राष्ट्रवाद
राष्ट्रीय उन्माद का रूप धारण करे इससे पहले इस अवधारणा की उत्पत्ति के सांस्कृतिक
आधार और इतिहास पर दृष्टिपात करना आवश्यक है –
इमैजिंड कम्यूनिटीज़ – बेनेडिक्ट ऐन्डर्सन
(राष्ट्रवाद की परिकल्पना की
उत्पत्ति के प्राचीन सांस्कृतिक आधार और कारण)
1॰ परिचय
आज हम अचानक, बिना किसी चेतावनी के मार्क्सवाद और मार्क्सवादी आंदोलन के इतिहास
में एक आधारभूत परिवर्तन की कगार पर आ खड़े हुए हैं और इसके सबसे स्पष्ट संकेत
वियतनाम, कंबोडिया और चीन के बीच हुए हालिया
संघर्षों के रूप में देखने को मिलते हैं। ये सभी युद्ध विश्व इतिहास में दो कारणों
से महत्व रखते हैं पहला कि इस प्रकृति के युद्ध पहली बार उन शक्तियों के बीच हुए
जिनकी निर्विवाद स्वायत्तता, स्वतन्त्रता और राजनयिक मान्यता को साधारणतया चुनौती नहीं दी जा सकती
थी। दूसरे, इनमें से एक भी युद्धरत राष्ट्र ने किसी स्थापित मार्क्सवादी
विचारधारा के तहत (कुछ छिछले तर्कों के सिवाय) इस जघन्य रक्तपात के औचित्य की
व्याख्या करने का उत्तरदायित्व नहीं लिया। एक बारगी चीन-सोवियत सीमा विवाद (1969), सोवियत संघ का जर्मनी
में सैन्य-हस्तक्षेप (1953), हंगरी (1956), चेकोस्लोवाकिया
(1968) और अफगानिस्तान (1980) जैसे मामलों की प्रासंगिकता को येन
केन प्रकारेण ‘सामाजिक-साम्राज्यवाद’ और ‘समाजवाद संरक्षण’ जैसी शब्दावली के माध्यम से उचित सिद्ध किया जा सकता है लेकिन भारत
चीन युद्ध के दौरान जो कुछ घटा उसे किसी भी मार्क्सवादी विचारधारा के तहत न्यायसंगत
नहीं ठहराया जा सकता।
दिसंबर 1978 में वियतनाम द्वारा कंबोडिया पर आक्रमण और जनवरी 1979 में क़ाबिज़ हो जाने की घटनाएँ पहली
बार बड़े पैमाने पर एक बड़ी मार्क्सवादी शासन व्यवस्था की दूसरे के खिलाफ खुल कर
छेड़ी गयी जंग का प्रतीक थीं। उसी फरवरी में चीन ने वियतनाम पर आक्रमण करके इस क्रम
की अगली पुख्ता मिसाल प्रस्तुत कर दी। कहीं भी आपसी सौहार्द्र और शांति का माहौल
नहीं दिखता। अब अधिक से अधिक इतना ही दावा किया जा सकता है कि यदि अंतर्राष्ट्रीय
हिंसा भड़की तो सदी के अंत तक केवल दो ही बड़ी मार्क्सवादी शक्तियाँ एक दूसरे का साथ
दे रही होंगी – चीन और सोवियत संघ। हम
भविष्य को आंक नहीं सकते। हो सकता है कल यूगोस्लाविया और अल्बानिया ही आपस में भिड़
जाएँ। पूर्वी यूरोप के वे देश जो अब अपने सैन्य कैंपों से रेड आर्मी का निष्कासन
चाहते हैं उन्हें यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि वर्ष 1945
से अब तक इसी रेड आर्मी की कृपा से उस भूभाग के कितने ही मार्क्सवादी
राज्यों में संभावित संघर्ष टले है ।
‘द पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना‘, ‘द सोशलिस्ट रिपब्लिक ऑफ वियतनाम‘ आदि नाम यही नज़ीर प्रस्तुत करते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुईं
सभी बड़ी क्रांतियाँ किन्हीं न किन्हीं राष्ट्रीय अवधारणाओं और परिभाषाओं में आबद्ध
हैं। और ऐसा करके ये मार्क्सवादी महाशक्तियाँ और उनके महान आंदोलन न केवल
क्षेत्रीय व सामाजिक सीमाओं में सिमट गए हैं वरन उनकी अवनति पूर्वक्रांतिकाल में
हो गयी है। सोवियत संघ ने भी ऐसी ही त्रुटियाँ करके अपनी उस विशिष्ट छवि को हानि
पहुंचाई है जिसके अंतर्गत वह यूनाइटेड किंगडम ऑफ ब्रिटेन और उत्तरी आयरलैंड
के बाद इकलौता ऐसा राज्य है जो अपने नाम में राष्ट्रीयता का उल्लेख नहीं करता है।
उसने यह सिद्ध कर दिया है कि वह न केवल उन्हीं घिसी पिटी पूर्वराष्ट्रवादी और
वंशवादी परंपराओं का गंभीर पोषक है बल्कि इक्कीसवीं सदी की अंतर्राष्ट्रवादी शासन
व्यवस्था का अनुगामी भी है।
एरिक होब्स्बौम ने सही ही कहा है कि “मार्क्सवादी आंदोलन और
उन्हें संचालित करने वाले राज्य न केवल अपने बाह्य स्वरूप में बल्कि आंतरिक संरचना
में भी पूरी तरह राष्ट्रवादी हैं और यह प्रवृत्ति जारी रहेगी ।” संयुक्त
राष्ट्र संघ हर वर्ष नए सदस्यों की भर्ती करता जा रहा है। जैसे ही लगता है कि उसके
प्रयासों से पुराने छोटे छोटे राज्यों का विलय एक बड़े राष्ट्र में हो गया है, यह नया राष्ट्र अपनी सीमाओं के भीतर
सिर उठाते उपराष्ट्रवाद के असंतोष से घिर जाता है। ये समेकित राष्ट्र एक दिन पुनः
सम्पूर्ण स्वायत्त राष्ट्र बनने का सपना देखते रहते हैं। हकीकत यही है कि ‘राष्ट्रवाद के युग की समाप्ति‘ की भविष्यवाणी कहीं दूर दूर तक सच होती नहीं दिख रही है। बल्कि, आज तो राष्ट्रवाद सार्वभौमिक
राजनैतिक पटल का सबसे वैध सिद्धान्त प्रतिपादित हो रहा है ।
राष्ट्रवाद की अवधारणा
के स्पष्टतया तथ्यात्मक होने पर भी उसकी व्याख्या विवाद का मुद्दा रही है। राष्ट्र, राष्ट्रीयता, राष्ट्रवाद आदि शब्द सरलता से परिभाषित
नहीं किए जा सकते। राष्ट्रवाद ने आधुनिक विश्व पर जितना विषम और व्यापक प्रभाव
डाला है उसकी तुलना में राष्ट्रवाद के प्रचलित सिद्धान्त और परिभाषाएँ नगण्य हैं।
ह्यू सीटन वॉटसन राष्ट्रवाद पर अंग्रेज़ी भाषा के अब तक के सबसे सफल, सर्वग्राही लेखक, उदार इतिहासशास्त्री और समाज विज्ञान की महान परंपरा के
उत्तराधिकारी, किंचित खिन्नतापूर्वक कहते हैं, “मैं इस निष्कर्ष पर
पहुंचता हूँ कि ‘राष्ट्र‘ की कोई वैज्ञानिक परिभाषा नहीं निर्धारित की जा सकती। बावजूद इसके राष्ट्रवाद
हमेशा से अस्तित्व में था और है।‘
प्रसिद्ध पुस्तक ‘द
ब्रेक अप ऑफ ब्रिटेन‘ के
लेखक, सुविख्यात मार्क्सवादी, इतिहासविद और समाजविज्ञानी टॉम नेयर्न निर्भीकतापूर्वक कहते हैं, ‘राष्ट्रवाद का सिद्धान्त मार्क्सवाद
की सबसे बड़ी असफलता का प्रमाण है‘, लेकिन इस प्रकार की साहसपूर्ण स्वीकरोक्ति भी भ्रामक हो सकती है, इससे यह मतलब निकलता है कि इस विषय में अब तक कार्यान्वित
सैद्धान्तिक स्पष्टता की समस्त खोज व्यर्थ व सारहीन रही। संभवतः इसकी यह व्याख्या
अधिक उपयुक्त है कि मार्क्सवाद के समक्ष राष्ट्रवाद की अवधारणा एक असुखद विसंगति ही
है और यही कारण है कि इसका डट कर सामना करने की
बजाय इसे दरकिनार किया जाता रहा है। मार्क्स 1848
के नियमन में इसी संप्रत्यय के चलते बुर्जुआ शब्द की व्याख्या करने
में असफल रहे हैं, वे
कहते हैं, “हर देश के सर्वहारा को
सबसे पहले अपने ही बुर्जुआ वर्ग के साथ हो रही समस्याओं का समाधान करना चाहिए।‘ एक सदी से अधिक समय से प्रयुक्त शब्दावली ‘राष्ट्रीय बुर्जुआ‘ का इससे अच्छा प्रतिपादन हम और कहीं
नहीं देख सकते। बाद में भी कभी उनकी तरफ से इस विषय में गंभीरतापूर्वक यह स्पष्टीकरण
प्रस्तुत करने के प्रयास नहीं हुए कि विश्व भर में उत्पादनसंबंधी आधार पर निर्धारित
विशेषण ‘बुर्जुआ या पूंजीपति‘ को अचानक देश या राष्ट्र की सीमाओं
के आधार पर कैसे परिभाषित किया जा सकता है ?
मेरी इस पुस्तक को ‘राष्ट्रवाद- एक विसंगति’ अवधारणा की संतोषजनक विवेचना और प्रयोगात्मक सुझाव के तौर पर देखा
जा सकता है। मेरे विचार से इस विषय पर दोनों, मार्क्सवादी और उदारवादी सिद्धान्त अनुपयोगी और व्यर्थ सिद्ध हो चुके
हैं, और ये इस अवधारणा को बचाए रखने के
प्रयास मात्र हैं। यह भी सच है कि इन तथ्यों और सिद्धांतों के पुनरानवेषण की
अविलंब आवश्यकता है। इस विषय में मेरा समापक विचार यही है कि राष्ट्रीयता या
राष्ट्रवाद (शाब्दिक अभिप्राय भी निकाला जा सकता है) किसी राष्ट्र के सांस्कृतिक
कार्य-कौशल से अधिक कुछ नहीं । इसे भली भांति समझने के लिए हमें यह खोज करनी पड़ेगी
कि इस शब्द का ऐतिहासिक दस्तावेजों में समावेश सर्वप्रथम कब हुआ, कैसे समय के साथ इस अवधारणा का
विस्तार और विकास हुआ और क्यों और कैसे इसके पक्ष में इतनी सार्वभौमिक और गहन
संवेगात्मक स्वीकार्यता उठ खड़ी हुई । मुझे लगता है कि राष्ट्रवाद‘ की संकल्पना की उत्पत्ति अठारहवीं
शताब्दी के अंत में विभिन्न जटिल ऐतिहासिक शक्तियों के संकरण और निचोड़ से हुई थी, लेकिन एक बार स्थापित हो जाने के
बाद यह अत्यंत लचीली और प्रसारणीय हो गयी।
राष्ट्रवाद के सिद्धांतों को आसानी से दूसरे देश, संस्कृति व काल में आरोपित किया जा सकता था, ये किसी भी क्षेत्र के राजनैतिक या
सैद्धान्तिक वातावरण में आसानी से समायोजित हो सकते थे। आगे मैं यह विवेचना करने का प्रयास भी करूंगा कि कैसे महज एक
सांस्कृतिक कार्यकौशल ने इस वृहद स्तर पर जनता का गहरा लगाव अर्जित कर लिया।
राष्ट्रवाद की अवधारणा और परिभाषाएँ
उल्लिखित बिन्दुओं पर विचार करने से पहले आवश्यक है कि राष्ट्रवाद की
मूलभूत अवधारणा और एक व्यावहारिक परिभाषा स्थापित करने पर विचार कर लिया जाए।
राष्ट्रवाद के सिद्धान्त रचयिता तीन प्रकार के अंतर्निहित विरोधाभासों से यदि
कुपित नहीं तो व्यथित अवश्य हुए हैं : 1. एक इतिहासकार के नज़रिये से राष्ट्रों की वस्तुनिष्ठ आधुनिकता बनाम एक राष्ट्रवादी की दृष्टि में
राष्ट्रों की व्यक्तिनिष्ठ पुरातनता 2. राष्ट्रवाद की एक सामाजिक सांस्कृतिक अवधारणा की तरह औपचारिक सार्वभौमिकता (कि आधुनिक समय में हर व्यक्ति की एक स्पष्ट राष्ट्रीयता हो सकती है, होनी चाहिए और होती भी है) बनाम इसकी यथार्थपरक घोषणाओं या प्रकटीकरण
की निर्वैकल्पिक व्यवस्था और गुण धर्म। उदाहरण के तौर पर ग्रीक राष्ट्रीयता सुई
जेनेरिस (विशिष्ट और अनूठी) है । 3. राष्ट्रवाद की प्रचंड राजनैतिक शक्ति और उसकी तुलना में उसका बौद्धिक
दारिद्र्य जिसे दूसरे शब्दों में अज्ञान कहा जा सकता है। दूसरे वादों की तरह
राष्ट्रवाद में हौब्स, टौकवील, मार्क्स, वैबर्स जैसे विचारकों की उत्पत्ति
नहीं हुई है। यही ‘रिक्तता’ सर्वदेशीय और बहुभाषी विचारकों की
संख्या वृद्धि का कारण बनती है । जैसा कि गरट्रूड स्टाइन ने ‘फेस ऑफ ओकलैंड’ में भी कहा है, ‘देअर इस नो देअर देअर’ (किसी व्यक्ति,
विचार या वाद में संस्कृति, आत्मा,
जीवन और पहचान का अभाव ) अर्थात उनमें किसी भी प्रकार की बौद्धिकता या विचारशीलता
का अभाव है । इसी अभाव के चलते टॉम नेयर्न जैसे राष्ट्रवाद के सहानुभूतिपूर्ण
अनुयायी भी यह कहने पर बाध्य हो जाते हैं कि, “राष्ट्रवाद आधुनिक प्रगतिशील इतिहास की रुग्णता है इसकी तुलना उस
मानसिक विक्षिप्तता से की जा सकती है जो व्यक्ति की सोचने समझने की शक्ति को अपरिहार्य
रूप से दुर्बल कर देती है, और धीरे-धीरे व्यक्ति मतिभ्रम का शिकार हो जाता है। यह स्थिति
मुख्यतः उस धर्मसंकट से जन्म लेती है जो आज समूचे विश्व में लोगों द्वारा स्वयं को
निरुपाय समझने से उत्पन्न हो गयी है (इसकी तुलना आप इन्फैन्टिलिस्म- समाज के मानसिक व बौद्धिक विकास में
अवरोध से कर सकते हैं), और इस बीमारी का फिलहाल कोई इलाज नहीं दिखता।“
सबसे बड़ी समस्या यह है की
राष्ट्रवाद को लोग आवश्यकता से अधिक महत्व दे रहे हैं। क्या ही अच्छा हो कि हम इसे
लोगों की आयु और लिंग के समान अध्ययन और विवेचना का एक कारक भर मानें राष्ट्रवाद को फासीवाद या उदारवाद जैसी किसी
विचारधारा से जोड़ने से बेहतर है इसे सामाजिक व्यवहार या धर्म जैसा ही एक तत्व माना
जाए, और आवश्यकता से अधिक महत्व नहीं
दिया जाए ।
तो ऊपर दिये गए विश्लेषण के आधार पर मैं राष्ट्रवाद की मानव विज्ञान
संबंधी यह परिभाषा देना चाहूँगा कि “यह एक काल्पनिक राजनैतिक समुदाय भर है और काल्पनिक तौर पर ही यह आरम्भ से सीमित और स्वायत्त दोनों रहा है।“
काल्पनिक इसलिए क्योंकि छोटे से छोटे राष्ट्र के सदस्य भी कभी वास्तविक
रूप से एक दूसरे को देख या एक जान नहीं पाते हैं जबकि मानसिक रूप से उनमें से हर
एक व्यक्ति राष्ट्रीय एक्य की भावना रखता है। राष्ट्रवाद राष्ट्रों की आत्म चेतना
का जागृत होना नहीं है बल्कि यह तो उनका आविष्कार वहाँ करता (गढ़ता) है जहां वे हैं
ही नहीं। गेलनर की इस परिभाषा में त्रुटि यही है कि वे यह कहते हुए बहुत चिंतातुर
हो जाते हैं कि “राष्ट्रवाद
झूठे बहाने गढ़ कर स्वांग रचता है”, गेलनर अविष्कार शब्द का प्रयोग ‘धोखेबाज़ी’ और ‘मनगढ़ंत
कल्पना’ के लिए करते हैं जबकि दरअसल वह
अन्वेषण और सृजनात्मकता को दर्शाने वाला शब्द है। विश्व में सच्चे और यथार्थवादी
धरातल पर बने कुछ मौलिक समुदाय भी हैं जिन्हें भूलवश राष्ट्रवाद का ही अंग समझ
लिया जाता है। आदिकालीन छोटे छोटे गांवों, जहां लोग एक दूसरे को भली प्रकार जानते हैं, से बड़े सभी समुदाय काल्पनिक ही हैं। इन समुदायों का वर्गीकरण होना चाहिए लेकिन कृत्रिमता के आधार पर नहीं
बल्कि इस आधार पर कि उनके निर्माण के समय उनकी क्या परिकल्पना की गयी थी। जावा के
ग्रामीण यह मानते हैं कि वे असंख्य अपरिचित लोगों से भी जुड़े हुए हैं लेकिन यह
उनके समाज के लिए विशेष तौर पर की गयी परिकल्पना थी। वे अपने सामाजिक सम्बन्धों और
लेन देन में असीमित रूप से विस्तृत और लचीले हैं । अभी हाल तक जावा की भाषा में ‘समाज’ के लिए कोई पृथक शब्द नहीं दिया गया था। आज हम मध्ययुगीन फ्रांस के ‘एरिस्ट्रोक्रेसी’ (कुलीन वर्ग) को वर्ग कह सकते हैं लेकिन तब यह एक वर्ग विशेष नहीं था, वर्ग की यह संकल्पना आधुनिक युग की
देन है ।
राष्ट्र की कल्पना संकुचित या सीमित इसलिए है क्योंकि ऐसे बड़े-बड़े
राष्ट्र जिनके नागरिकों की संख्या कई करोड़ है वे भी लचीली ही सही ऐसी पूर्वनिर्धारित
भौगोलिक और राजनैतिक सीमाओं से बंधे हैं, जिनके परे एक दूसरे राष्ट्र की सीमा आरंभ हो जाती है। कोई भी राष्ट्र
मानवता का सहसीमावर्ती नहीं होना चाहता। विश्व का सबसे कृपालु राष्ट्र भी इस बात
की इजाज़त नहीं देगा कि किसी एक संभव तरीके से एक खास अवधि के लिए ही सही मानव जाति
के सभी लोग उसकी राष्ट्रीयता का अंग बन जाएँ। क्या ईसाई धर्म के सभी अनुयायी एक ही
ईसाई राष्ट्र की नागरिकता ले सकते हैं ?
राष्ट्र
को स्वायत्त इसलिए भी माना जाता है क्योंकि इस परिकल्पना का आविर्भाव उस युग में
हुआ जब ज्ञान और क्रांतिकारी आंदोलन दैवीय रूप से पदप्रतिष्ठित क्रमिक वंशवादी
शासन व्यवस्था का विरोध कर रहे थे। यह अवधारणा आधुनिक इतिहास के उस चरण में
परिपक्व हुई है जबकि हर वह निष्ठावान व्यक्ति,
जो किसी न किसी प्रचलित धर्म का अनुयायी था, इन धर्मों में कर्मकांडों की अधिकता,
उनके सात्विक दावों और क्षेत्र अधिग्रहण नीतियों के बार बार बदलते
रूपों को देख घबरा उठा था। एक स्वायत्त राष्ट्र की परिकल्पना ही इस समस्या का एक
मात्र समाधान और आश्वासन भी थी।
राष्ट्र को एक विशिष्ट समुदाय के तौर पर भी परिभाषित किया जा सकता है।
तमाम असमानता और शोषण के बावजूद राष्ट्र को एक गहरी,
समस्तरीय भाईचारे की भावना के साथ जोड़ा जा सकता है। अंततः यह वह बंधुत्व
की भावना है जो इसे पिछली दो सदियों से करोड़ों लोगों के लिए संभव बना रही है और
स्थायित्व प्रदान कर रही है। यह वही प्रेरणा है जो लोगों को दूसरों को मार डालने
से अधिक एक फंतासी पर मर मिटने के लिए उद्वेलित करती है।
राष्ट्रवाद के नाम पर होने वाली मौतें हमें राष्ट्रवाद से जुड़ी एक और
विकराल समस्या से रूबरू करातीं हैं। इतिहास के एक छोटे से हिस्से (मुश्किल से दो
शताब्दियों की समयावधि) में ऐसा क्या रहस्य है जो इतने प्रकांड रूप से इतने
प्राणों के बलिदान का कारण बना। मुझे विश्वास है कि इस प्रश्न का समाधान हमें
राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक आधार के अध्ययन से मिल सकता है ।
2॰ सांस्कृतिक आधार
आधुनिक राष्ट्रवादी संस्कृति के सबसे हैरतअंगेज़ प्रतीक हैं अज्ञात
सैनिकों की समाधियाँ और मकबरे । लोग इन स्मारकों को इसलिए भी सार्वजनिक सम्मान
देते हैं क्योंकि या तो ये बिलकुल खाली छोड़ दिये गए हैं या ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़
मरोड़ कर उस समय के किन्हीं और सैनिकों के नाम उन कब्रों पर लिख दिये गए हैं और असल
में कोई नहीं जानता कि उनके अंदर कौन सो रहा है। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर
लोग उनके बारे में जान जाएँ जिन्होंने न सिर्फ उन मरे हुए अज्ञात सैनिकों के नाम
ईज़ाद किए बल्कि खाली कब्रों में असली लगती अस्थियाँ भी डाल दीं तो क्या हो । लेकिन
यह सब करना व्यर्थ है क्योंकि भले ही देखने में ये मकबरे असली लगते नश्वर शरीरों
या अजर अमर आत्माओं के प्रतीक हों यथार्थ में ये
मनगढ़ंत और राष्ट्रवादी काल्पनिकता के अतिरेक भर हैं। (संभवतः इसीलिए
लगभग हर देश में ऐसे अनगिनत सैन्य मकबरे हैं जहां दफन सैनिकों की राष्ट्रीयता
संदेहजनक है और कभी स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं समझी गयी क्योंकि वे सैनिक
जर्मनी, अमरीका या अर्जेंटाइना कहीं के भी नागरिक हो सकते हैं।)
इन स्मारकों की सांस्कृतिक महत्ता एक और बात से सिद्ध हो जाती है। ज़रा
कल्पना कर के देखें, यदि
किसी मकबरे को किसी अज्ञात मार्क्सवादी नेता या पराजित उदरवादी नेता का मकबरा
बताया जा रहा है तो क्या यह उनकी मूर्खता नहीं है क्योंकि मार्क्सवाद और उदारवाद
दोनों में ही मृत्यु और अनश्वरता जैसी अतिवादी अवधारणाओं को महत्व नहीं दिया जाता
जब कि राष्ट्रवाद में देते हैं। राष्ट्रवादी फंतासी धार्मिक कल्पनाओं से गहरा
संबंध रखतीं हैं ।
जैसे मनुष्य की मृत्यु पूर्वनिर्धारित नहीं होती है उसकी नश्वरता भी
अनिवार्य है। मानव जीवन इस प्रकार की अनिवार्यताओं और संयोगों से भरा पड़ा है। हमें
हमारी आनुवांशिक विरासत, जीवन काल, लिंग, शारीरिक
क्षमताओं, मातृभाषा इत्यादि की आकस्मिकताओं और
अनिवार्यताओं के बारे में पूरी जानकारी रहती है। पारंपरिक धार्मिक वैश्विक मत की
यह विशेषता रही है कि वे मानव को एक प्रजाति की भांति, विश्व व्यवस्था के अभिन्न अंग की भांति और आकस्मिकता से परिपूर्ण
देखते हैं । ईसाई, बौद्ध
और इस्लाम धर्मों के कई हज़ार वर्षों से चले आ रहे असाधारण अस्तित्व और महत्ता ने
यह सिद्ध कर दिया है कि उन्होंने बड़े ही कल्पनाशील तरीके से लोगों को दुख-दर्द, रोगों, वृद्धावस्था और आपदाओं से बचने के सरल रास्ते सुझा दिये थे। धर्म के
पास मनुष्य की हर समस्या का उत्तर है जैसे- मैं जन्मांध क्यों हूँ ? मेरे सबसे अच्छे मित्र
को पक्षाघात क्यों हुआ? मेरी बेटी मंदबुद्धि क्यों हुई? इसके विपरीत मार्क्सवाद जैसे विकासवादी और प्रगतिशील मतों की सबसे
बड़ी दुर्बलता यह है कि वे इस तरह के सवालों का जवाब एक विचलित मौन से देते हैं।
धर्म तो आत्मा की अनश्वरता जैसे अस्पष्ट विषय पर भी सलाह दे सकता है, यह विचारधारा मृत्यु तक को आत्मा की
अमरता के परिप्रेक्ष्य (कर्म, पुराने पाप इत्यादि ) में पारिभाषित कर सकती है। देखा जाए तो धर्म
अपने आप को न केवल मृत और अजन्मे जीवन के बीच की कड़ी सिद्ध करता है, बल्कि पुनर्जन्म के रहस्यों को भी
मान्यता देता है। अपने बच्चे के गर्भाधान और जन्म के साथ एक विशेष जुड़ाव महसूस
करने के लिए आपको जीवन की भंगुरता और आकस्मिकता को आत्मा की निरंतरता के
परिप्रेक्ष्य में समझना बहुत ज़रूरी है । (पुनश्च : विकासवादी और प्रगतिशील
विचारधाराओं की बहुत हानि जीवन की निरंतरता की सोच से घोर शत्रुता रखने के कारण भी
हुई है)
मैंने एक निरपेक्ष मनःस्थिति में किए गए इस अवलोकन का उल्लेख यहाँ
इसलिए भी करना ज़रूरी समझा क्योंकि 18वीं सदी के आरंभ ने न केवल राष्ट्रवाद के उदय की घोषणा की वरन
धार्मिक विचार प्रणालियों के अस्त की सूचना भी दे दी थी। लेकिन ज्ञान, चेतना और राष्ट्रवादी -तार्किकता की यह शताब्दी अपने साथ बहुत सा
आधुनिक अंधकार और अज्ञान भी लेकर आयी थी धार्मिकता का ज्वार उतर जाने पर कष्ट और
विपत्तियों ने अपने साथ जो आस्थाएँ जोड़ लीं थीं उनका समापन नहीं हुआ। काल्पनिक
स्वर्ग की कल्पना तो छिन्न भिन्न हुयी किन्तु मृत्यु की आकस्मिकता और भय कम नहीं
हुए। मोक्ष के विचार की व्यर्थता सिद्ध हो जाने पर भी आत्मा की निरन्तरता जैसे
विचार की प्रासंगिकता तनिक भी कम नहीं हुई। बस यह हुआ कि इसी नश्वरता को अमरता में
और आकस्मिकता को परम अर्थ में बदलने के लिए एक धर्म निरपेक्ष मार्ग ढूंढ़ निकाला
गया। हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि राष्ट्रवादी विचारों से कहीं अधिक तो इन
धार्मिक व सामाजिक विचारों ने राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया है। अगर
राष्ट्रवादी राज्य यह मानते हैं कि वे एक साथ नूतन और पुरातन दोनों हो सकते हैं, तो जिन राष्ट्रों को वे अपनी
राजनैतिक अभिव्यक्ति का प्रतीक मानते हैं भला क्यों नहीं वे एक अतिप्राचीन इतिहास
और अनंत भविष्य के बीच झूलते रहेंगे। यही राष्ट्रवादिता का तिलिस्म है जो अनिश्चय
को नियति में पारिभाषित कर देता है। डेब्रे के साथ हम भी कह सकते हैं कि,“मेरा फ्रांसीसी होना एक संयोग हो सकता है लेकिन फ्रांस सार्वकालिक और
अविनाशी है।“
यहाँ मेरी मंशा यह धारणा स्थापित
करने की कतई नहीं है कि अठारहवीं शताब्दी में राष्ट्रवाद का आविर्भाव धार्मिक
विश्वासों के क्षय के कारण ही हुआ या अब इस धार्मिक क्षय का विस्तृत विश्लेषण नहीं
किया जाना चाहिए। मैं यह दर्शाने का प्रयास भी नहीं कर रहा हूँ कि राष्ट्रवाद ने
ऐतिहासिक रूप से धर्म
को पछाड़ दिया था बल्कि मेरा तात्पर्य तो यह है कि राष्ट्रवाद को पूरी तरह से समझने
के लिए हमें न केवल राष्ट्रवाद से सम्बद्ध और उस
पर आरोपित की गयी राजनैतिक विचारधाराओं को बल्कि उससे जुड़ी उन पूर्वकालिक वृहत
सांस्कृतिक व्यवस्थाओं को भी सुनियोजित विधि से समझना पड़ेगा- जिनके कारण
राष्ट्रवाद अस्तित्व में आया।
इस उद्देश्य से हम दो सांस्कृतिक
प्रणालियों का अध्ययन कर सकते हैं, धार्मिक समुदाय और वंशवादी राज्य व्यवस्था। इन दोनों के उत्थान के
समय में इन्हें उसी प्रकार का अतिमहत्व दिया गया था जैसा कि आज राष्ट्रवाद को दिया
जा रहा है। उन तथ्यों, जिन्होने
इन्हें युक्तिसंगत होने की अर्हता प्रदान की, की विवेचना तो आवश्यक है ही साथ ही साथ बाद में हुए उनके विघटन के
कारणों की चर्चा भी आवश्यक है।
धार्मिक समुदाय
विश्व के प्रमुख धर्मों के व्यापक क्षेत्रीय विस्तार (इस्लाम का
मोरक्को से सुलू आर्किपलेगो तक, बौद्ध धर्म का श्रीलंका से कोरिया प्रायद्वीप तक ईसाइयत का पैरागुए
से जापान तक) से बड़ा करिश्मा आज कोई नहीं हुआ है।
महान धार्मिक संस्कृतियों ने (जिनमें कन्फ़्यूशीवाद को भी शामिल कर लेना चाहिए)
विस्तृत समुदायों के निगमन की धारणा को जन्म दिया है। ईसाई जगत, इस्लामिक समुदाय और मध्य साम्राज्य जिसे आज हम चीन के रूप में जानते
हैं ने अपने आपको संसार का केंद्र बिन्दु ही समझा और उनका ऐसा सोचा जाना केवल इसलिए
संभव हुआ क्योंकि उनके पास अपनी दैवीय भाषाएँ और लिपियाँ थीं। एक उदाहरण से इसे
समझने का प्रयास करते हैं जब मगिनदानाओ मक्का में बर्बर से मिले तो दोनों ही एक
दूसरे की भाषा न समझ पाने की वजह से मौखिक रूप से बात चीत नहीं कर पाये, लेकिन उन्होने संकेतों या प्रतीकों
के सहारे आपसी संवाद क़ायम किया, क्योंकि उनके धर्मग्रंथ प्राचीन अरबी लिपि मे लिखे थे। इसका अर्थ यह
है कि प्राचीन अरबी लिपि भी चीनी लिपि की तरह प्रतीकों में आबद्ध की जाती थी न कि
ध्वनियों में, और उन सभी का मुख्य उद्देश्य एक
विशाल समुदाय विशेष का निर्माण करना था।
आधुनिक
काल्पनिक समुदायों और दैवीय भाषाओं के माध्यम से जुड़ी प्राचीन सभ्यताओं में एक
आधारभूत अंतर है। उन संस्कृतियों को अपनी दैवीय भाषाओं की श्रेष्ठता पर इतना
विश्वास था कि वे अपने समुदाय की सदस्यता
या स्वीकार्यता बाहरी व्यक्तियों या समूहों को सरलता से नहीं देते
थे। यह सांकेतिक भाषाएँ इतनी समर्थ और पूर्ण थीं कि अतीत में कई काल्पनिक और महान
समुदाय इनके माध्यम से ही आपस में जुड़े रहे। इनकी जो विशेषता आधुनिक यूरोपीय
समुदाय को विस्मित करती है वह है इन भाषाओं की, इन चिन्हों की वस्तुनिष्ठता। लैटिन, अरबी या चीनी भाषा के शब्दचित्र वास्तविक और व्यावहारिक थे, काल्पनिक या बेसिर पैर के चिन्ह नहीं । इसीलिए न केवल इन्हें एक नितांत अपरिचित विशाल जनसमुदाय सीख और पढ़ पाया
बल्कि इनके माध्यम से प्रचंड आस्थाएं और विश्वास विकसित हुए। हम सभी प्राचीन
ग्रन्थों में प्रयुक्त दैवीय भाषाओं और स्थानीय बोलियों की स्वीकार्यता की तुलना
में चले आ रहे विवादों से लंबे समय से परिचित रहे हैं। अभी कुछ समय पहले तक कुरान
को अनुवाद करने की इजाज़त नहीं दी गयी थी, क्योंकि अल्लाह के द्वारा बताया गया सत्य केवल निर्विकल्प और
अपरिवर्तनीय प्राचीन अरबी भाषा में ही अभिगम्य था । जहां एक भाषा के आधार पर इस
प्रकार का प्रथक्करण हो वहाँ सभी भाषाओं को एक सा महत्व देना या सभी भाषाओं के
शब्द व अभिव्यक्तियाँ परस्परिक विनिमय की योग्यता रखते हैं ऐसा विचार रखना ही
अकल्पनीय रहा होगा। सात्विक प्रणाली की यह आलोचना भी की जा सकती है कि यह केवल एक विशेषाधिकार प्राप्त
दैवीय भाषा के द्वारा ही ग्राह्य थी। लैटिन, अरबी या चीनी आदि सात्विक भाषाएँ धार्मिक स्वीकार्यता का आवश्यक
मापदंड थीं, और सात्विक भाषाएँ होने के नाते ये ऐसी प्रेरणा से रंजित थीं जो राष्ट्रवाद के लिए
सर्वथा अपरिचित थी। यह लालसा थी रूपान्तरण की, रूपान्तरण मात्र धर्मपरिवर्तन ही नहीं था बल्कि एक प्रकार का
अपरसायनिक परिवर्तन था जिसके तहत बर्बर और नास्तिक विश्व नागरिक “मध्य साम्राज्य (चीन)’, कट्टर मुस्लिम या सभ्य ईसाई कहे जाने लगे। सम्पूर्ण मानव प्रजाति ही
धार्मिक ग्राह्यता के लिए लचीली हो गयी। यह इस रूपान्तरण की ही सामर्थ्य थी कि एक
अंग्रेज़ ‘पोप’
कहलाया और एक मांचू ‘स्वर्ग का पुत्र’।
भले ही ये धार्मिक भाषाएँ ईसाई समुदाय जैसे विशाल समूहों के निर्माण
का प्रमुख माध्यम रही हों इन समुदायों के विस्तार और संभाव्यता को केवल इन भाषाओं
की उपलब्धता की कसौटी पर ही नहीं कसा जा सकता है क्योंकि मात्र मुट्ठी भर अनुयायी
ही इन्हें पढ़ और समझ सकते थे जबकि इन धर्मों में आस्था रखने वाले ऐसे असंख्य लोग
थे, जो इन लिपियों को पढ़-लिख नहीं सकते
थे। इस बिन्दु की पूरी व्याख्या के लिए हमें उन लिपियों के ज्ञाता, प्रकांड विद्वानों और तत्कालीन समाज से उनके सम्बन्ध का अध्ययन करना
होगा। इन्हें मात्र एक अध्यात्मवादी तकनीकी तंत्र भर समझ लेना भूल होगी। ये भाषाएँ
गूढ़ और दुर्बोध तो थीं पर उस तरह से गूढ़ और दुर्बोध नहीं जैसे वकालत या
अर्थशास्त्र की भाषा होती है, व्यावसायिक शब्दजाल से आपूर्ण और सामाजिक व्यावहारिकता से कोसों दूर।
ये धार्मिक भाषाविद उसी ब्रह्मांडीय श्रेणीक्रम में एक महत्वपूर्ण रणनैतिक स्थान
रखते हैं जिसमें सर्वोच्च स्थान ईश्वर का होता है। ऐसे में जब कि इन समुदायों का
आधारभूत स्वरूप ही समस्तरीय और सीमोन्मुख न होकर केंद्राभिमुख और श्रेणीक्रमिक
होता है तो वहाँ पोप आदि धार्मिक विद्वानों का अतिशय महत्व समझना कठिन नहीं है ।
पोप के पद की हतप्रभ कर देने वाली असीमित सत्ता को आप इस प्रकार समझ सकते हैं कि
चर्च की सत्ता और उत्थान के दिनों में इस द्विभाषी विद्वान (पोप) को स्वर्ग और
पृथ्वी के बीच संवाद क़ायम करने वाला परमशक्तिशाली व्यक्ति माना जाता था।
धार्मिक आधार पर खड़े
हुए इन समुदायों की पूरी शानो शौकत और वैभव के बावजूद उत्तरमध्ययुग के पश्चात उनकी
स्वाभाविक चमक दमक और ऐश्वर्य मंद पड़ने लगे। उनके इस पतन के प्रमुख कारणों में से
मैं केवल दो का ही यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा जो इन समुदायों की विलक्षण दैवीय
प्रकृति से सीधे सीधे संबन्धित हैं।
पहला, यूरोप
के बाहर के भूभागों की खोज का प्रभाव जिसने यद्यपि अकेले नहीं किन्तु प्रधानतः यूरोप के न केवल सांस्कृतिक और
भौगोलिक क्षितिज का विस्तार किया बल्कि मानव जीवन अपने कितने विविध रूपों में
पृथ्वी पर उपस्थित है इस सोच को भी विकसित किया। मध्ययुग के कई प्रकार के अंधविश्वास
और पूर्वाग्रह नष्ट भ्रष्ट हो गए।
दूसरा, दैवीय
भाषाओं का स्वतः क्रमिक ह्रास। मध्यकालीन यूरोप के विषय में ब्लौच लिखते हैं, “लैटिन शिक्षा का एकमात्र
माध्यम नहीं थी, यह
वह एकमात्र भाषा थी जिसे पढ़ाया जा रहा था।“
यह दूसरा ‘एकमात्र’ शब्द भाषा की दैवीयता और अपरिहार्यता को दर्शाता था। कोई अन्य भाषा
पढ़ाये जाने योग्य ही नहीं समझी जाती थी। लेकिन सोलहवीं शताब्दी आते आते यह सब तेज़ी
से बदलने लगा। इस विषय में प्रिंट पूंजीवाद की भूमिका आगे वर्णित की जाएगी। हमें
प्रिंट माध्यम के विकास का पैमाना और गति नहीं भूलनी चाहिए। फेब्वर और मार्टिन यह
अंदाज़ा लगते हैं कि सन 1500 से पहले छपी कुल किताबों में से 77%
लैटिन भाषा में थीं (लेकिन इसका मतलब यह भी है कि तब तक 23% पुस्तकें आम बोलचाल या मातृभाषा में छप चुकी थीं)। फ्रांस में 1501 में छपे 88
पुस्तकीय संस्करणों में से 80
लैटिन में थे लेकिन सन 1575 के बाद अधिकांश किताबें फ्रेंच भाषा में छपने लगीं थीं। प्रतिसुधार
के दौर में लैटिन ने वापसी का एक क्षीण प्रयास अवश्य किया लेकिन शीघ्र ही लैटिन
भाषा के एकछत्र प्राधान्य का सूर्य अस्त हो गया। केवल लोकप्रियता के दृष्टिकोण से
ही नहीं बहुत तेज़ी से बदलते बौद्धिक परिदृश्य में भी कुछ ही समय बाद लैटिन
विद्वानों और लेखकों की भाषा भी नहीं रह गयी। हौब्स (1588-1678)
सत्रहवीं शताब्दी में प्रायद्वीप का एक सुविख्यात लेखक माना जाता था
क्योंकि वह सात्विक (लैटिन) भाषा में लिखता था। जबकि शेक्सपियर (1564-1616) जो मातृभाषा अंग्रेज़ी
में लिखते थे उस क्षेत्र में अपनी कोई पहचान नहीं बना सके थे। और अगर दो सौ साल
बाद अंग्रेज़ी एक वृहद औपनैवेशिक साम्राज्य की प्रधान भाषा न बन गयी होती तो आज भी शेक्सपियर
उसी गुमनामी में खोये रहते। इन दोनों महानुभावों के लगभग समकालीन डेकार्ट (1596-1650) और पास्कल (1623-1662) का अधिकतर लेखन लैटिन
भाषा में था जबकि वोल्टेयर (1694-1778) का सभी कार्य वर्णाकुलर (स्थानीय भाषा) में था। 1640 के बाद जब लैटिन भाषा में पुस्तकें
छपनी लगभग बंद हो गईं और आम भाषा में अधिक से अधिक लेखन होने लगा तो लैटिन भाषा का
प्रकाशन एक विशाल अंतर्राष्ट्रीय उपक्रम बनने से वंचित रह गया। दूसरे शब्दों में
कहें तो लैटिन भाषा के पतन से वैश्विक परिदृश्य में बड़े भारी परिवर्तन और उथल पुथल
हुए। वे धार्मिक समुदाय जो दैवीय भाषा लैटिन के माध्यम से एक दूसरे से जुड़े हुए थे, छिन्न- भिन्न, विघटित और विभाजित हो गए।
वंशवादी राज्य
आज के युग में तो, वंशवादी परंपरा की एकमात्र राजनैतिक व्यवस्था की तरह कल्पना भी कठिन है , क्योंकि इसका अन्य सभी आधुनिक राजनैतिक प्रणालियों से आड़ा या तिर्यक संबंध रहा है। राजशाही अपने आसपास की सभी वस्तुओं को उच्च सत्ता केंद्र से नियंत्रित करती है। इसकी वैधता एक दिव्यता से उत्पन्न होती है, जनता से नहीं, क्योंकि उनके लिए अंततः वह प्रजा है नागरिक नहीं । राज्य निर्विवाद रूप से अपने इंच- इंच क्षेत्र में वैध रूप से स्वायत्त है। तब राज्य केंद्र द्वारा पारिभाषित थे, उनकी सीमाएं छिद्रयुक्त व अस्पष्ट थीं और राज्यों की स्वायत्तता अगोचर रूप से एक दूसरे में संविलीन होती थी। इसीलिए पूर्व आधुनिक काल के साम्राज्यों तथा राजतंत्रों की शासन व्यवस्था की यह असंभाव्यता आश्चर्यचकित करती है कि उन्होंने बड़ी सहजता के साथ एक अत्यंत विषमरूप तथा छितरी हुई जनसंख्या पर शासन कर लिया। इन प्राचीन राजतांत्रिक राज्यों का विस्तार केवल युद्धों के माध्यम से ही नहीं वरन स्त्री पुरुष यौनिक सम्बन्धों के माध्यम से भी होता था। वे प्रथाएँ आजकल प्रचलित यौनिक प्रथाओं से बहुत भिन्न थीं। शीर्षता के सामान्य नियमों के अंतर्गत ये वंशवादी विवाह अत्यंत भिन्न प्रकार की जनसंख्या को एक ही सत्ता के अधीन ले आते थे। इन क्षेत्रों में बहुपत्नीवाद धार्मिक रूप से मान्य था फिर भी राज्य के संगठन के लिए त्रिस्तरीय उपपत्नीत्व या रखैल प्रथा व्यवस्था का आवश्यक अंग थी। देखा जाए तो राजसी वंशावलि की प्रतिष्ठा बनाए रखने में दिव्यता के अतिरिक्त वर्णसंकरता (नस्लों की मिलावट) का बड़ा योगदान था। इस प्रकार की मिलावट व्यक्ति और वंश की ऊँची हैसियत के प्रतीक थे। यही कारण है कि इंग्लैंड में 11वीं शताब्दी से अब तक किसी शुद्ध अंग्रेज़ी वंश का राज नहीं रहा है। बौरबोन जो फ्रांस और स्पेन दोनों के ही शासक और राजपरिवार थे कहाँ के मूल नागरिक माने जाएंगे? संक्षेप में कहा जाए तो आज के नागरिकता नामक राष्ट्रवादी प्रत्यय का उन दिनों कुछ विशेष अस्तित्व और महत्व नहीं था। सत्रहवीं शताब्दी में पश्चिमी यूरोप में धर्म पर आधारित राजशाही की शाश्वत वैधता का ह्रास होने लगा। सन 1649 में आधुनिक विश्व की पहली उल्लेखनीय क्रांति में चार्ल्स स्टुअर्ट का सिर कलम कर दिया गया। वहीं 1650 में यूरोप के कुछ महत्वपूर्ण राज्यों में शासकों के बजाय जनप्रतिनिधि राज-काज सम्हालते दिखाई दिये। इस सबके बावजूद पोप और ऐडीसन के काल तक उन्होंने सिंहासन पर अपना आधिपत्य नहीं छोड़ा। एने स्टुअर्ट अब भी शाही स्पर्श द्वारा रोगियों की चिकित्सा का दावा कर रहे थे। इस पुरातन शासन व्यवस्था के बिलकुल खत्म हो जाने के बहुत बाद तक बोरर्बोन, लुईस पंद्रह और सोलह प्रबुद्ध फ़्रांस में इसी प्रकार लोगों की दैवीय चिकित्सा सम्पन्न कर रहे थे। लेकिन 1789 के बाद इन सबको विवशतः वैधता के सिद्धान्त का औचित्य स्पष्ट करना पड़ा, और इस पूरी प्रक्रिया में राजतंत्र एक अर्ध-मानकीकृत तंत्र और प्रतिमान बन कर रह गया। सुदूर सिआम राज्य के राम पंचम ने अपने पुत्रों और भतीजों को विश्व प्रतिमानों की पेचीदगियाँ सिखाने के लिए उन्हें सेंट पीत्स्बर्ग, लंदन और बर्लिन के दरबारों में भेजा। अब समय आ गया था कि शासन करने के लिए एक शासक के बतौर अपनी योग्यता और वैधता सिद्ध की जाए। 1887 में राम पंचम ने कानूनी ज्येष्ठाधिकार के आधार पर उत्तराधिकार के प्रयोजनीय सिद्धान्त की स्थापना और घोषणा की, इस प्रकार उसने सिआम को तत्कालीन यूरोप के सभ्य और प्रबुद्ध राजतंत्रों की कतार में ला खड़ा किया। लेकिन इसी नयी शासन प्रणाली ने सिआम के सिंहासन पर एक ऐसे विचित्र समलैंगिक व्यक्ति को ला बैठाया जिसे इससे पहले की चयन व्यवस्था में एक शासक के तौर पर कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता था। हालाँकि राम सष्ठम के बतौर हुए उसके राज्याभिषेक समारोह में उपस्थित रहकर इंग्लैंड, रूस, डेन्मार्क, ग्रीस और जापान आदि देशों ने उसके चयन और राज्याधिरोहण के निर्णय को अंतरराजतांत्रिक सहमति दे दी थी।
1914 तक विश्व के राजनैतिक
परिदृश्य में वंशवादी राज्यों ने बहुलता हासिल कर ली थी। लेकिन चूँकि ये प्राचीन
व्यवस्थाएँ कालविरूद्ध होती जा रहीं थीं, बहुत से राजतंत्र खामोशी से राष्ट्रवाद की तरफ बढ़ रहे थे।
कालिक आशंकायें
यह अदूरदर्शिता ही कहलाएगी यदि हम राष्ट्रों के अमूर्त समुदायों को
मात्र धार्मिक व्यवस्था और वंशवादी शासन प्रणाली के और विकसित रूप या विकल्प भर
मान लें। धार्मिक समुदायों, भाषाओं और वंशावलियों के पतन के साथ दुनिया के अनुभवों और तरीकों में
एक आधारभूत परिवर्तन शनै शनै आ रहा था, और इसी एक तथ्य ने राष्ट्रवाद की अवधारणा को सबसे अधिक पुष्ट किया।
इस तथ्य को पूरी तरह समझने के लिए हमें धार्मिक समुदायों से संबन्धित
दृश्य सामग्री को ध्यान पूर्वक देखना होगा। उनमें से कुछ हैं मध्यकालीन गिरजाघरों
की चित्रकारी की हुई काँच की खिड़कियाँ या इटली के तत्कालीन चित्रकारों की प्रसिद्ध
कलाकृतियाँ । सबसे अधिक भ्रामक जानकारी जो इन कलाकृतियों से मिलती है वह यह है कि
इन दैवीय चरित्रों की वेश भूषा का आधुनिक युगीन वेषभूषा से बहुत साम्य है।
ईसा मसीह की कहानी के पात्रों के चेहरे, वेश भूषा और शारीरिक संरचना तक आधुनिक युगीन दिखा दिये गए हैं। आज ये
बातें हमें असंगत लग रही हैं लेकिन एक मध्ययुगीन धार्मिक अस्थावान को ये सब
स्वाभाविक दिखता था। हम एक ऐसी दुनिया से सम्बद्ध हैं जहां फंतासी और कल्पना के
दृश्य और श्रव्य माध्यमों को अतिवादी रूप में प्रस्तुत किया गया है। ईसाइयत ने
अपना वैश्विक महत्व अनेक प्रकार के विशिष्ट प्रतीकों और ब्यौरों के जरिये अर्जित
किया है, ऐसी नक्काशी, वैसी खिड़की, ऐसे धर्मोपदेश, वह कथा, यह
नैतिक ज्ञान, वह पुरावशेष इत्यादि इत्यादि। विशेष
तौर पर अनपढ़ जनता में धर्म प्रचार करने के लिए आकर्षक व प्रभावशाली दृश्य और श्रव्य साधनों का बहुत योगदान
रहा है। एक अतिसाधारण मानव, पादरी, जिसकी
योग्यताओं के अलावा उसके पूर्वजों के अच्छे बुरे इतिहास और दुर्बलताओं का आम लोगों
को पूरी तरह ज्ञान था,
को आश्चर्यजनक ढंग से ईश्वर और उसके उपासकों के बीच की एकमात्र कड़ी घोषित कर दिया
गया। दैवीय- सार्वभौमिक और सांसारिक वास्तविकताओं का यह विरोधाभास, यह तुलना, इस बात को सिद्ध करते हैं कि भले ही ईसाई धर्म की प्रभुता का कितना
भी विस्तार हो गया हो वे अपनी पहचान बिलकुल आम प्रजा के साथ बनाना चाहते थे, अपना तादात्म्य स्थापित रखना चाहते
थे। मध्ययुगीन ईसाई विचारधारा समय को एक अंतहीन कारक और प्रभाव श्रंखला के तौर पर
नहीं देखती है न ही वह अतीत और वर्तमान में किसी प्रकार के अकस्मात एवं आमूल
व्यवधान स्वीकार करती है। ब्लौच के अनुसार, “वे लोग ईसामसीह के निकटवर्ती पुनरागमन की प्रतीक्षा में स्वयं को समय
के अंतिम छोर पर खड़ा मानते हैं। वे जैसे ही धार्मिक जीवन की ओर अग्रसर होते हैं
मानव जाति के लंबे व सम्पन्न भविष्य की आशा व कल्पना से उनका विश्वास हट
जाता है।“ उनकी समकालीनता का विचार हमारी समझ से सर्वथा भिन्न है। बेंजामिन के
अनुसार ईसाई आस्थावान समय को ‘मसीहाई समय’ के परिप्रेक्ष्य में ही देख पाते हैं, जिसमें अतीत और भविष्य समकालिक प्रवृत्ति के होते हैं और वर्तमान
तात्क्षणिक स्वभाव का। जब घटनाओं को और काल को इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो ‘इस बीच’ या ‘इस
दौरान’ जैसे शब्दों का कोई सापेक्षिक अर्थ
नहीं रह जाता है।
समकालिकता के बारे में हमारे अपने विचार बहुत समय से निर्माणाधीन
हैं। इसकी उत्पत्ति निश्चित तौर पर अधिक निरपेक्ष वैज्ञानिक विषयों से सम्बद्ध है, लेकिन यह इतना महत्वपूर्ण कारक है
कि इसका अध्ययन किए बिना हम राष्ट्रवाद को पूरी तरह से समझ नहीं पाएंगे। मध्यकाल
के समय के साथ समकालिकता को ही बेंजामिन ने ‘सजातीय रिक्त काल’ कहा है। समकालिकता को घड़ियों व कैलेंडर की सहायता से मापा जाता है यह
समस्तरीय होती है, इसे
आत्मसंतोष या संवेगों द्वारा नहीं बल्कि अस्थायी संयोगो के माध्यम से याद रखा जाता
है। यदि हम जानना चाहते हैं कि राष्ट्र नाम के अमूर्त समुदाय की उत्पत्ति के लिए
इस प्रकार के रूपान्तरण की क्या आवश्यकता पड़ी तो पहले हमें इस फंतासी या विचार के
उन दो स्वरूपों की आधारभूत संरचना को जानना पड़ेगा जिनका यूरोप में पहली बार
अठारहवीं शताब्दी में आगमन हुआ, वे थे , उपन्यास
और अखबार। इन दोनों ने राष्ट्र की अवधारणा को प्रस्तुत करने के तकनीकी साधन मुहैया
किए। यदि हम पुराने जमाने के उपन्यासों के ढांचे को याद करें तो पाएंगे कि (केवल
बालज़ाक की श्रेष्ठ कृतियों को ही नहीं बल्कि सस्ते साधारण उपन्यासों की संरचना को
भी) तो पाएंगे कि ये उपन्यास स्पष्ट रूप से ‘सजातीय रिक्त काल’ की प्रस्तुति के बढ़िया माध्यम हैं। इसके कई पात्र एक दूसरे के
अस्तित्व से अनभिज्ञ हैं, केवल लेखक और पाठक (ईश्वर की तरह) उनके विषय में पूरी जानकारी रख रहे
हैं।
जब
एक सामाजिक जीव कैलंडर की तारीखों के अनुसार अपने दिन व्यतीत करता है तो ‘सजातीय रिक्त समय’ की अवधारणा अस्तित्व में आ जाती है
जो कि राष्ट्र की अवधारणा के सादृश्य और अनुरूप है। इसे ऐसे भी सोचा जा सकता है कि
एक मूर्त समुदाय इतिहास में ऊपर या नीचे की ओर व्यवस्थित रूप से एक साथ बढ़ रहा है।
अमरीका का एक नागरिक अपने पूरे जीवनकाल में अधिक से अधिक कुछेक हज़ार लोगों को छोड़
कर वहाँ के करोड़ों अन्य नागरिकों से कभी नहीं मिलता। उसे इस बात का कोई अनुमान
नहीं है कि वे सब किसी एक क्षण विशेष में क्या करने की सोच रहे हैं या क्या करने
जा रहे हैं। लेकिन उसे उनकी पूर्णतः अविचल, अनाम,
अज्ञात समकालीन गतिविधियों का पूरा अनुमान है। वे एक दूसरे के विषय में नहीं जानते
हैं अतः उनका पारस्परिक संबंध एक उपन्यास के पात्रों की तरह ही काल्पनिक है और इसी
प्रकार राष्ट्र की अवधारणा भी।
कई
उपन्यासों के कथानक और अखबार की खबरों को पढ़कर यह निष्कर्ष निकलता हैं कि काल्पनिक संपर्क परोक्ष
रूप से सम्बद्ध स्त्रोतों से जन्म लेता है। उदाहरण के तौर पर, एक बहुत ही सामान्य सा समय से संबन्धित आंकड़ा लेते है जिसमें एक अखबार
के शीर्ष पर छपी हुई तारीख- सबसे महत्वपूर्ण सूचना–
इसी व्यवस्थित, अग्रगामी ‘समजातीय रिक्त काल’ की ओर इंगित करती है। अखबार इस प्रकार की समजातीय क्रिया का एक सटीक
उदाहरण हैं, जहाँ एक निश्चित कालखंड में संसार एक ही समाचार पढ़ते हुए एक ही गति
से आगे बढ़ रहा है। इस बीच अखबार की उस खबर का कोई पात्र यदि मर जाए या कोई स्थान
किसी आपदा से नष्ट हो जाए तो पाठक अगली खबर पढे बिना इसके विषय में जान नहीं
पाएंगे। उनके लिए वह पात्र और वह स्थान अपरिवर्तित रूप में सदैव अखबार के उस समाचार
का हिस्सा ही बने रहेंगे।
अखबारों को आप ‘वन डे बेस्ट सेलर्स’ भी कह सकते हैं। समाचारपत्र को पढ़ना बड़े पैमाने पर आयोजित किए गए एक
समारोह जैसा ही होता है। लगभग एक ही समय में वृहत स्तर पर किया गया समकालिक उपभोग।
हमें पता रहता है कि किसी अखबार का पूर्वनिर्धारित सुबह का या सांध्य कालीन
संस्करण मुख्यतः इतने बजे से इतने बजे के बीच उसी दिन पढ़ा जाता है। हेगेल के
अनुसार समाचारपत्र सुबह की प्रार्थनाओं की वैकल्पिक क्रिया है, जिसे एकांत में मस्तिष्क की परतों
के भीतर सम्पन्न किया जाता है। यहाँ विरोधाभास यह है कि प्रार्थनाएँ समूहों में की
जातीं हैं फिर भी हम एकसमय में एक छोटे समूह के बारे में ही जान पाते हैं जबकि
समाचारपत्र एकांत में पढे जाते हुए भी, फिर भी हम यह जानते हैं कि ठीक इसी दिन इसी वक़्त हमारे जैसे करोड़ों
लोग, जिनकी पहचान का हमें ज़रा भी भान
नहीं है फिर भी जिनके अस्तित्व पर हमें पूरा विश्वास है यही गतिविधि कर रहे होंगे।
और यही क्रिया प्रतिदिन एक निश्चित अंतराल पर कैलेंडर के अनुसार दोहराई जाती है।
एक ऐतिहासिक रूप से नियंत्रित, धर्म निरपेक्ष, काल्पनिक समुदाय का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है। अखबार का
पाठक हर दिन कई जान पहचान के या अपने जैसे लोगों को वही अखबार पढ़ते देख कर
आश्वासित हो जाता है कि यह काल्पनिक संसार उसके दैनिक जीवन में गहराई से आरोपित
है। घटनाएँ वास्तविक परिदृश्य में इस खामोशी और निरंतरता से धीरे धीरे रिसते हुए
प्रवेश करतीं हैं, कि
वे अज्ञातता में भी एक समुदाय की उपस्थिती का अद्भुत विश्वास रच देतीं हैं और यही
आधुनिक राष्ट्रों के अस्तित्व की सच्ची बानगी है ।
इस पूरे आलेख को संक्षेप में
दोहराया जाए तो राष्ट्रवाद की परिकल्पना की संभावना की ऐतिहासिक रूप से शुरुआत तब
हुई जब, और जहां तीन आधारभूत, प्राचीन सांस्कृतिक धारणाओं ने
मनुष्य के मस्तिष्क को अपनी स्वयंसिद्ध जकड़ से मुक्त किया। पहली धारणा यह थी कि एक
विशिष्ट लिपि ने लोगों को सात्विक या दैवीय सत्य तक पहुँचने का विशेषाधिकार दे दिया
है, इन भाषाओं को उसी दैवीय सत्य का एक
अंग माना जाता था। इन भाषाओं ने एक बड़े भूभाग के लोगों को धार्मिक भ्रातृत्व की भावना
जैसे ईसाइयत, इस्लाम और मध्य साम्राज्यवाद से
बांधे रखा ।
दूसरा विश्वास यह था कि समाज स्वाभाविक रूप से उच्च सत्ता केन्द्रों
अर्थात राजतंत्र के आस पास व्यवस्थित है, ये शासक सामान्य मनुष्यों जैसे नहीं थे और इन्हें अपनी प्रजा पर शासन
करने के लिए कुछ विशिष्ट और दैवीय शक्तियाँ ईश्वरप्रदत्त थीं । मनुष्य की स्वामिभक्ति
स्वाभाविक तौर पर सत्ताभिमुख और केंद्राभिमुख होती है, क्योंकि दैवीय लिपि की तरह शासक भी प्रजा के अस्तित्व और स्वीकार्यता
का आवश्यक और अंतर्निहित अंग है।
तीसरा
कारक जो समाप्त हुआ वह सामयिक प्रकृति का था जिसमें ब्रह्मांड विज्ञान और इतिहास
मिले जुले थे। संसार का आरंभ व मानव की सामयिक आधार पर एकरूपता। संयुक्त रूप से इन
तीनों विचारों ने मनुष्य में मात्र सामुदायिक भावना और विचार का विकास ही नहीं
किया था बल्कि जीवन की रोज़मर्रा की आपदाओं से निबटने की सामर्थ्य भी प्रदान की थी, जिनमें मृत्यु, हानि और दासता प्रमुख थे ।
पहले पश्चिमी यूरोप में फिर विश्व के दूसरे स्थानों पर मानव जीवन में
आर्थिक परिवर्तनों के चलते परस्पर सम्बद्ध इन तीनों निश्चिंतताओं का धीरे धीरे ह्रास
होने लगा। अविष्कारों ने और तेज़ी से विकसित होते संचार माध्यमों ने ब्रह्मांड
विज्ञान और इतिहास के बीच एक गहरी खाई खोद दी। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि
भ्रातृत्व की भावना को पुनर्जागृत करने के
लिए और सत्ता और समय को सार्थक तरीके से जोड़ने के नए तरीकों की खोज जारी थी। इस
खोज को, इस आवश्यकता को सबसे अधिक अर्थवान बनाया, सबसे अधिक गति प्रदान की प्रिंट –पूंजीवाद ने। जिसने तेजी से विकास करते लोगों को गंभीरतापूर्वक स्वयं
के बारे में सोचने योग्य बनाया और स्वयं को दूसरों से जोड़ने योग्य भी ।
3. राष्ट्रीय चेतना का
आविर्भाव
प्रिंटिंग के एक उपभोक्तावादी
सुविधा के रूप में विकसित होते ही समकालिकता के विचारों की एक नयी पीढ़ी का उदय हुआ
। हम अंततः उस बिन्दु पर हैं जहां ‘क्षैतिज-निरपेक्ष, आड़े (ट्रांसवर्स) – काल’ की अवधारणा संभव हुई।
इस अवधारणा के विकास में उन विविध एवं जटिल कारकों का समावेश हुआ जिनके आधार पर
पूंजीवाद की प्रधानता को और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।
वर्ष 1500 तक तकरीबन 2 करोड़ किताबें छप चुकीं
थीं। यह इस बात का स्पष्ट संकेत था कि बेंजामिन द्वारा प्रतिपादित ‘यांत्रिक पुनरुत्पादन
युग’ की शुरुआत हो चुकी थी। यदि प्राचीन पाण्डुलिपिबद्ध ज्ञान
दुर्लभ और रहस्यमय था तो छपे हुए ज्ञान की विशेषता पुनरुत्पादन और प्रसारण में
निहित थी । अगर हम फ़ेब्वर और मार्टिन की यह बात मान कर चलें कि सन 1600 तक दो करोड़
पुस्तकों की छपाई हो चुकी थी तो हमें फ्रांसिस बेकन के इस कथन का अर्थ समझ में आ
जाएगा कि ‘प्रिंटिंग ने विश्व की स्थिति और
प्रतीति दोनों बदल कर रख दिये’।
पूंजीवाद के अंतर्गत बाज़ारों की
आतुर खोज की नब्ज़ को इसी प्राचीनतम पूंजीवादी उद्यम यानि छपाई ने ही सबसे पहले और
सबसे अच्छी तरह पकड़ा था। शुरुआती व्यवसायियों ने पूरे यूरोप में छापाखाने खोल
दिये। इस प्रकार प्रकाशनगृहों के प्रारंभिक अंततराष्ट्रीय उपक्रमों का उदय हुआ
जिन्होंने ‘राष्ट्रीय-सीमाओं’ की अवधारणा को लगभग
नकार सा दिया। और चूंकि सन 1500 से 1550 तक की अवधि यूरोप की असाधारण संपन्नता की
अवधि मानी जाती है, छपाई के धंधे ने भी अपने हिस्से का
व्यापारिक उत्कर्ष पा लिया। किसी भी और समय की तुलना में पूंजीवाद प्रधान इस काल में
यह छपाई उद्योग एक बहुत समृद्ध व शक्तिशाली उद्यम के रूप में विकसित हुआ। युग की
प्रकृति के अनुसार पुस्तक विक्रेता किताबें बेचकर मुनाफा कमाने पर ही केन्द्रित थे
और इसीलिए उन्होंने ऐसे लेखन को छापना ही श्रेयस्कर माना जो लोकप्रिय था तथा जिसके
तात्कालिक खरीदार अधिक थे ।
यूरोप ही इनका शुरुआती बाज़ार था, जो अब भी वृहद रूप से लैटिन
पाठकों से आच्छादित था। इस बाज़ार को पूर्णतः संतृप्त होने में तकरीबन 150 वर्ष और लग
गए। धार्मिक पुस्तकों की भाषा होने के साथ साथ लैटिन भाषा की व्यावसायिक सफलता में
गिरावट का एक और निर्धारक तत्व इसके पाठकों का द्विभाषी होना भी था। यह बहुत कम
लोगों की मातृभाषा थी, और उससे भी कम लोगों की बोलचाल या
सोचने विचारने की भाषा थी। सोलहवीं शताब्दी के यूरोप में अपनी मातृभाषा के साथ
लैटिन का ज्ञान रखने वाले द्विभाषी लोगों की तादाद मुट्ठी भर ही रह गयी, लगभग उसी अनुपात में
जिसमें आज यह दुनिया भर की जनसंख्या के सानुपातिक हैं। आगे आने वाली शताब्दियों
में सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता के आगमन की स्पष्ट आहट के बावजूद –आबादी का एक बड़ा हिस्सा एक-भाषा-भाषी ही रहा। पूंजीवादी
प्रकाशकों की यह सोच तथा योजना थी कि लैटिन पाठकों के संभ्रांत बाज़ार के चुक जाने
के बाद एक-भाषा-भाषी पाठकों के वृहद बाज़ार पर पूरा ध्यान केन्द्रित किया जा सकता
है, और ऐसा ही हुआ। बीच में प्रतिसुधार विचारधारा ने
लैटिन भाषा की लोकप्रियता की पुनर्स्थापना के जोरदार तात्कालिक प्रयास किए लेकिन सत्रहवीं
शताब्दी के मध्य तक यह आंदोलन ठंडा पड़ गया
और कैथोलिक पुस्तकालय पुस्तकों और उत्साह से लगभग रिक्त हो गए। इसी बीच आर्थिक
गिरावट के चलते समूचे यूरोप में प्रकाशकों ने साधारण बोलचाल की स्थानीय भाषाओं में
छपी पुस्तकों के अधिकाधिक सस्ते संस्करण बाज़ार में उतार दिये।
स्थानीय भाषाओं के क्रांतिकारी हमले
के अलावा पूंजीवाद को और अधिक बढ़ावा तीन बाह्य लेकिन अपेक्षाकृत अप्रासंगिक कारकों
से मिला जिनमें से दो तो प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय चेतना के अभ्युदय में भी सहभागिता
रखते हैं। पहला और लगभग महत्वहीन कारक था लैटिन भाषा की प्रकृति में स्वाभाविक परिवर्तन।
धन्य थे वे महानुभाव जिन्होंने न केवल ईसा पूर्वकालीन प्राचीन साहित्य को
पुनर्जीवित किया बल्कि उन्हें प्रकाशकों को मुहैया भी कराया। पूरे यूरोप के
बौद्धिक जगत में इस प्राचीन साहित्य की परिष्कृत शैलीगत उपलब्धि के प्रति आकर्षण व
लगाव उत्पन्न हो गया। लेकिन जो लैटिन वे अब लिख रहे थे वह पहले की तुलना में अधिक परिष्कृत
थी, और इसी कारण यह दैनिक बोलचाल व धार्मिक व्यवहार से
दूर होती चली गयी। इसने धीरे धीरे एक गूढ़ रूप धारण कर लिया जो मध्यकाल में
गिरिजाघरों में प्रयुक्त सहजगम्य लैटिन से तुलनात्मक रूप से बहुत भिन्न थी।
प्राचीन लैटिन अपनी विषयवस्तु या शैली के कारण नहीं बल्कि कठिन लिप्य रूप में
उपलब्ध होने के कारण गूढ़ और अगम्य मानी जाती थी। यह एक जटिल लेखन माध्यम के रूप
में देखी जाती थी। लेकिन अब यह अपनी विषयवस्तु और अंतर्निहित भाषा विन्यास के कारण
गूढ़ और जटिल हो गयी थी।
दूसरा कारक था सुधार का प्रभाव, जिसके विकास में भी
प्रिंट पूंजीवाद का बहुत बड़ा योगदान रहा है। प्रिंटिंग के चलन और बहुलता में आने
से पहले रोम अपनी गुप्त व आंतरिक संचार व्यवस्था के चलते अपने विरोधियों से सभी
युद्ध जीतता था। जब 1517 में जर्मनी में मार्टिन लूथर ने कैथोलिक चर्चों के लालच व
भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाई और अपनी शिकायतों की एक सूची विटेन्बर्ग के
गिरिजाघर के दरवाजे पर चस्पाँ कर दी तो प्रिंटिंग के माध्यम से वे 15 दिनों के
भीतर देश के कोने कोने में पहुँच गयीं। सन 1500 से 1520 के बीच जर्मनी में जितनी
पुस्तकें प्रकाशित हुईं अगले दो दशकों में उससे तीन गुना अधिक पुस्तकों का प्रकाशन
हुआ, एक आश्चर्यजनक परिवर्तन , निस्संदेह, जिसके जनक मार्टिन
लूथर थे। उस समय (1518 और 1522 के बीच) की लगभग एक तिहाई जर्मन भाषा की पुस्तकें
मार्टिन लूथर की उपलब्धियों का दर्पण हैं , जिनमें से तकरीबन 430
तो उसके द्वारा किए गए बाइबल के जर्मन भाषा में अनुवाद के संस्करण थे। ‘पहली बार हमारा परिचय इतने
बड़े पाठकवर्ग और वृहद्व्यापी, लोकप्रिय साहित्य से
हुआ है।‘ इस प्रकार मार्टिन लूथर इतिहास में
प्रथम बेस्ट सेलर लेखक हुए, दूसरे शब्दों में, पहले ऐसे लेखक जिनके
नाम से ही किताबें बिक जातीं थी।
जल्दी ही यूरोप के दूसरे देशों में
लूथर के अनुगामी उत्पन्न हो गए, और उन्होने धार्मिक
पाखंड के खिलाफ बड़े पैमाने पर शाब्दिक व साहित्यिक युद्ध छेड़ दिया, जो अगली शताब्दी में
भी जारी रहा।
बौद्धिकता के इस युद्ध में
प्रोटेस्टेंट मूलतः आक्रामक भूमिका में रहे क्योंकि वे पूंजीवाद के द्वारा विकसित
किए गए स्थानीय भाषाओं के प्रकाशन बाज़ार का पूर्ण रूपेण दोहन करना चाहते थे। जबकि
प्रतिसुधारवादी लैटिन भाषा के ढहते गढ़ की रक्षा करना चाहते थे। वेटिकन की ‘ इंडेक्स लिबरोरम
प्रोहिबिटोरम’, इस विचारधारा की सबसे बड़ी प्रतीक
चिन्ह थी – जिसका कोई प्रोटेस्टेंट समकक्ष नहीं हो पाया। 1535 में फ्रैंकोइस प्रथम
द्वारा किसी भी पुस्तक के प्रकाशन पर लगाए गए प्रतिबंध से इस अवरोध की मानसिकता को
और भी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है- अवज्ञा का दंड फांसी थी। उसके राज्य की
पूर्वी सीमा पर प्रोटेस्टेंट रियासतों का जमावड़ा और उनके द्वारा वृहत पैमाने पर
प्रतिरोधी पुस्तक सामग्री की तस्करी इस प्रकार के प्रतिरोधों और उनकी
अप्रवर्तनीयता का प्रमुख कारण था। यदि जेनेवा की तत्कालीन स्थिति पर विचार किया
जाए तो 1533 और 1540 के बीच केवल 42 संस्करणों का प्रकाशन हुआ जबकि 1550 और 1564
के दौरान 527 संस्करण प्रकाशित हुए, जिसे पूरा करने के लिए
कम से कम 40 छापाखाने दिन रात काम में लगे रहे थे ।
प्रोटेस्टेंटमत और प्रिंट पूंजीवाद के गठबंधन ने सस्ते और लोकप्रिय साहित्य का लाभ न केवल एक नए प्रकार के विशाल पाठकवर्ग को तैयार करने के लिए बल्कि उनको राजनैतिक- धार्मिक स्वार्थ के लिए लामबंद करने के लिए भी उठाया – इनमें मुख्यतः व्यापारी और महिलाएं थे, जिन्हें लैटिन भाषा का ज्ञान या तो बहुत कम या न के बराबर था। इन सुनियोजित गतिविधियों से मात्र चर्च ही प्रभावित नहीं हुए, उसी भूकंप ने यूरोप में डच गणतन्त्र तथा ईसाई प्यूरिटन राष्ट्रमंडल के पहले गैर राजवंशीय, गैर शहरी राज्यों को जन्म दिया, (फ्रैंकोइस प्रथम के आतंकित होने के पीछे धार्मिक के साथ साथ राजनैतिक कारण भी अवश्य रहे थे)।
तीसरा प्रमुख कारण था सत्ता के केन्द्रीयकरण हेतु भावी निरंकुश
शासकों द्वारा स्थानीय भाषाओं का धीमा,
भौगोलिक रूप से असमान लेकिन निरंतर प्रसारण। यह बात ध्यान रखने योग्य है कि मध्यकालीन पश्चिमी यूरोप में किसी भी राजनैतिक
व्यवस्था में लैटिन विश्वविद्यालय की प्रासंगिकता नहीं रही। जबकि साम्राज्यवादी
चीन में मंदारिन और चित्रात्मक चीनी लिपि दोनों की बहुत अनुदेशात्मक भूमिका रही
थी। जिसके फलस्वरूप पश्चिमी यूरोप के राजनैतिक विघटन के समय कोई भी स्वायत्त शक्ति
ऐसी नहीं थी जो न केवल लैटिन भाषा पर अपना पूर्ण स्वामित्व जता सके बल्कि उसे अपने
राज्य की आधिकारिक भाषा घोषित कर सके,
और इस प्रकार लैटिन भाषा का धार्मिक वर्चस्व कभी भी उसकी राजनैतिक सत्ता में रूपांतरित
न हो सका ।
सरल प्रशासनिक भाषाओं का
उद्भव सोलहवीं शताब्दी में अस्तित्व में आए छपाई उद्योग और धार्मिक उथल पुथल से
पहले हो चुका था, और इसी कारण हम उन्हें भी काल्पनिक धार्मिक
समुदायों के पराभव का स्वतंत्र और प्रभावी कारण मान सकते हैं। लेकिन यह भी
परिलक्षित किया गया है कि इस प्रकार की व्यावहारिक भाषाओं के प्रचलन में आने के
बाद भी किसी नवीन बौद्धिक विचारधारा का उदय नहीं हुआ । प्राचीन यूरोप की उत्तर
पश्चिमी सीमा पर स्थित इंग्लैंड का उदाहरण इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। वर्ष
1066 में नोमानों की इंग्लैंड पर हुई विजय से पहले वहाँ की दरबारी, साहित्यिक व प्रशासनिक भाषा एंग्लो सैक्सन थी। तत्पश्चात तकरीबन
150 वर्षों तक सभी शाही दस्तावेज़ लैटिन
भाषा में लिखे गए। उसके बाद ई॰ 1200 और 1350 के मध्य इस शासकीय लैटिन भाषा का
स्थान नोमान फ्रेंच ने ले लिया। इसी बीच विदेशी शासक वर्ग द्वारा व्यवहृत नोमान फ्रेंच
भाषा और प्रजा में प्रचलित एंग्लो सैक्सन के सम्मिश्रण से अंग्रेज़ी भाषा की
उत्पत्ति हुई। इस सम्मिश्रण की वजह से ही सन 1362 के बाद से यह नयी भाषा
(अंग्रेज़ी) न केवल दरबारी भाषा बन गयी बल्कि संसद की स्थापना में भी इसकी बड़ी
भूमिका रही थी। 1382 में वायक्लिफ़ द्वारा बाइबिल की सरलीकृत पाण्डुलिपि आ गयी। इन
सभी वाकयात में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह राजकीय भाषाओं का क्रमिक विकास
और रूपान्तरण था न कि राष्ट्रीय भाषाओं का, और यह केवल इंग्लैंड या वेल्स का मामला नहीं था बल्कि आयरलैंड स्कॉटलैंड और
फ्रांस में भी इसी प्रकार के क्रमिक भाषाई परिवर्तन देखने को मिल रहे थे। निश्चित
तौर पर जनता का एक बहुत बड़ा प्रतिशत लैटिन, नोमान फ्रेंच या प्राचीन अंग्रेज़ी भाषाओं का ज्ञान नहीं रखता
था और अंग्रेज़ी के राजनैतिक राज्याभिषेक के एक शताब्दी बाद तक यथास्थिति बनी रही।
पेरिस में सेन नदी के किनारे भी इसी प्रकार का एक आंदोलन थोड़ी
धीमी गति से उपस्थित था। ब्लौच तनिक तिक्तता से ही कहते हैं, “भाषाई तौर पर फ्रेंच,
जो अब तक लैटिन का विकृत रूप भर मानी जाती थी, को साहित्यिक प्रतिष्ठा पाने में कई सदियाँ लग गईं।” और
इसे न्यायालय की आधिकारिक भाषा सन 1539 में फ्रैंकोइस प्रथम के समय में घोषित किया
जा सका। दूसरे साम्राज्यों में लैटिन भाषा कुछ और समय तक अस्तित्व में रही। कुछेक
में सरल विदेशी अपभ्रंश भाषाओं ने आधिकारिक स्थान ग्रहण कर लिया, जैसे रोमानोव दरबार में फ्रेंच और जर्मन भाषाएँ बहुलता से
प्रयोग की जातीं थीं ।
इन सभी दृष्टांतों के अनुसार, एक भाषा का किसी राज्य की आधिकारिक भाषा के रूप में स्थापित
होना एक मंथर, क्रमिक, प्राकृतिक,
व्यवहारमूलक और अव्यवस्थित प्रक्रिया रही है। जबकि उन्नीसवीं शताब्दी में उग्र
भाषाई राष्ट्रवाद के तहत निर्धारित की गयीं सुचिन्तित भाषा नीतियों में यह
प्रक्रिया इस क्रमिकता और स्वाभाविकता के साथ देखने को नहीं मिलती है। एक मूलभूत
अंतर यह भी देखा गया कि प्रशासकीय भाषाएँ मात्र आंतरिक आधिकारिक कार्यों की सुगमता
के लिए प्रयोग की जातीं रहीं उन्हें कभी आम जनता की भाषा बनाने के प्रयास नहीं किए
गए। यही नहीं, स्थानीय बोलचाल की भाषाओं के शासकीय भाषा के रूप
में हुए उठान ने,
न केवल उन्हें लैटिन भाषा का प्रतिद्वंदी बना
दिया था (जैसे पेरिस में फ्रेंच और लंदन में अंग्रेज़ी) बल्कि इसी क्रम में वे ईसाई
धर्म सत्ता के ह्रास का कारण भी बनीं।
जमीनी तौर पर, लैटिन
भाषा के पदच्युत होने और ईसाई धर्म के सत्ताहीन होने के पीछे लैटिन भाषा की सीमित
पहुँच, सक्रिय सुधार आंदोलन, और आधिकारिक भाषाओं के अनियंत्रित विकास जैसे कारकों का
नकारात्मक प्रभाव भी रहा था। इन तीनों या इनमें से एक भी कारक की अनुपस्थिति में ये
महत्वपूर्ण ऐतिहासिक परिवर्तन संभव नहीं थे। सकारात्मक दृष्टिकोण से नए समुदायों और
संगठनों के जन्म के पीछे उत्पादन और उत्पादक सम्बन्धों की व्यवस्था (पूंजीवाद), सम्प्रेषण की तकनीक (प्रिंटिंग), और मनुष्य की भाषाई विविधता में त्वरित परिवर्तन में परस्पर अनपेक्षित
एवं विस्फोटक सम्बन्धों का महती योगदान रहा है।
अस्थायित्व या भ्ंगुरता मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है, यही कारण है कि पूंजीवाद के बहुत शक्तिशाली मत बनकर उभरने के
बावजूद उसने मृत्यु और भाषा जैसे नश्वर तत्वों पर विजय हासिल नहीं कर पायी। कुछ
भाषाएँ समय के साथ मर सकती हैं या उनका सफाया हो सकता है लेकिन मनुष्य का भाषाई
एकीकरण फिर भी संभव नहीं है। पूंजीवाद और विशेष तौर पर प्रिंट पूंजीवाद द्वारा एक-भाषा-भाषी
समुदाय का निर्माण किए जाने से पहले की यह सार्वभौमिक भाषागत अगम्यता कुछ विशेष ऐतिहासिक
महत्व नहीं रखती है ।
अस्थायित्व को भाषाई विविधता की अनिवार्य शर्त के तौर पर याद
रखना आवश्यक है, लेकिन इसकी तुलना या साम्य राष्ट्रवाद के
अंतर्गत क्षेत्रीय सीमाओं में आबद्ध भाषाओं के अस्थायित्व व परिवर्तन के विचार से
नहीं किया जा सकता। सारभूत व शक्तिशाली कारक तो परिवर्तनशीलता, तकनीकी और पूंजीवाद ही रहे हैं। प्रिंटिंग के आविष्कार व
प्रचलन से पहले यूरोप में बोलचाल की भाषाओं के इतने विविध रूप प्रचलित थे कि यदि
प्रकाशकों ने अलग अलग सभी बोलियों में पुस्तकें छापने का इरादा किया होता तो यह बस
छोटे मोटे स्तर का पूंजीवाद बन कर ही रह जाता। लेकिन भाषा के इन विविध रूपों को
आपस में मिला कर छापे जाने योग्य भाषाओं का निर्माण किया गया, इन नयी बोलियों के एकीकरण और पुनर्गठन में भाषा के ऐच्छिक ध्वनिचिन्हों
ने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही (ये चिन्ह जितने अधिक चित्राक्षर रूप में थे उतना ही उनके
पुनर्गठन का क्षेत्र विस्तृत होता गया) इन
स्थानीय बोलियों के विकास में सबसे बड़ा योगदान पूंजीवाद का है जिसने यांत्रिक
पुनरुत्पादन के जरिये व्याकरण तथा भाषा विज्ञान की सीमाओं के अंदर रह कर भी बाज़ार
के माध्यम से इन प्रिंट भाषाओं का अभूतपूर्व प्रसार किया ।
इन प्रिंट भाषाओं ने तीन प्रमुख तरीकों से
राष्ट्रीय चेतना के प्रत्यय की नींव रखी। पहला और सबसे महत्वपूर्ण तरीका था, सम्प्रेषण और विनिमय के उद्देश्य से क्लिष्ट लैटिन व साधारण
स्थानीय भाषाओं के बीच का एक सुसंगठित, सुगम्य
माध्यम विकसित करना। पहले अंग्रेज़ी,
फ्रेंच और स्पैनिश आदि भाषाएँ जानने वाले जो व्यक्ति आपस में विचार विनिमय नहीं कर
पाते थे वे भी अब प्रिंट और कागज़ के माध्यम से एक दूसरे के भावों को जानने समझने
लगे। इसी प्रक्रिया में वे उस भाषा को जानने वाले अपने जैसे सैकड़ों हजारों बल्कि
यूं कहें कि लाखों लोगों को समझने लगे। इसका दूसरा पक्ष यह भी था कि इस प्रक्रिया में
वे केवल उन सैकड़ों हजारों और लाखों लोगों के मनोभाव ही समझ पाते थे जो समान प्रिंट
माध्यम को लिख पढ़ सकते थे। इन्हीं सहपाठकों ने, जो आपस में छपे हुए शब्दों के माध्यम से जुड़े हुए थे, अपनी विशिष्ट,
निरपेक्ष अदृश्य दृश्यता के माध्यम से एक काल्पनिक राष्ट्रीय समुदाय की नींव रख दी
।
दूसरा,
प्रिंट पूंजीवाद ने भाषा को स्थिरता व स्थायित्व दिया जो राष्ट्रीयता की
व्यक्तिनिष्ठ विचारधारा के केंद्र में स्थित प्राचीन गौरव की भावना को बनाए रखने
के लिए बहुत आवश्यक था। जैसा कि फेब्वर और मार्टिन हमें याद दिलाते हैं कि छपी हुई
पुस्तकें कालिक और स्थानिक रूप से असीमित पुनरुत्पादन के योग्य स्थायी संपत्ति के
रूप में अवतरित हुईं। इनमें मठों की हस्तलिखित पाण्डुलिपियों जैसी व्यक्तिवादिता
और अचेतन रूप से नवीनीकरण करते रहने की वृत्ति नहीं पायी जाती थी। इसीलिए हम जितनी
स्पष्ट असमानता बारहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी की फ्रेंच भाषा में देखते हैं, छपाई के प्रचलन के बाद सोलहवीं शताब्दी की फ्रेंच में परिवर्तन
का वह वेग नहीं पाते हैं। सत्रहवीं शताब्दी तक तो अधिकांश यूरोपीय भाषाएँ अपना आज
का आधुनिक स्वरूप धारण कर चुकीं थीं । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पिछली तीन
शताब्दियों से भाषा के उसी स्थायी रूप में सुधार और नाममात्र के बदलाव आते जा रहे
हैं, किसी प्रकार के आधारभूत परिवर्तन नहीं हुए हैं।
हम सत्रहवीं शताब्दी के लेखकों के शब्दों को भी अच्छी तरह समझ सकते हैं जबकि सत्रहवीं
शताब्दी के लेखकों द्वारा बारहवीं शताब्दी की भाषा को उसी प्रकार समझा जाना संभव
नहीं रहा होगा ।
तीसरा,
प्रिंट पूंजीवाद ने सत्ता की ऐसी भाषा को जन्म दिया जो पूर्ववर्ती प्रशासनिक
भाषाओं से बहुत भिन्न है। कुछ स्थानीय बोलियाँ संरचना और प्रतीति में प्रिंट
भाषाओं से बहुत समानता और सामीप्य रखतीं हैं और उनके अंतिम व परिष्कृत रूप पर भी
अपना प्रभाव बनाए रखतीं हैं। उनकी ही अभागी बहनें अर्थात वे भाषाएँ जिनके अपने
भाषाई प्रिंट संस्करण नहीं बन सके तुलनात्मक रूप से वह प्रतिष्ठा और पद नहीं पा सकीं ।
चूंकि उत्तर पश्चिमी जर्मन भाषा एक बड़े समुदाय द्वारा बोली जाती थी और प्रिंट
जर्मन भाषा की तुलना में हीन होते हुए भी संरचना के स्तर पर उससे बहुत मेल खाती थी
‘निकृष्ट जर्मन’ का
ओहदा पा गयी, जबकि बोहेमी लोगों द्वारा प्रयुक्त चेक भाषा
भिन्न संरचना के कारण वह दर्जा नहीं पा सकी। इसी क्रम में उत्कृष्ट जर्मन, शाही अंग्रेज़ी और केंद्रीय थाई भाषा कालांतर में सांस्कृतिक ऊंचाइयों को
छूने लगीं । इन्हीं सब कारणों से बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में यूरोप के कुछ
उपराष्ट्रों ने अपने उपराष्ट्रवाद से ऊपर उठने के लिए और अपनी भाषा को वांछनीय
प्रतिष्ठा दिलवाने के लिए प्रिंट व रेडियो प्रसारण का सहारा लिया।
शुरुआत में इन भाषाओं का राजनैतिक सम्मान बहुत पूर्वनियोजित व ऐच्छिक नहीं
बल्कि पूंजीवाद, तकनीकी
और भाषाई विविधता के विस्फोटक संयोजन द्वारा संचालित रहा लेकिन एक बार
इन्होंने वह महत्ता हासिल कर ली तो ये
औपचारिक रूप से अनुकरणीय व आदर्श हो गईं। थाई सरकार अपने अल्पसंख्यक पहाड़ी जनजातीय
समुदाय को बाहरी ईसाई मिशनरी द्वारा उनकी स्थानीय भाषा में प्रतिलिखित सामग्री या
साहित्य उपलब्ध कराने या प्रकाशित करने का विरोध तो करती है परंतु उनके उसी भाषा
में बातचीत करने से वह पूर्णतः अप्रभावित है। टर्की भाषा बोलने वाले देशों जैसे टर्की, ईरान, ईराक और यूएसएसआर आदि का उदाहरण इस विषय में
बहुत महत्वपूर्ण है। अरबी हिज़्जों में लिखी और बोली जाने वाली इस भाषा, जिसे दुनिया के एक बड़े हिस्से में प्रयोग किया और समझा जाता था, को जान बूझ कर इन क्षेत्रों से नष्ट कर दिया गया। टर्की गणतन्त्र के पहले
राष्ट्रपति अतातुर्क ने टर्की की इस्लामिक छवि से निजात पाने के लिए टर्की की बजाय
लैटिन भाषा को जबरन लागू कर दिया (रोमनाइज़ेशन) । सोवियत संघ ने भी इसी नक़्शे क़दम
पर चलते हुए पहले अपनी मुस्लिम विरोधी और अरबी लिपि विरोधी नीतियों के कारण लैटिन
भाषा का प्रयोग आरंभ किया, और उसके बाद 1930 में स्टालिन ने
राष्ट्र का रूसीकरण करने के लिए स्लाव (सिरिलिक) वर्णमाला अनिवार्य कर दी ।
इस आख्यान के द्वारा
हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि पूंजीवाद, प्रिंट तकनीकी, भाषा की त्वरित परिवर्तनशीलता और नश्वरता के सम्मिलन ने एक नूतन ढब के
काल्पनिक समुदाय को जन्म दिया, यदि शाब्दिक अर्थ लागू करें
तो इस अवधारणा ने आधुनिक राष्ट्रवाद के स्वागत की पूरी तैयारी कर ली थी। इन
समुदायों का विस्तार और क्षमता स्वाभाविक तौर पर बहुत सीमित थे और इनका तत्कालीन राजनैतिक
सीमाओं से बहुत स्थायी संबंध नहीं था (जो अब वंशवादी विस्तारवाद के स्मृति शेष रह
गए थे)।
आज जबकि सभी आधुनिक, स्वयं परिकल्पित और राष्ट्रीय राज्यों की अपनी ‘राष्ट्रीय
प्रिंट भाषा’ है, कई राष्ट्रों की
संयुक्त रूप से एक ही राष्ट्रभाषा है, और कुछ औरों की
जनसंख्या का एक छोटा सा भाग ही इन राष्ट्रीय भाषाओं को लिखित और मौखिक रूप से
प्रयोग करता है। अमरीका के कुछ राष्ट्रीय राज्य और ऐतिहासिक एंग्लो सैक्सन भाषा
जानने वाले समुदाय पहली विशिष्ट श्रेणी में आते हैं जबकि अफ्रीका के कुछ भूतपूर्व
औपनिवेशिक राज्य दूसरी श्रेणी में गिने जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मात्र
एक नियत प्रिंट भाषा की उपलब्धता से ही विविध समकालीन राज्यों में राष्ट्रनिर्माण
की प्रक्रिया समस्तरीय व समकक्ष नहीं हो जाती है। प्रिंट भाषा, राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय राज्यों की अवधारणाओं में इस प्रकार की
अनियमितता व असंबद्धता को समझने के लिए हमें सन 1776 और 1838 के बीच पश्चिमी
गोलार्ध में बहुलता से उग आए नई राजनैतिक शक्तियों के एक बड़े समूह का अध्ययन करना
होगा क्योंकि ये सभी अपने आपको स्वायत्त राष्ट्र पारिभाषित करते हैं (केवल ब्राज़ील
ही गणतन्त्र कहलाता है), और ये न केवल अंतर्राष्ट्रीय
परिदृश्य पर प्रकट होने वाले अपनी तरह के पहले राष्ट्र हैं बल्कि इस बात की मिसाल
भी हैं कि इस तरह के राज्यों को वैश्विक परिदृश्य में अपने आपको कैसे प्रस्तुत
करना चाहिए।
(पाखी, अप्रैल 2016 ‘राष्ट्रवाद पर एकाग्र’ अंक में प्रकाशित)
अनुवादक परिचय
अनुराधा
सिंह
पाखी, कथाक्रम, वागर्थ, मंतव्य, कृतिओर तथा अन्य प्रमुख पत्रिकाओं और ब्लाग्स में प्रकाशित एवं
प्रकाशनाधीन।
पूर्व
में संस्थापक एवं प्रमुख सलाहकार ‘क्वांटम कॉन्सेप्ट्स एंड सॉल्यूशंस
कंसल्टेंसी‘ बेंगलुरु।
संप्रति: मुंबई में प्रबंधन कक्षाओं में बिजनेस कम्युनिकेशन का अध्यापन, हिमाचल प्रदेश के एचआइवी पॉज़िटिव स्वयंसेवकों की आपबीती पर आधारित श्रंखला ‘ज़िंदगी ज़िंदाबाद‘ का लेखन ।
पता – बी 1504 , ओबेरॉय स्प्लेंडर, जोगेश्वरी ईस्ट , मुंबई ।
मोबाइल : 9930096966