अनुनाद

टर्रापन लिए मीठे फल – भूपेन्‍द्र बिष्‍ट की कविताऍं

भूपेन्‍द्र बिष्‍ट लम्‍बे समय से कविता लिख रहे हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति समकालीन दृश्‍य में एक ख़ामोश और संकोची उपस्थिति रही है। दैनिक जीवन की साधारण हलचलों, जनों, घटनाओं और बेहद मामूली लगते प्रसंगों से रची उनकी कविताएं, मनुष्‍य जीवन के लिए अनेक शुभेच्‍छाओं से भरी कविताऍं हैं। हम कवि का अनुनाद पर स्‍वागत करते हैं। 

***

टर्रापन
लिए मीठे फल

उद्यान विशेषज्ञ
कुछ ज्यादा बता नहीं पाए
उन फलों का मौसम ठीक-ठीक
फल संरक्षण केंद्र के प्रभारी भी जानते नहीं थे
एकदम सही सही
उन फलों की परिपक्वता के बाबत

जिनके
बगीचे में फलते थे


ये फल
वे सिर्फ़ इतना ही कहा करते

भईया
कभी जाड़ों तक में पकते हैं ये

तो कभी आषाढ़ – सावन ही में जाते हैं, पक

बाज़ार
में बिकते देखा भी नहीं इन फलों को कभी

न किसी स्कूली किताब में इनका चित्र ही दिखा

मुझे
तो इन फलों के नाम पर भी


संशय रहा कुछ दिन
काकूऔर लुकाट
शब्द ही मेरे लिए अभुक्त थे
और विस्मयकारी

आखिरकार
हुआ यह क़िस्सा कोताह
जब इन रसीले फलों के बाग़बां की लड़की
बन गई मेरी प्रेमिका

और
घर से चुरा कर


या घर वालों की नजरों से छुपा कर
मुझे देने लगी मौसम भर ये फल

इस
इसरार के साथ

कि इन्हें खा लेना, हां!
चटख नारंगी और गहरे पीले
छांट कर लाती हूं
तुम्हारे लिए.

***

अफगान
स्नो



कुछ
सब्जियां

जिन्हें पिता न जाने कहां से लाते थे
और मां ही बनाना जानती थी उनको
अब दिखाई नहीं पड़ती

जिग्स
कालरा की पाक कला पुस्तकों में

ल्यूंण, सगीना, उगल और
तिमिले :

इन जैसी सब्जियों के कुछ चित्र मौजूद हैं अलबत्ता
दूसरे नामों से

कुछ
घर गृहस्थियां चल जाती होंगी

अजवायन के बगैर, या
मेथी के दाने न हों तब भी

पर मां के पास प्याज के
छोटे छोटे काले बीज तक रहते थे इफ़रात में

आषाढ़
शुक्लपक्ष की देवशयनी एकादशी से

कार्तिक में देवोत्थान एकादशी तक
पहाड़ी दाल में छोंक – तड़का नायाब
दही- आलू में बघार – धुंगार अद्भुत

मां के साथ ही
ख़त्म हो गई कुछ चीजें

पर मैंने उनकी याद को
बनाए रखने का जतन किया है
मुकम्मल

अफगान
स्नो की एक पुरानी खाली डिबिया

साफ कर
उसमें रख छोड़ा है जीरा.

मां
की पिटारी में भीमसेनी काजल की छोटी डिबिया

और भृंगराज केश तेल की एक शीशी के साथ
अंटी पड़ी मिली थी
मुझे यह अफगान स्नो की डिबिया.

***

डाकपाल
महोदय



छपास
क्षुधा नहीं थी वह

प्योंली*
के मौसम और हिसालू* के तोपे की रुत

सबको बताने का जज़्बा जैसा कुछ था वह
नराई° और निशास° के
चित्र हू-ब-हू लिख देने जैसी गर्वीली फ़नकारी पर

दाद पाने की लालसा थी कदाचित

हर
दिन दो कविताएं लिखी जा रही थी

संपादकों
की खेद सहित वापसी वाली चिट

लिफ़ाफे में हर हफ्ते मिलने लगी मुझे
और मैं इन चिट्ठियों से प्यार करने लगा
बेइंतहा

प्यार
— यह बढ़ने लगा फिर

कस्बे के उप डाकघर तक से हो गई
जबर्दस्त प्रीति
यहीं तक किस्सा सीमित नहीं रहा
मुझे पोस्टमैन भी लगने लगा अतिप्रिय

यह
उस जमाने की बात है

जब लेटर बॉक्स का जंग खाया, धूसर रंग भी
मुझे लगता था गुड़हल के फूल से भी ज्यादा सुर्ख
स्वाद की ज़ुबान में कहूं तो
अधिक पक चुकी रक्ताभ किलमोड़ी* से भी सुस्वादु

फिर
ख़त-ओ-किताबत का दौर


लगभग ख़त्म होता गया
और आज एक बुरे सपने की तरह
यह सच्चाई हमारे समय में व्यापती चली जा रही है

लोग
प्यार करते हैं अब भी


सुना जाता है, दिख भी जाता है
चिट्ठियां मगर नहीं लिखते इक दूजे को प्रेमी जन
इसलिए संशय होता है प्यार किए जाने की बात पर

पैडमैन” फिल्म के लिए कौसर मुनीर
न जाने क्योंकर लिख गई इधर
ओ मेरे ख्वाबों का अंबर
ओ मेरी खुशियों का समंदर
ओ मेरे पिनकोड का नंबर आज से तेरा हो गया ….

मैं
तो अपने
263130# पर

इस क़दर रहा फ़िदा
किसी को इसे देने के बारे में सोच ही नहीं सकता था

बहरहाल
मैं

निकलता बढ़ता रहता हूं उस उप डाकघर के बगल से
मुतवातिर आज भी
हालिया देखने में आया लेटर बॉक्स के मुख विवर पर
चिड़ियों ने बना लिया घोंसला जैसा

डाकपाल
महोदय ने

मुनादी कर रक्खी है अब लेटर बॉक्स न छूने की
कदाचित चिड़िया ने अंडे दे दिए हों वहां

चिट्ठी
लिखे जाने की वह विकलता मर गई

चिट्ठी पाने का वह आह्लाद सूख गया
तथापि यह देखकर अच्छा लगा
कुछ जन हैं अभी
जो प्राणियों पर रखते हैं दया का भाव

दूर
दराज की रियासतों तक
,
महलों के गुंबदों तक
कभी तो सायबान और बारादरी तक भी
खत पहुंचाने वाले परिंदों के चूजों को
बचाये रखने का दृश्य है यह

इस
दृश्य के प्रति जतन का भाव रख रहा है

वह युवक भी
जो आया है अपने मोबाइल में रिचार्ज कराने
उप डाकघर के ठीक बगल वाले ठीया पर.

* पहाड़ी फूल और फल, ° याद और उदासी.
#
263130 नैनीताल के outskirts
में मेरे रहवास वाले पो. ऑ. बिष्ट स्टेट
का वर्षों पिन कोड रहा, अब इस उप डाकघर को
शाखा पो. ऑ. के रूप में निम्नीकृत कर ज्योलीकोट
263127
से
संबद्ध कर दिया गया है.

***

फ़र्क

मायके
की यह बात याद रहती है औरतें को

इसे निबाहती भी हैं वे बखूबी
अपने घर आकर

गुंथा
हुआ शेष आटा गाय के लिए रख छोड़ती हैं

बिला नागा

गुजश्ता
कुछ बरस पहले


इन कुंअरियों को बताया गया था
चूल्हे में सबसे पहले
बित्ते भर की एक रोटी ज़रूर बनाना
पुरखों के लिए

लगे
उसे सिर्फ़ एक ही पीठ

तवे पर

कन्यका
ही थी जब ये विगत में

रही इन नवोढ़ाओं की दुनिया एकरस

प्रेम
वर्जित विषय था

इनके बसावट में
और जहां तक भूगोल था इनका
कोलतार की सड़क नहीं पहुंची थी वहां
विवाह के उपरांत : अगली सुबह
इनकी विदाई बेला तक

गौनहाई
विवाहिता
,
इन स्त्रियों का संसार
अब रोज़ नया
अपितु दिन का हर पहर भी नवीन

सद्य
माताओं के रोजमर्रा की जिंदगी में तो

हंसी- ठट्ठा, जरा चुहल, कुछ
बरजोरी भी

इधर आमेलित हो गई है

कुछ
रिश्ते के
,
कुछ नकल के युवजन
इन स्त्रियों से कार्तिक में पूछते मिलेंगे आपको
भाभी ! आज बारिश तो नहीं होगी ?

जबकि
आकाश होता है निरभ्र

ऐसे
समुत्साह के क्षण
,
इस तरह उमंगने के पल
बाधित रहते हैं
हर पूर्णमासी को, बस

और
महीने में कृष्ण एवं शुक्ल
;
दोनों पक्षों की एकादशी की तिथि को भी.
***

बारिश


आध्यात्मिक
प्रवृति के रहे होंगे

वे मौसम विज्ञानी
दक्षिण पवन को दिया जिन्होंने
नाम मानसून

वर्षा
ऋतु तो प्रकृति का स्नान-पर्व है

हहराती गर्मी इसकी पूर्व कथा
और शरद उत्तर गाथा है इसकी

मूसलाधार
बारिश में

रात-दिन भीगते, नहाते जंगलों का दृश्य
बहुतों के लिए अनदेखा
एकदम गुह्य और पोशीदा

अतिरेक
में भरा हुआ निजता से

और किंचित वर्जना भी ओढ़े
यह कोई कमयाब
मुआमला हो जैसे

सद्य:स्नाता
स्त्री को लेकर

कालीदास ने भी कल्पित विस्तृति
का ही प्रणयन किया है
ऐसा निष्कर्ष है उनका
जो पढ़े और गुने हैं “मेघदूत”

सृष्टि
भर की हरियाली से


बारिश का एक गहरा रिश्ता है
जैसे वसंत से बेला का रिश्ता है
और शरद से है हरसिंगार का

नदियों
में उफान भी ज़रूरी है बारिश के मौसम में

साथ में कुछ दूसरी चीज़ें भी हैं अपरिहार्य

मसलन, निरर्थक
प्रतीक्षा

किसी पेड़ के नीचे
बारिश के थम जाने तक
और कुछ वृथा चिंतायें
मन में गहरे दबी हुई
बादल छंट जायें, तब भी

घर
में बच्चों के द्वारा

ज़रूरी कागज़ात से
छुपा कर बना ली गई
एकाध कागज़ी नाव भी
इनके अतिरिक्त.

***

आग
वाला चूरन



भुट्टे
बेचने का फड़ लगाया है उसने

सुबह से अब तक 53 बेच चुका
भुट्टों के उतरे चोल की ढेरी में वह आकंठ डूब गया है
मॉल रोड पर ही

मुदितमना
उस लड़के को


सुलगती अंगीठी की तपिश
जेठ में भी लग रही है अति शीतल
4 रुपए एक से हिसाब से खरीदे भुट्टे
बिक रहे हैं 10 के और बड़े वाले तो 15 के भी

बालक
की जिद के आगे न चली मां की

खरीदना ही पड़ा आग वाला चूरन
पर तीखा लगा बच्चे को
खुलासा कर रही है मम्मी, कसैला है
कह नहीं सका बाबू
फैंक दिया गया कागज़ की तश्तरी समेत
अनारदाना, इमली के गुट्ठल संग गुंथा
सड़क पर ही

मुनादी
है पालिका की तरफ़ से

कृपया कूड़ा कूड़े दान में ही डालें
शहर को विरूपित करना जुर्म है
जुर्माना भी वसूल किया जाएगा”

इससे
बेखबर सैलानी खुले आम

पेय की बोतलों को छटका दे रहे हैं जहां तहां
पहाड़ियों की सैर के वास्ते घोड़ा तय करते हुए
ऐसे सौदा सुलुफ़ और बार्गेन में वक्त तो लगेगा ही
लो, घोड़े ने लींद भी कर दी इस दरमियां वहीं

दिल्ली
के अख़बारों का डाक संस्करण भी

इस पहाड़ी शहर में पहुंचता है दोपहर बाद
आ गया अब, वेंडर आवाज़ देते जा रहे हैं

ले
रहे हैं पेपर जो जन

सरसरी निगाह डालना चाह रहे हैं तुरंत
हेडलाइंस पर
खुला अख़बार, गिरे कुछ पीले-लाल हैंड बिल्
और उड़े भी इधर उधर

पर्यावरण
बिगाड़ने की इन सायास हरकतों के बीच

कुछ सुदर्शन युवक युवतियां —
मैं तो कहूंगा उन्हें श्लील भी, शिष्ट भी
निकल पड़े हैं
सटे जंगल की जानिब
मन में लिए कोई हरी-भरी उम्मीद

सुकोमल
हंसी और आर्द्र बातों के मध्य

कदाचित मोबाइल में कैद करें वे
हरीतिमा भी.

***

हंसने
पर मुमानिअत



तुम्हारी
हंसी में

न कोई जादू है, न कोई साज़िश
ख्वाहिश भी नहीं कोई, न मैसेज
जैसा कुछ

किसी
टहनी पर उगा एक पत्ता समझती है वह मुझे

और हवा की तरह हिलाती है

मान
लो
, तुम्हारी हंसी एक फूल होती
तो सबसे पहले मैं उसे तोड़ लेता उस वृंत से
जहां वह खिल रहा होता
फिर गिनता उसकी एक-एक पंखुड़ी को
और रखता किताब के हर पन्ने में एक

रह
जाते जो पन्ने शेष

पुष्प दल की सीमितता से
उन्हें पढ़ता ध्यान से

देखता
!

किस तरह व्यवधान पैदा करती है
तुम्हारी हंसी
मेरी पढ़ाई में तब.
***

सूटकेस


एक
लंबे समय तक

बड़े शहर में रह चुकने के बाद
अपने गांव आते हैं जब हम
तो हमारे हाथ में सूटकेस होता है

इधर
हाल में बनवाई गई चार कमीज़
, दो पैंट्स
एक जोड़ा तौलिया, ब्रश, आफ्टर
सेव

और एक मैगजीन
जाने क्या क्या होता है हमारे सूटकेस में

गांव
में सुबह दो मर्तबा खोलते हैं हम सूटकेस

दिन में तीन बार
हमारे अलावा इसे कोई छू भी नहीं सकता

बचपन
में जिन खेतों की तरफ़

हम जाते तक नहीं थे
वहां सुबह – शाम टहलते हैं इस बार
जिन जगहों पर एक क्षण भी नहीं टिकते थे
वहां घंटों खड़े रहते हैं अब

लौटकर
फिर से खोलते हैं सूटकेस

चार
दिन में ही ऊब जाते हैं गांव से हम

बंद करते हैं सूटकेस
वापस लौट जाते हैं शहर को

सारा
गांव देखता है हमें जाते हुए

हमारे हाथ में होता है सूटकेस.
***

 

परिचय


15 अगस्त 1958 को अल्मोड़ा ( उत्तराखंड ) के
एक छोटे से गांव में जन्म. स्कूली शिक्षा पहाड़ पर ही. बी. एच. यू. वाराणसी से
उच्च शिक्षा.
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता में जीवन
मूल्य : स्वरूप और विकास”
  विषय पर पी-एच. डी.
धर्मयुग, दिनमान, पराग,
साप्ताहिक हिंदुस्तान, कादम्बिनी, रविवार, सरिता, जनसत्ता सबरंग
और हंस
, कथादेश, पाखी, अहा ! जिंदगी, बया,
वागर्थ, वर्तमान साहित्य, आधारशिला, लफ़्ज़, पहल,
उत्कर्ष, समकालीन तीसरी दुनिया, इंडिया टुडे, दशकारंभ, पुनश्च:,
संवेद, लमही, व्यंग्य
यात्रा
, शैक्षिक दख़ल औरजानकी पुल वेब
पत्रिका
समेत कई दूसरी पत्रिकाओं तथा नैनीताल समाचार,
जनसत्ता, अमर उजाला, दैनिक
जागरण
, जनसंदेश टाइम्स व हिंदुस्तान में रचनाएं प्रकाशित.

बोधिसत्व प्रकाशन, रामपुर एवं जन संस्कृति मंच,
नैनीताल द्वारा प्रकाशित कविता संकलनों में कविताएं. पोएट्री
सोसाइटी इंडिया की कविता प्रतियोगिता
1983 में कविता चयनित
और प्रवीण प्रकाशन
, दिल्ली से प्रकाशित ” सार्थक कविता
की तलाश ” संग्रह में संग्रहीत. एक कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य.

उत्तर प्रदेश सरकार की सेवा से निवृत, संप्रति
स्वतंत्र लेखन.

संपर्क
:

डॉ. भूपेंद्र बिष्ट
पुनर्नवा”
लोअर डांडा हाउस
चिड़ियाघर रोड,
नैनीताल ( उत्तराखंड )
263002

मोबा
:
6306664684
e mail :
cpo.cane@gmail.com

 

0 thoughts on “टर्रापन लिए मीठे फल – भूपेन्‍द्र बिष्‍ट की कविताऍं”

  1. भूपेंद्र बिष्ट जी की इन कविताओं ने दिल जीत लिया : गंभीर सिंह पालनी

  2. प्रतीकात्मक तत्वों की शाश्वत अभिव्यक्ति है आपकी कविता !

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