अनुनाद

अनुनाद

वीरू सोनकर की नई कविताएं


वीरू सोनकर की कविताएं पहले भी अनुनाद पर पाठकों ने पढ़ीं हैं और उन कविताओं पर मेरी टिप्पणी भी। इस बीच उनके कथन में कुछ फ़र्क़ आया है, कुछ और आयाम उनके कवि-व्यक्तित्व में जुड़े हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर बेवजह की बहसों से कुछ दूरी बनाते हुए जनप्रतिबद्धता और एक गाढ़ी होती जाती वैचारिक समझ की ओर क़दम बढ़ाए हैं। वे कुछ बड़े कविता आयोजनों में शामिल हुए हैं, कविता के भीतर और बाहर कुछ ज़रूरी यात्राएं उन्होंने की हैं – इन यात्राओं के सकारात्मक प्रभाव उनकी कविताओं पर पड़ें, वे हर शोर और हर छिछलेपन से दूर रहें, ऐसी मेरी कामना है। 

१-

घुसपैठिया

हर अँधेरे का अपना रहस्य है
हर गहराई की अपनी भव्यता

अतीत उँगलियों की पोर पर बैठा स्पर्श है
टटोलना स्मृतियों से संवाद है

तस्वीरें मुझसे एकालाप करती हैं
मैं उनकी खो गयी आत्माओं के प्रेम में हूँ

बहुत गहरे जा कर बैठना,
धरती से मेरी सबसे क्रूर असहमति है
मेरा एकल चिंतन उजाले के पक्ष में
सबसे ईमानदार मतदान है

मेरा चेहरा दुखो का जीवित इतिहास है
और आँखे भविष्य की खुली बैलेन्स शीट

दूर खड़ा,
सबसे प्रिय एक भविष्य हँसता है
मैं उसके प्रेम में थोड़ा और उदास हो जाता हूँ

मेरा हँस देना दुःख की सबसे निर्मम हत्या है
और सहज होना मेरी सबसे प्राचीन उपस्थिति

भविष्य मेरे कंधे पर हाथ रखता है
मैं उसके भरोसे में खो गया सबसे मासूम योद्धा हूँ

मैं अँधेरे में बैठी सबसे चमकदार प्रार्थना हूँ
मेरा पहला उठा हुआ पैर उजाले का उदघोष हैं
मेरे हाथ से बेहतर दुनिया का कोई औजार नहीं
मेरी आवाज से बड़ा कोई नारा नहीं
मेरे हक़ से बड़ी कोई जिद नहीं

मेरी आँखों की चमक दुनिया की हर आंख में बराबर बाट दो
मैं अंततः तुम्हारे घर से ही बरामद होऊंगा
मैं तुम्हारी जेब में पड़ी सबसे आखिरी पूंजी हूँ

मेरे हाथ चूम लो, यही तुम्हारे हाथ हैं
मेरे पैर, तुम्हारे हिस्से की यात्रा में हैं
मेरा चेहरा ध्यान से देखो
इसके हर हिस्से से तुम्हारी पहचान फूट रही है
मैं कोई और नहीं
तुम्हारे एकांत में घुस आया
भविष्य का सबसे बड़ा घुसपैठिया हूँ

२-

एक और प्रेम के लिए

मैं इतना कृतज्ञ था
कि मैंने उदासी को एक जश्न की तरह जिया

इतना क्रूर हुआ कि अपनी पीठ पर चाबुक लकीरों से अपने पहले प्रेम की
पाठ-भाषा रची

मैं इतने दुःख में हुआ कि सुख के हरे उपहारों को हताशा के पीले
पत्तो सा चबाया

इतना विद्वान हुआ कि मुक्ति की चाह में सब कुछ विस्मृति के हवाले
किया

मैं इतना बड़ा कायर हुआ कि चाहता था सातो महाद्वीप के आगे तक हो मेरा
पलायन

इतना बेवकूफ कि फिर से तैयार हुआ
एक और प्रेम के लिए

३-

[ मैं हूँ तो सही ]

हाँ, मैं हूँ
अपनी विचित्रता के आकुल पाठ में
बनती-बिखरती लय में

मुझे मर जाना चाहिए था
अपने बचे रहने की अतिसूक्ष्म संभावना की टकटकी में
पर मैं हूँ
अधिकता में बहुत थोड़ा सा बचा हुआ
तंत्र में विद्रोह सा
सन्नाटे में जरुरी शोर सा!

पहाड़ का दुःख जहाँ घाटियों में रिसता है
नदी की पगडण्डी पर
घिस रहे एक कमजोर किनारे सा,
अवांछनीयता में छूट गयी बहुत थोड़ी सी अनिवार्यता सा
नृत्य में जो लयविहीन है
आकाश में तल न बन पाने के दुःख से धरती में बिधा हुआ
संवादों में किसी गैरजरूरी उल्लेख सा
विलाप में बिना बताए चले आए आलाप सा
अपने ही अस्तित्व पर चौकता
और फिर मिल जाता
एक जानी-पहचानी भीड़ में, सबसे अनजान हिस्सा बन
कर

अपने पहचान चिन्हों को जेब में छुपाए
मैं हूँ तो सही.
कातर दृष्टि से देखता, पहचानो से भरी एक विराट
पृथ्वी को

जहाँ पहचान-विहीनता से मर जाना
एक अभिशाप है

स्मृति के पंजों से खुद को निकालता
और हारता
उस वर्तमान से
जिसके हर आश्वासन से स्मृति झांकती है
चिढ़ चुके भविष्य को फुसलाता
स्वप्न में एक काव्य बुनता
जागता तो उसके चीथड़े गद्य में बटोरता
मैं हूँ तो सही.

न होने की तमाम नजदीकी शुभेच्छाओं में भी
मैं बिल्ली की उठ खड़ी हुई सतर्क पूँछ हूँ
बाघ की दहाड़ में छुपा हुआ कोई आदिम डर हूँ
कमजोर के भीतर चल रहे ताकतवर के विध्वंस की स्वप्निल परिणति में
मैं हूँ तो सही.

एक सभ्रांत बहस में घुस आए किसी आपत्तिजनक वाक्य सा
आश्वस्ति को छू कर गुजरते
किसी अपराधी संशय सा!

४-

[ दोनों हाथ ]

मै इतने सकून में था
कि घुस जाने दिया चींटियों को अपने पैरों की नसों में
एक दिन को माना पिछले दिन का पुनर्जन्म, जहाँ
गलतियां पुण्य में बदली जा सकती थी

और हर रात को मृत्यु का पूर्वाभ्यास!
अस्तित्व का सबसे बड़ा प्रमाण है उस रात के बाद सुबह मेरा जाग जाना!

रात-दिन के इस खेल में इतना सकून था कि मैंने दोनों हाथों से अपना
मौन लुटाया!

घावों को यूँ रखा खुला
कि वायु उनका चेहरा चूम सके
मानो वह युद्ध में कट मरे अपराजित योद्धा हैं

मैं इतना गुस्से से भरा था कि एक पूरा दिन बड़े सकून से अपने जबड़ो
में चबाया.

मैं इतना अधिक आशा से भरा था
कि चुपचाप देखता रहा
एक व्यग्र कवि को,
जो अपने पक्ष से धीरे-धीरे हट रहा था
धीरे-धीरे जो एक समूची पृथ्वी के पक्ष में जा रहा था

मैं अपने सकून की वृक्ष-छाया में
आलोचनाओ के प्रतिउत्तर में ओढ़ा हुआ मौन हूँ
जिज्ञासाओं के पहाड़ की तरह उगा हुआ एक ढीठ
शिनाख्तो का सबसे बड़ा सेंधमार, जिसकी हर सुरंग
खुद में खुल रही थी

बावजूद इसके, मैं इतने सकून में था
कि आकाश मेरे लिए बहुत धीमे पक रही एक प्रार्थना है
जिसे एक दिन अचानक मेरे हाथों में गिर पड़ना है

मैं उम्र की व्यग्रता में मृत्यु के सकून का पहला पाठ हूँ
मुझे देर तक पढो
मेरे दोनों हाथ भरे हैं!

५-

चुम्बन

धूप का सबसे सुंदर चुम्बन है
कपास के होंठो पर सिमट बैठी सफेदी

कपास के होंठो पर खिल गया एक सफ़ेद बादल
उसके प्रेम की पहली खबर है

कपास का विरह-गीत है
धूप की गुनगुनी स्मृति से भरा
हर त्वचा का चुम्बन!

६-

जन्म

मैं अपनी स्मृतियों का जाग्रत अवतार हूँ
स्मृतियों के कुँए से बाहर निकल कर आया
यथार्थ का सबसे नवीन संस्करण!

ठीक उसी जगह पर,
जहाँ मेरी और तुम्हारी स्मृतियों के संसर्ग से
एक वर्तमान ने जन्म लिया है

***

७-

तुम्हारे लिए ( तीन कविताएं )

१-

मैं आकाश में भूमि हो जाने की संभावना हूँ
मैं कहीं नहीं जाऊँगा
मरूँगा भी नहीं

यही कहीं इसी धरती पर
तुम्हारी आँखों में
आकाश हो जाने की संभावना सा
चमकता रहूँगा

२-

तुम मुझ तक आओ
रेंगते हुए
घास के गुच्छो की तरह
मैं तुम तक आऊँ
जैसे हवा पर चल कर आती है नमी

हम मिल कर
उस खनिज की अनिवार्य नियति में बदल जाएँ
जिसकी धार
हमारी स्वांस-भट्ठी में दहक रही है

३-

मैं तुम्हे चूमना चाहता हूँ
ताकी तुम एक देह में बदल जाओ

गोद में उठा कर एक तेज़ चक्कर लगाना
तुम्हे एक सुविधाजनक भार में बदल देगा

तुम्हारी आँखों में झाँकना
एक समानांतर पृथ्वी को रच देना है

जानता हूँ यह सब एक कल्पना है
पर तुम सुनते रहना

मेरा कहना, तुम्हारा सुनना
तमाम आशंकाओं का विस्थापन है

प्रेम की बची हुई संभावनाओं का ईश्वर हो जाना है
मेरा चूमना
और तुम्हारा देह में बदल जाना!
***

८-

नदी: पाँच कविताएं

१-

नदी गर्भ से है
और उगल रही है वह नग्न स्त्रियां
स्त्रियां भी गर्भ से हैं
और मछलियां उनका प्रसव परिणाम
नदी की दह में बैठ गया एक पुरुष
नदी को एक पक्का सुरक्षित मकान जान कर
पुरुष मछलियों को खा रहा है
और मुग्ध हो रहा है उन स्त्रियों पर

किसी आश्चर्य सी एक नाल उगती है नदी के पेट में
और बांध देती है पुरुष के पेट में एक गाँठ
उस गांठ को पुरुष, स्त्रियां और मछलियाँ घृणा
से देख रहे हैं

नदी किसी जर्जर ईमारत सा ढहती है
और पानी पानी हो जाती है

२-

नदी एक चीख में बदल रही है
और किनारे उसका गला दबोचे दो निर्मम हाथ
हाथ कसते ही जा रहे है
और बढ़ता ही जा रहा है नदी का दुःख!

मछलियाँ नदी की गूँगी बहने है
जिनके आँसू नदी का क्षार बढ़ा रहे है
और घटा रहे है
निर्मम किनारों का जड़त्व!

एक दिन मछलियाँ जीत जाएँगी
और नदी की चीख पृथ्वी के चेहरे पर किसी हँसी सी फ़ैल जायेगी

३-

जंगल नदी के आलिंगन में लिपटा अतृप्त प्रेमी है
प्रेम-पाश में बेसुध नदी
सर पटकती है
पर जंगल अपनी बाहें ढीली नहीं करता
नदी तुनक कर थोड़ा आगे भागती है
और जंगल,
किसी चीरे सा बढ़ता जाता है

कि रास्ते में एक बांध आता है

फिर नदी और जंगल किसी कहानी में बदल जाते है

४-

नदी की हजार बाहें हैं
पकडे हुए पृथ्वी की पीठ को
कि उछल न जाये अपनी चंचलता में नदी आकाश की ओर

पृथ्वी की पीठ मिटटी की एक इतिहास यात्रा है
जिसके कई पन्ने कुछ नदियों को किसी अफवाह सा दर्ज किये हैं
अक्सर भयानक गर्मियों में
जब ये पन्ने फड़फड़ा उठते हैं

किसी पृथ्वी की पीठ
एक मुरझाए हुए चेहरे में बदल जाती है

इतिहास फिर उसके बाद बदलता है

५-

नदी पाँव पाँव चलती है आकाश को देखते हुए
और आकाश झाँकता है
घर में बंद किसी बच्चे की खिड़की से,

नदी रोड पर जा रही है
नदी की आँखे नीली है

आकाश उसके नीलेपन से चिढ कर बार बार उसे पानी से धोता है
आकाश और सफेद हुआ जाता है
नदी और भी नीली पड़ती है

पृथ्वी गोल घूमना बंद नहीं करती कुछ इस चाह में
कि किसी दिन दोनों में कोई छिटक कर नीचे आएगा
या कोई ऊपर उछल जायेगा

पृथ्वी शरारती है
इन बिछड़े प्रेमियों की इतिहास कहानियां
अपने पेट में दबाए
वह चुपचाप हँसती है
***

संपर्क- 7275302077

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