उपासना झा ने इधर अपनी कविताओं से एक मौलिक पहचान हिंदी-जगत में बनाई है। हिंदी के कुछ महत्वपूर्ण ब्लाग्स पर उनकी कविताएं पिछले कुछ समय से लगातार पढ़ी जा रही हैं। अनुनाद पर वे पहली बार छप रही हैं। इन कविताओं के प्रकाशन के साथ अनुनाद उन्हें लम्बी रचना-यात्रा के लिए शुभकामनाएं देता है।
—
संसार की सब सूनी आँखों से
भाप बनकर उड़ गए थे आँसू
धरती पर योंही इतना खारा पानी
आँसुओं के महासागर नहीं
जबकि जिए जाने को ज़रूरी थी नमी
पत्थरों की दरारों से कभी-कभी
कोई दरक उठ आना ज़रूरी था
जिन आँखों ने इंतज़ार पहन लिया हो
वे सीख जाती हैं अपनेआप
स्थिर रहना, शांत रहना, निर्लिप्त रहना
जिन स्त्रियों के प्रिय नहीं आते लौटकर
ना ही आ पाती है कोई ख़बर बरसों-बरस
उनके लिए सब मौसम बर्फ़ीले होते हैं
जब भी हिलने लगे तुम्हारा भरोसा प्रेम से
ऐसी किसी स्त्री से मिलना
संसार जिनका सब कुछ छीन चुका हो
नहीं छीन पाया हो उनके हिस्से का प्रेम
तुम बाँटना मत उन्हें उन स्त्रियों में
जिनके प्रिय परदेश चले गए
या सीमा की रक्षा में रत रहे
या बने आतंक के पैरोकार
एक दिन में, एक पूरे दिन में
धरती भी घूम जाती है अपनी धुरी पर
हर तीन महीने में मौसम बदल जाता है
हर छः महीने में छोटे-बड़े हो जाते हैं दिन-रात
तीन सौ पैसठ दिनों में बदल जाता है कैलेंडर
हर चौथे साल में फरवरी हो जाती है उनतीस की
पांच सालों में बदल जाता है दिल्ली का निजाम
हर छठे साल होगा अर्धकुंभ
इन स्त्रियों के दिन नहीं लौटते
इन स्त्रियों की क़िस्मत नहीं बदलती
इस बेढब दुनिया में बचा हुआ
प्रेम, विश्वास और जीवन
यही स्त्रियाँ हैं जो खड़ी रहती हैं
रोज़ घर के दालान में
किसी नहीं आने वाली चिट्ठी के इंतज़ार में
***
किस्सा-कोताह
प्रेम का एक तर्जुमा हमने ये किया था
कि उसे मेरी उघड़ी हुई पीठ पर हाथ रखना पसंद था
और मुझे उसे सोते देखना
उसे देह के आदिम गीत का पाठ, पुनर्पाठ
कंठस्थ करना था
मुझे रुचते थे
उसके कंठ से जरा नीचे बने दो गह्वर
जहाँ छिप कर मैं सो सकती थी छह महीने लंबी नींद
दुनिया के इतिहास, भूगोल
सिमट आये थे बस उस घर की चौहद्दी में
प्रेम बना देता है मनुष्य को आधी नींद सोया पाखी
जहाँ उसकी भूख-प्यास-नींद-चाह
सब आधे में ही तृप्त रहती हैं।
उसे भाने लगा था मेरी तरह ही पानी और आकाश का रंग
बसंत का रंग मुझे भी अब ठीक लगने लगा था
हमने चुन लिया था एक बीच का रंग भी,
..उस रंग को देखकर अब भी काँप उठते हैं पैर
और सोचने लगता है मन
कि वो रास्ता किधर गया
जहाँ बैठकर पढ़ने लगा था वो मेरी पसन्द की किताबें
और मैं देखने लग गयी थी मार-धाड़, साइंस-फ़िक्शन
कुमार गंधर्व से लेकर नुसरत साब
अब बंटे हुए नहीं थे।
आदतें घुलमिल गयी थीं चाय में चीनी की तरह..
मुआ शायर कहता है कि दिल टूटने की चीज़ थी
मुझे यकीं है उसका दिल टूटा नहीं होगा कभी
नहीं तो दिलासा भी ऐसी नहीं लिखता
प्रेम बन गया था एक आदमख़ोर
दूर से खून सूँघ लेता था
और जब कोई शिकार न मिले तो
अपने ही दिल से भूख मिटा लेता था।
रूमी कहते हैं कि
दिल को टूटने दो, इतनी बार-इतनी बार
की खुल जाए,
उसे क्या मालूम कि इस खुलने में बिखरना भी बहुत होता है।
दर्द भले पहचाना हो घाव तो नया ही लगता है।
अब बस मसला है नींद का, जो चली गयी है किसी अनजान यात्रा पर
हँसी का जो कभी आये तो हैरान करती है
कि तमाम बातें भूलकर भी हँसना नहीं भूल सके।
होना यह था कि वह हीर सुनता मेरे साथ सुबह उठकर
जबकि आँख खुलते ही साथ उठता है
कनपटी से उठता दर्द।
***
रोना
1
रोना इसलिए भी ज़रूरी था
कि हर बार
हथियार नहीं उठ सकता था
रोना इसलिए भी ज़रूरी था
कि हर बार
क्रांति नहीं हो सकती थी
2
रोना सुनकर
निश्चिन्तिता उतर आई थी
प्रसव में तड़पती काया में
रोना सुनकर
चौका लीपती सद्यप्रसूता की
छातियों में उतर आया था दूध
3
रोना था साक्षी
संयोग-वियोग का
जीवन-मरण का
मान-अपमान का
दुःख-सुख का
ग्लानि-पश्चाताप का
करुणा-क्षमा का
व्यष्टि-समष्टि का
प्रारब्ध और अंत का
4
रोकर
नदी बनी पुण्यसलिला
आकाश बना दयानिधि
बादल बने अमृत
पृथ्वी बनी उर्वरा
वृक्षों पर उतरा नया जीवन
पुष्पों को मिले रंग
5
रोना भूलकर
बनते रहे पत्थर
मनुष्यों के हृदय
उनमें जमती रही कालिख
उपजती रही हिंसा
उठता रहा चीत्कार
काँपती रही सृष्टि
6
रोना
बनाये रखेगा स्निग्ध
देता रहेगा ढाढ़स
उपजायेगा साहस
बोयेगा अंकुर क्षमा का
इतिहास ने बचा लिया है
शवों के ढेर पर रोते राजाओं को
7
स्त्री को सुनाई कल्पित मिथकों में
वह कथा सबसे करुण है
जिसमें उसके रोने से
आँसू बनते थे मोती
उनकी माला
आजतक गूँथकर पहना रही है स्त्री
पुरुष ‘नकली है‘ कह कर रहा
और मालाओं की इच्छा
8
रोना है
सबसे सुंदर विधा
अपने आँसुओं से धुलती है
अपनी ही आत्मा
रोना
इसलिए भी जरूरी था
कि मर जाने की इच्छा
टुकड़ो में जीती रहे।
***
इसलिए भी जरूरी था
कि मर जाने की इच्छा
टुकड़ो में जीती रहे।
***
तुम्हारे लिए
आँखों में काजल हो-न-हो
उनके नीचे काले घेरे बने रहते हैं
जिन्हें उल्टा चाँद तुम कह लेते हो
कभी किसी कोमल क्षण में,
और अपनी छोटी उंगली से फैला हुआ काजल
ठीक करते हुए बहाने से एक टीका
लगा देती हूँ तुम्हारे कान के जरा नीचे
और तुम जिस तरह मुस्कुराते हुए पूछते हो
‘कुछ था क्या‘
जवाब में सर हिलता है नहीं में
लेकिन छाती में उठती है जो अकुलाहट
उसे कौन से सुर में बताया जाए
तुम्हारे लिए मेरा प्रेम वर्णमाला का वह अक्षर है जो किसी को पढ़ना नहीं आता
एक शब्दकोश है
जिसकी लिपि लुप्तप्राय है
मैं लिखती हूँ तुम्हें कई चिट्ठियां उसी भाषा में; हर रोज़
और बीच चौराहे उसे टाँग आती हूँ
किसी इश्तेहार की तरह
तुम्हारा नाम लेने भर से
बहुत ख़राब मौसम बदल सकता है
रुमानियत में
और उस पाकिस्तानी मक़बूल शायर की तरह
मैं भी कह देना चाहती हूँ
‘कोई तुम सा हो तो फिर नाम भी तुमसा रखे‘
***
गाँव
के प्रतिउनके नीचे काले घेरे बने रहते हैं
जिन्हें उल्टा चाँद तुम कह लेते हो
कभी किसी कोमल क्षण में,
और अपनी छोटी उंगली से फैला हुआ काजल
ठीक करते हुए बहाने से एक टीका
लगा देती हूँ तुम्हारे कान के जरा नीचे
और तुम जिस तरह मुस्कुराते हुए पूछते हो
‘कुछ था क्या‘
जवाब में सर हिलता है नहीं में
लेकिन छाती में उठती है जो अकुलाहट
उसे कौन से सुर में बताया जाए
तुम्हारे लिए मेरा प्रेम वर्णमाला का वह अक्षर है जो किसी को पढ़ना नहीं आता
एक शब्दकोश है
जिसकी लिपि लुप्तप्राय है
मैं लिखती हूँ तुम्हें कई चिट्ठियां उसी भाषा में; हर रोज़
और बीच चौराहे उसे टाँग आती हूँ
किसी इश्तेहार की तरह
तुम्हारा नाम लेने भर से
बहुत ख़राब मौसम बदल सकता है
रुमानियत में
और उस पाकिस्तानी मक़बूल शायर की तरह
मैं भी कह देना चाहती हूँ
‘कोई तुम सा हो तो फिर नाम भी तुमसा रखे‘
***
बची रहे पगडंडियां और उनसे गुजरती राह
बची रही मेरे गाँव में बहती गण्डक में धार
बने रहे घाट और लोग जोहते बाट
उन परदेसियों की जो
आते हैं सालों बाद
या न भी आयें
तो बची रही उम्मीद उनके लौट आने की
बचे रहे धान-दूब,
बची रहे हरीतिमा
बची रही सुबह के सूरज में लालिमा
सौंधी रहे धरा नीला रहे आकाश
टिमटिमाता रहे गाँव के ठाकुरबाड़ी का प्रकाश
बने रहे पञ्च बनी रहे धारणा
की न्याय अब भी मिलता है वहाँ
बची रहे चूल्हे में थोड़ी सी आंच
मकई की रोटी और खेसारी के साग
साल दर साल खाली होते मेरे गाँव में
बची रही अब भी खेती करने की ललक
बनी रही आस्था आषाढ़ के मेघ में
बना रहा बसा रहे मेरा ये गाँव
****
behatreen
Thanks for sharing such a nice line
Publish your book
बढ़िया कवितायेँ …….
एक दिन में, एक पूरे दिन में
धरती भी घूम जाती है अपनी धुरी पर
हर तीन महीने में मौसम बदल जाता है
हर छः महीने में छोटे-बड़े हो जाते हैं दिन-रात
तीन सौ पैसठ दिनों में बदल जाता है कैलेंडर
हर चौथे साल में फरवरी हो जाती है उनतीस की
पांच सालों में बदल जाता है दिल्ली का निजाम
हर छठे साल होगा अर्धकुंभ
इन स्त्रियों के दिन नहीं लौटते
इन स्त्रियों की क़िस्मत नहीं बदलती………. बहुत सुन्दर
अन्य कवितायें भी उम्दा
"इस बेढब दुनिया में बचा हुआ
प्रेम, विश्वास और जीवन
यही स्त्रियाँ हैं जो खड़ी रहती हैं
रोज़ घर के दालान में
किसी नहीं आने वाली चिट्ठी के इंतज़ार में"
कितना सही कहा: 'दर्द भले पहचाना हो घाव तो नया ही लगता है।' कविताओं ने जैसे कई घावों को कुरेद के रख दिया। रोना के इतने भेद होने पर भी आंसुओं की लिपि और दर्द की वर्णमाला कवयित्री के पास मौजूद है। बेहद सुंदर कविताएं, उपासना। बहुत बहुत बधाई।
सुन्दर कविताएँ
Well written, keep writing👍
शानदार …
Waah badd adbhut rachna sangrah
बेहतरीन कविताएँ
बेहतरीन अभिव्यक्ति
wonderful poems
बहुत सुंदर हैं सभी कविताएँ । बधाई और शुभकामनाएं ।
अदभुत,हृदय की खोह तक आलोड़न!