों के बंध
संगीनों के साये में
सांय-सायं करता जंगल                
यही भयावह परिदृश्य समकालीनता को मुह चिढाता हुआ, मानवता को उकेरता हुआ उनकी कविताओं में व अन्य चित्रों में पूरे अस्तित्व के साथ वर्तमान है। प्रकृति के उपागमों से विनिर्मित चित्रों में कई चित्र ऐसे है जिसमें मनुष्य की बेवशी और दुश्वार जीवन की झलक मिलती है। हालांकि रवीन्द्र की कवितायें भी इस बेवसी को अंकित करती है पर वह केवल अंकन से ही संतुष्ट नही होते  एक योद्धा की तरह एक कदम आगे बढ़कर क्रान्ति का आवाहन भी करते है। असमानता व पूँजीवादी कुचक्रों का रहस्य तो उनके चित्र ही बया कर देते है कविता चित्रों से थोडा आगे बढ़कर भ्रष्टाचार एवं अत्याचार के विरूद्ध अन्तस का क्षोभ व्यक्त कर देती है। कवि ऐसे परिवेश को तोड़ने के लिए मुठभेड के लिए खुद को प्रस्तुत कर देता है तो चित्रकार अपने चित्र को ही मुठभोर के लिए एक सैनिक की तरह व्यूह बनाकर खड़ा कर देता है। इस परिवेश के लिए कवि रास्ता खोजना चाहता है। वह ऐसा रास्ता चाहता है जिससे असंख्य छोटी-छोटी पगडण्डिया नजर आने लगे। जहाँ से मनुष्य अपने लिए मुकम्मल स्वप्न तलाश कर सके। देखिए इस कविता का कथ्य कथन व चित्र का पुर्नकथन
बस
बहुत हुआ
रोशन करदो झरोखों को
शायद
पगडण्डी नजर आने लगे।             
झरोखों को रोशन करनें का भाव है कि दीपक जला दो, उजाला कर दो यही उजाला क्रान्ति की संकलपना है। क्रान्ति की सजग अभिव्यक्ति है इस कविता में प्रतीक के रूप में उकेरी गई क्रान्ति चित्र में उकेरे गये क्षोंभ को समाहित कर रही है। लालवेस में आधारित चित्र व लाल सूर्य का चित्रण कविता व भाव में पूर्ण साम्य मिला देता है।  
यदि कला का लक्ष्य मानव जीवन का पुनः अंकन है तो रवीन्द्र इस उद्देश्य में पूर्ण सफल रहे है बहुधा उनकी उकेरी आकृतियाँ जीवन का स्पष्टीकरण देते समय जीवन का मूल्यांकन भी करने लगती है जब चित्र जीवन का मूल्यांकन करने लगे तो वह ऐतिहासिक हो जाता है ऐसी कला अपने समय के साथ टकराती है वह समय का साक्ष्य बनकर उभरती है यही कला की ऐतिहासिता है रवीन्द्र की कलाकृतितयाँ व कविता दोनों समय सापेक्ष है। समय की गति को एक खुली किताब की तरह व्यक्त करती है। आजादी के बाद खण्डित स्वप्नों का मूल्यांकन करती है। यदि आजादी के बाद का इतिहास अनुभव करना है तो रवीन्द्र के कविता व कलाकृतियाँ से बेहतर अन्य कोई उपागम नही है। रवीन्द्र की चित्रकला में क्लासिकल सिद्धान्तों को थोपा नही जा सकता क्योंकि उनकी कला का मूल विषय समय और मनुष्य है। अतः कला के लिए कला का सिद्धान्त, उनके लिए उतना ही अपरचित है जितना की संपदा के लिए सम्पदा, और विज्ञान के लिए विज्ञान, यही कारण कि रवीन्द्र के चित्र कला का सृजन नही करते अपितु पुनः सृजन करते है। यथार्थ को हुबहू अंकित कर व्यापक मानवीय आदर्श देते है। जिस प्रकार उनकी कविता मानवीय द्वन्दों व टकरावों की कविता है उसी प्रकार उनके चित्र भी द्वन्दों और टकरावों के चित्र है। बोध और द्वन्द की यही अभिव्यक्ति उनके चित्रों का प्राण तत्व है।                                    

(चित्र सौजन्य – लेखक उमाशंकर सिंह परमार। उमाशंकर सक्रिय वामपंथी कार्यकर्ता तथा जनवादी लेखक संघ बांदा के जिला सचिव हैं।)

अगली पोस्ट में विमलेश त्रिपाठी की दो लम्बी कविताओं ‘एक देश और मरे हुए लोग’ तथा ‘पागल आदमी की चिट्ठी’ पर रसाल का लेख आ रहा है। विमलेश की ये दोनों लम्बी कविताएं पहले अनुनाद पर ही छप चुकी हैं।   
                                           

0 thoughts on “कुँवर रवीन्द्र : बोध और द्वन्द के सजग शिल्पी – उमाशंकर सिंह परमार”

Leave a Reply to Onkar Cancel Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!
Scroll to Top