अनुनाद

अनुनाद

मैं नष्ट कविताओं के सौंदर्य से चिपट कर सोती हूँ – ज्‍योति शोभा की कविताऍं

ज्‍योति शोभा की कविताऍं अनुनाद को मिली हैं। इससे पहले उनकी कविताऍं समालोचन, सौतुक और प्रभात ख़बर में देखी गई हैं। ज्‍योति हिन्‍दी कविता संसार के लिए नया नाम हैं पर सोशल मीडिया पर वे लगभग रोज़ ही कविता पोस्‍ट करती हैं, इस तरह फेसबुक पर कविता के पाठकों के लिए वे ख़ूब परिचित नाम भी हैं। ज्‍योति ने अपने परिचय में लिखा है कि वे हिन्‍दी, अंग्रेजी और उर्दू की जानकार हैं। पाठक महसूस कर सकते हैं कि इन कविताओं में बंगाल की भी एक बहुत स्‍पष्‍ट सुगंध है। बंगाली कविताओं और गद्य की स्‍मृति इनके लहजे और मुहावरे में शामिल है, जिससे बांग्‍ला समाज और साहित्‍य में कवि के आत्‍मीय रहवास का पता चलता है। अपनी पढ़त में ये कविताऍं कभी-कभी बंगाली कला फिल्‍मों के दृष्‍य सरीखी भी लगती हैं। ज्‍योति का अनुनाद पर यह प्रथम प्रकाशन है – उनका स्‍वागत, शुभकामनाऍं और इन कविताओं के लिए शुक्रिया।  
 कविता जब देर से प्रवेश पाती है जीवन में तो ख़ुलूस के साथ आती होगी।बहुत सी अनुभूति , बहुत से संवेग और अपार हठ लिए। ऐसे में रचना ही मनुष्य को रचती है।यही संदर्भ मेरे लिए सबसे उपयुक्त है जो कविता कहने की तुष्टि से अधिक तृष्णा देती है। संसार ने अपने अनुरूप रचे समाज में साहित्य भी अपने अनुरूप रचा है और छूटे हुए विद्रूप सौंदर्य कसमसाते रहे। समस्त भुवन के हृदय के विस्तार में बहुत सी घटनाएँ इस तेज़ी से घटती गयी कि इतिहास सिकुड़ता गया और साहित्य को इतनी आकस्मिकता भुलाने में कोई मेहनत नहीं लगी।  कुछ उनकी और कुछ अपने शहर की भाषा है इन कविताओं में जो कहती हैं – सुनो !

ज्‍योति शोभा

खटका लगा रहता है

कब से ख़राब पड़ा था कमरे का दरवाज़ा
सोते जागते खटका रहता
कोई चोरी न कर ले नेहरू की किताब
द डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया
जो १९४६ से अब तक बिल्कुल नयी है
एक लकीर नहीं खींची मैनें अपनी पसंदीदा जगह पर
 
खटका लगा रहता
कोई नींद न चुरा ले जिसमें चेनाब का पानी रहता है
और बंगाल का सुंदरवन
देश निकाले हुए कवि और पुरस्कृत
पत्रकार जहाँ एक साथ पीते हैं सिगरेट
वह मेज़ न ले जाए कोई
कितनी बार वहीँ आती है मुझे झपकी
 
तीसरे पहर उठता कोई
गंगा पार जाती
मालगाड़ी को हरी झंडी दिखाने
खटका होता कहीं उसमें भेजा तो नहीं जा रहा मेरा पीतल का डब्बा
पहचान के लिए जो काला पड़ गया था
 
आज ही बुलाया एक राजमिस्त्री
को
और कहा सागवान का काठ लगाओ दरवाज़े में
लोहे की साँकल
भय नहीं होना चाहिए घर में
रहते
 
रात बिरात किलकता है मेरा
शिशु स्वप्न में
और हँसकर मैं पूछती हूँ उससे
क्या बनोगे मेरे भारत देश
तुम बड़े हो कर !
 
 
प्राकृतिक रूप से सुन्दर
वस्तुओं में एक मेरी भाषा है
 
प्राकृतिक रूप से सुन्दर
वस्तुओं में एक
मेरी भाषा है
तुम जितना प्रयास करते
इसे अलंकृत करने का
यह उतनी ही नष्ट होती थी

जैसे सुवास नहीं आती अगर
पट खुले भी रहें
बहुत बार पकाई गयी मछली अपनी गंध खो देती है
 
किसी रोज़ तुम अपने नख देखना
उन्हें पेसोआ के आत्मज्ञान की जरुरत नहीं
मृत्यु की तरह उनमें घात करने का सौंदर्य है
जो मारता नहीं
बल्कि चरम अज्ञान की बेला अपनी ही त्वचा में धंसकर
मोह नष्ट कर देता है जीवन से
 
जंगली पेड़ों की तरह मुझे
सुहाती है तुम्हारी चुप्पी
जहाँ चाहूँ वहाँ रुक सकती हूँ
सुन सकती हूँ –
सृष्टि के अंधकार में
ईश्वर रेंगता है त्वचा पर रूप बदल के
 
तुम प्रेमी रह चुके हो
इस देश की नागरिकता के तुम दावेदार रह चुके हो
तुमने अभिनय भी किया है कवि होने का
क्या लगता है तुम्हें
यह जो तुम आते हो पखवाड़े बाद और वैसी ही पाते हो देह
घाम भरे सुख में
वैसे ही केश आत्मा के रहस्य को ढकते हुए
वैसा ही नाम गोपन होता हुआ उच्चारण के अंत में
ग्रीवा पर जहाँ एक एक दिन पूस का सूर्य उगा था
बस एक अनुराग की मेघपंक्ति सूखती हुई
उसमें कितनी सज्जा है !
 
तुम्हारी ऊँगली धरते ही
यह जो इच्छा की तरह लहर उठती है पानी में
कितनी सुन्दर है ?

 

कोई जलसाघर है बाहर

अदृश्य वाद्य हैं
उपजे हुए धवल खेतों में
तट दूर हैं इस रात में

खिड़की से सिर्फ हवा आ
रही है
अनंत कामनाओं को ढोती और निर्रथक गिरती हुई
वट वृक्ष पर
 
कोई जलसाघर है बाहर
झरता अपने संगीत में

सोचती हूँ कहूँ कोई पुरानी बात
– भाषा तिक्त लगती है
खाड़ी का हृदय आलोकित
इतना कि
काँप रहे हैं पाल नौका के
ऋतुमती के रोम जैसे उठते हैं गिरते हैं
 
ठीक कनपटियों के बीच
निर्वाक है लौ
ठिठुरी
सम्मोहित सी- हिलती भी नहीं
 
एक हल्की आँच ध्वस्त कर
देती है अंधकार में सुपारी के पेड़ों की तन्द्रा
हमें नहीं दिखती
कुछ नहीं है दृष्टि में
ना नग्न उँगलियाँ ना आकाश मापती लकीर की सिरहन

कितनी श्वेत हो सकती है
ऐसे में मृत्यु –
हठात कह बैठती है मेरी काया
तुम कहते हो
शिशिर की चाँदनी जितनी।

 

तुम किस तरफ हो
 
तुम किस तरफ हो
क्या लेनिन की तरफ
जो एक बुत की तरह सुन्दर प्रेम की प्रतीक्षा में है
 
या रबिन्द्र ठाकुर की तरफ
जो शांतिनिकेतन की हरीतिमा में भी ढूंढें से नहीं मिलते
 
मुझे कुछ नहीं दीखता
मैं जो जीवित हूँ
क्या तुमसे परास्त होने की वजह से !
 

लील जाने को ही बना है यह संसार

 
लील जाने को ही बना है यह संसार
इसलिए कहती हूँ
जीवित नहीं बचेंगे तीताश के तट पर तुम्हारे प्रिय घोंघे
 
तुम श्रीहरि की चाकरी में बीता
रहे हो जीवन
इधर कम हो रही है जलकुम्भियाँ पोखर में
नाटक के पात्र बन गए हैं
तुम्हारे छायावाद के कवि

अभ्यास लगभग बिसरता जाता
है बोलने का
ऐसे आलोक में पढ़ती हूँ बिमल मित्र को
कि हल्दी से धूसरित हो जाते हैं शब्द
 
केवल एक कंबल का साझा था
हमारा
बीच में अब कई सचित्र किताबें आ गयी हैं
छापेखाने , बेरोजगार पत्रकार , अफीम में डोलते संपादक आ गए हैं
पुलिस आ गयी
नयी धाराएं आ गयी हैं
 
कल मौन का अधिकार भी छीन
जाएगा
लुप्त हो जाएंगी बाड़ी के पीछे नूतन गुड़ जैसी लगी इमली की पतली फली
इसलिए कहती हूँ
नहीं बचेगी तुम्हारी प्रिय की रसोई
भूखी मर जाऊँगी किन्तु मूंग की दाल में आम की फांक बिल्कुल नहीं डालूँगी।

 

लज्जा क्यों आएगी मुझे
 
लज्जा क्यों आएगी मुझे
केश न रहें तो न सही
मुंडित सर लेकर भी घूमूँगी विक्टोरिया में

गांधी बाबा कहेंगे –
अब घर जाओ , हिंसा होगी देश के प्रमुख के देखते
 
आते समय देखूंगी
कितने में आते हैं अब शुकों के पिंजरे
थोड़ी क्रूरता तो इस बात में होगी
जब झगड़ पड़ूँगी मल्लिक मियाँ से और
दिखावे की करुणा खरीदूँगी मृत्यु के पैसे से
 
लज्जा क्यों आएगी मुझे
कि तुमने हाथ पकड़ लिया घास के मैदान में
जबकी दूर प्रांत की भरी बस में पढ़ते थे लोग बम बनाने के तरीके
 
न रहे मंदिर न सही
ढह जाए मस्जिद
सब ढूंढते रहें ईश्वर माथा झुकाने
मुझे लज्जा नहीं आएगी
तुम्हारे सिर को अपने वक्षों में छुपाते हुए।

 

आशावान होते हुए
 
अधिकांश पुस्तकें जल रही हैं
जंगल तो पहले ही देवालयों के किवाड़ बन गए
अंधकार नष्ट नहीं हुआ
निर्मम आलोक में बदल गया है
 
बर्तन ठंडा था आंच पर उंगलियां
तप्त
लगता है
रसोई की नैतिकता में चमकीले रंग का ढोंग है
मुख तिक्त हुआ आता है लाल साग बनाते
 
घोर कलयुग है प्रिय
जल को जल नहीं काटता
विष को विष बढ़ावा देता है
खजूर के वृक्षों से कागों के दल उड़ते हैं
स्वेद
चू पड़ता है वक्षों से शिशिर के मध्याह्न तरुण
छाँह में
 
भाषा अमान्य हो गयी जो
खजुराहो की दीवारों पर अंकित हैं
मूर्तिकार पुनर्जन्म लेकर आये हैं
गुप्त रोगों की जड़ी बूटियां बेचते हैं चौराहों पे
 
अत्यंत स्नेह से जो
तुमने अपनी कमीज भिजवाई थी
वह अब भी रखी है मेरी साड़ियों की तह में
मैं अब भी आशावान हो
जाती हूँ वस्त्र बदलते।

 

शुभकामनायें और धन्यवाद
 
इस बार तुमने शुभकामनायें नहीं
दी
इस बार मैंने धन्यवाद नहीं कहा
बाहर २०वीं सदी की
घोडागाड़ियाँ चलती थी
जुलुस स्वाधीनता के लिए शोर करते थे
हमने सुना , सुन कर ठन्डे पड़े हाथों को सहलाया
तब तक शाम घिर आयी

सफ़ेद ब्लॉउज की कढ़ाई में टांके सब गुलाब मुरझाने लगे
और हमारी नरम गोद से पानी अपने पैर खींचने लगा
तुम्हें याद आ गया
इतने सुसज्जित नहीं होने चाहिए चित्र कि
कीड़े भेद समझ लें
 
इस बार तुम चुपचाप गए
मैंने बहुत धीमे से दरवाज़ा बंद किया पीछे।

 

निश्चिन्त रहो

निश्चिन्त रहो
प्रेम के आभाव में तुम अकेले नहीं पड़ोगे
चुम्बनों के निशान भूल
जाओगे तुम
और पढ़ने लगोगे धर्मग्रन्थ

प्रार्थना से उठ कर
मिलाने आओगे नदी पर दो छोरों पर
इस बार रुकोगे कलरव के शांत होने तक
देखे हुए दृश्य फिर देखोगे
 
कोई न कोई पशु तुरंत ही साफ़ कर
देगा घास का जंगल
जैसे जगह बनाता हो सूर्यास्त के लिए
 
निश्चिन्त रहो
इतना भी हल्की नहीं होती पत्तियों में अटकी रौशनी
कि झकोरे से गिर पड़े
साफ़ लिखा होता है पवित्र
दीवारों पर
देह आत्मा का वस्त्र है
तुम कभी नग्न नहीं रहोगे
निश्चिन्त रहो।
 
संसार का विश्वास न उठे उत्सव से
 
लाल होंठों जैसे लाल बिम्ब घुले हैं आकाश कुसुम में
उँगलियों में नहीं
काठ की कंघी में बंधे केश छटपटाते हैं
कोकिल समूह जैसे
 
बांकी हो जायेगी देह अगर उठाओगे शरत का मेला दिखाने
नष्ट हो जायेगी नीवी
जो बनी है कोमल बेली से
 
संसार का विश्वास न उठे
उत्सव से
इसलिए अच्छा हो
विकल कविता ही सुना दो ठाकुर की
 
जब शांतिनिकेतन की रेल पकड़ूँ
संग वाली जगह में बैठो
और दिखाओ
छातिम के वृक्षों के पार नभ में नदियां बहती हैं
 
लाल पाड़ की साड़ी जल्द छीजती
है
अरुणिम सूर्य नहीं छीजता
चेष्टा करके खो जाऊ
तो बुलाओ भीड़ भरे पंडाल में
बगैर नाम धरे।
 

 

कातर होने वाली पृथ्वी में
कितनी चाँदनी है
 
तुम ईश्वर के साथ सोते हो आजकल
तुम्हारी नींद को रोकते नहीं है प्रहरी
सुख का दरवाज़ा खोलते हुए
इधर ठंडा होता रहता है मेरा
कमरा भादो की रात्रि में

खोली हुई अंगूठी फिर नहीं अटती ऊँगली में
थर्राता है संसार अगर किसी मृत पुरखे
को एक हल्की पुकार भी लगाती हूँ

ज्वार चला आता है पीछे
मोरपंखों के रंग इतने सहज
नहीं जितना समझते हैं कवि

पावस का अंकपाश कठोर है
ऊष्मा छूटने के लिए ऊष्मा की जरुरत होती है
 
उठना मत तुम बीच नींद में
पूछना मत
कातर होने वाली पृथ्वी में कितनी चाँदनी है
 
तुम को सच कहूँगी
मैं नष्ट कविताओं के सौंदर्य से चिपट कर सोती हूँ।

कलकत्ता मत आना तुम
 
हर तीसरे पहर घटाघोप मेघ जैसी स्मृति
घेर लेती है
कलकत्ता मत आना तुम
इस क्षुधा से विकल समय में नहीं
इस अनंत श्यामलता में तो बिलकुल भी नहीं
सहजता से पार लोगे उफान खाती हुगली
किन्तु सूर्यास्त पीताभ कर
देगा तुम्हारा मुख
कालिमा ढक लेगी तुम्हारा छंद
तुम रुक रुक कर टटोलोगे
तिमिर में छुपे संवाद
सब कहेंगे कवि पथभ्रष्ट हो
गए हैं कलकत्ते में।
मुझे यकीन नहीं हुआ था
 
पहले कहते थे पूर्वज कवि
पृथ्वी से बड़ी हो जायेगी एक दिन कविताएं
मुझे यकीन नहीं हुआ था
 
जबकि आ गए हैं इसमें अब बेमौसम के
पतंगे
अधिक भाषण के कारण हुई राजा की साँसों में तक़लीफ़ ,
सेना की करुणा , चोरों के राहत शिविर
यहाँ तक की साम्प्रदायिकता मुक्त बर्तन आ गए हैं
निचाट मकानों के अकेलेपन से ऊब कर
 
मुझे फिर भी यकीन नहीं होता
सब सलज्ज कवियों के चरित्र
को जगह दे सकेगी कविता
फैलाव की भाषा में गहराई नहीं होती
 
जिस कविता में भीड़ का बेघर
दुःख आ रहा है
उसके बाहर खड़ा है एक पुश्तैनी पहरेदार
पहचान पत्र मांगता है
कविता में जाने के लिए।
 

0 thoughts on “मैं नष्ट कविताओं के सौंदर्य से चिपट कर सोती हूँ – ज्‍योति शोभा की कविताऍं”

  1. जिस कविता में भीड़ का बेघर दुःख आ रहा है
    उसके बाहर खड़ा है एक पुश्तैनी पहरेदार
    पहचान पत्र मांगता है
    कविता में जाने के लिए।

    क़माल

  2. आपकी कवितायें मुझे अनुभूतियों के एक अद्भुत लोक में ले जाती हैं।

  3. बहुत ही उत्तम रचनाएं।'मोर पंखों के रंग इतने सहज नही जितना समझते हैं कवि।' सुन्दर अभिव्यक्ति।भाषा के मामले में बहुत अच्छी बात कही है।'मेरी भाषा-तुम जितना प्रयास करते इसे अलंकृत करने का यह उतनी ही नष्ट होती थी'ज्यादा अलंकरण वास्तविक सुंदरता को छिपा देता है।वह भाषा में हो या जीवन से जुड़े किसी भी मूल्य में।जीवन को स्पंदित करने वाली कविताएं।ऐसी उत्कृष्ट रचनाओं के लिए कवियित्री को शुभकामनाएं और हार्दिक आभार अनुनाद का।

  4. ज्योति शोभा की कविताओं में एक अलग तरह का सौंदर्य है जो अंत तक बांधे रखता है। शैली विशिष्ट है।

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