अनुनाद

अनुनाद

होने और न होने की बहसों के बीच मैं ईश्वर की तलाश में हूँ- अशोक कुमार की कविताएं


   अशोक कुमार की कविताओं में लोक का  ठेठपन, उसकी पीड़ा, उसकी चुनौतियाँ, उसके  निश्चल स्वप्न , समाज का  खोखलापन और जन्मभूमि से प्रवासित होने का दुःख झलकता है। अनुनाद पर यह उनका प्रथम प्रकाशन है। कवि का यहाँ स्वागत है ।  
                                                                                                                        –  अनुनाद 

 

हर्ट मस्क्युलेनिटी 

हम पुरुष थे
हमने प्रेमिकाएं भी कद में छोटी चाहीं
और परीक्षा में उनके ज्यादा अंकों से जलते रहे। 

हम पुरुष थे-
हम बहनों को घर पर रुकने की सलाह देकर
चौराहों पर सिगरेट फूंकते रहे। 

हमारी मर्दानगी तब आहत हुई
जब साथ चलते-चलते
पत्नी आगे निकल गई दो कदम। 

और तब भी जब उसकी पोस्ट ऊंची थी
और तनख्वाह ज्यादा। 

उसकी फोटो पर लव रिएक्शन देखकर भी
घुटती रही हमारी मर्दानगी
और ठेस लगती रही
इनबॉक्स में पुरुष मित्रों के मैसेज पढ़कर। 

हमारी मर्दानगी बहुत कमज़ोर थी
वह उसके प्रणय निवेदन पर भी हर्ट हुई
और उसके इनकार पर भी । 

हर्ट मस्क्युलेनिटी के बोझ से दबे हम
औरतों को वेश्या कहकर
छुपते-छुपाते जाते रहे
शहर की सबसे बदनाम गलियों में । 

***

गद्दी


मेरे घर से होकर गुजरता था
भेड़-बकरियों का एक रेवड़ हर साल
जिन्हें हांककर ले जाते थे
सफ़ेद ऊनी चोला पहने
कमर पर काले रंग का ऊनी डोरा डाले
और सफ़ेद साफा बांधे कुछ लोग । 

वे चार-पांच लोग होते थे
दो-चार बड़े-बड़े कुत्ते
पीठ पर लोहे के बर्तन
ऊन की सफेद और भूरी चादरें
गठरी में काली दाल
भेड़ों खाल से बने कट्टे में मक्की का आटा
पुड़िया में हल्दी, नमक
और डब्बे में सरसों का तेल लिए
वे इधर से उधर घूमते थे। 

वे अपनी भेड़-बकरियों को धण (धन) कहते

गर्मियों में वे लाहुल जाते
और सर्दियों से पहले तराई में वापिस आ जाते
वे दो दिन हमारे साथ ठहरते थे
हमारे खेतों में हर साल । 

पापा बताते कि भेड़-बकरियों की मून (मल) से
उर्वर होती है धरती
ऊन से बनते हैं
पट्टी वाले कोट, जुराबें, स्वैटर,
और ओढ़ने-बिछाने के लिए गर्म पट्टू । 

मैं हमेशा पूछता कि कहां रहते हैं ये लोग?
तो पापा बताते कि
सबसे आखिरी पहाड़ी के पीछे हैं इनके घर
जहां रहना इन्हें कभी नसीब नहीं होता । 

रोज़ रात असमान की खुली छत तले
अस्थाई चूल्हा जलता
मक्के के मोटे-मोटे रोट पकते
और बकरियों के दूध के साथ चूर कर खाये जाते । 

भेड़-बकरियां आग की परिधि में
ऐसे झुण्ड बनाकर बैठतीं
जैसे कि किसी रैली में आयीं हों । 

रात को इनकी बांसुरी पर
“कुंजू-चंचलो” की धुन बजती रहती देर तक
रात भर बांसुरी की तान में
ये विरह के गीत गाते और अपनों को याद करते । 

इन्हें देख कर भावुक हो जाते थे पापा
वह रात भर इनके साथ रुकते
बातें करते और वहीं सो जाते
घास पर ऊनी चादर बिछाकर । 

पापा ने बताया यह ‘गद्दी’ लोग हैं
और हम भी वही हैं ‘गद्दी’ भेड़ पालने वाले गड़रिये। 

हम भी घूमते थे यहाँ से वहां
हर मौसम में बारिश-धूप सब खुले में सहते हुए
चिंता और फ़िक्र को पीठ पर लादकर
पीड़ाओं को बांसुरी पर गुनगुनाते हुए उम्र भर । 

मेरी मदद करो

होने और न होने की बहसों के बीच 
मैं ईश्वर की तलाश में हूँ । 

मैं किसी मलबे के नीचे हूँ
जिसमें घुले हुए कांच चुभने लगे हैं मेरी पीठ पर
मेरी पीठ पर आयीं खरोंचों से
उभरने लगे हैं पुरानी सभ्यताओं के नक़्शे । 

मेरी पीठ, अब मेरी पीठ नहीं है
धर्मयुद्धों से लहूलुहान सभ्यताओं का समुच्चय है । 

मेरी देह में अवशेष ढूँढने वालों के हाथों में
वे मोटी-मोटी किताबें हैं
जिनकी लिपि तक वे नहीं जानते । 

वे उन किताबों की व्याख्यायें
किसी नुकीले पत्थर से खुरचकर
मेरी पीठ पर लिखना चाहते हैं  
और….मैं चुप हूँ। 

मैं चीखना चाहता हूँ
किन्तु मैं नहीं जानता कि किस भाषा में चीखूँ
हे! दुनिया के भाषाविदों मेरी मदद करो । 

***
डरावने स्वप्न

बाबा डरावने किस्से सुनाया करते थे
इतने डरावने
कि मैं डरा-सहमा रहता कई-कई दिन । 

उन किस्सों के किरदार मेरे आसपास रहते थे
हर वक्त मुझे डराते हुए । 

वे किस्से नहीं थे सच्चाइयाँ थी
ऐसा बाबा कहते थे। 

बाबा बताते कि जब थैले में बाट डालकर
पीटा गया था उस प्रेमी को
जो रात के अँधेरे में अपनी प्रेमिका से मिलने आया
और फिर पकड़ा गया
वह मरने के बाद प्रेत बन गया था। 

और वो जो अपनी आठवीं संतान को जनते हुए
मर गयी थी हरखू की मां
वो भटकती है चुड़ैल बनकर। 

और वो भीखू लोहार
जो गलती से देवता के मंदिर में घुस गया था
मंदिर को अपवित्र करता हुआ
सज़ा मिली थी उसे
जहर खाने या दीवार में चिने जाने की। 

और उसने जहर खाने और दीवार में चिने जाने में से
दीवार में चिना जाना चुना था
वो भी भटकता है भूत बनकर । 

बाबा बताते कि गाँव की वह बावड़ी
जो घने पेड़ो से घिरी हुई
गाँव के दाखिन्न में दूर कहीं थी
बिल्कुल सुनसान, सन्नाटे को ओढ़े हुए । 

कि जहाँ हर वक्त रहती थी
उलटे लटके चमगादड़ों की दुर्गन्ध
कि जहाँ दिन में भी बोल पड़ते थे उल्लू
कि जहाँ झाड-झंखाड़ों के बीच
नहीं पहुँचती थी सूरज की रौशनी
ये तीनों वहीँ रहते थे
अपने-अपने बदले की योजनायें बनाते हुए ।  

मेरे सपनों में आज भी कभी-कभी
आती है वो सूनी बावड़ी
दिन में भी निपट अँधेरी
झाड़ियों, बेलों से घिरी हुई
बिल्कुल किसी अँधेरी खोह की तरह । 

मैं उन तीनों प्रेतों के बीच-
खुद को घिरा हुआ पाता हूँ,
अकेला, बिल्कुल अकेला
मैं डरता हूँ, और मेरे हाथ प्रार्थना में उठ जाते हैं । 

मैं  कभी उस प्रेमी की प्रेमिका हो जाना चाहता हूँ
जिसे मार दिया गया
और कभी उस मां की आखिरी संतान । 

और कभी-कभी उस मंदिर का देवता होकर
भीखू लोहार से माफी मांगना चाहता हूँ । 

पर ऐसा हो नहीं पाता
मैं डर जाता हूँ
वे तीनों जोर से हँसते हैं
मैं और डरता हूँ
वे और जोर से हँसते हैं
और तब खुल जाती है मेरी नींद
अब मैं इस स्वप्न से आज़ाद होना चाहता हूँ । 

***

मैं डरता हूँ

डरता हूँ कि जब कभी वापिस लौटूंगा
तो कहीं वो शहर
मुझे पहचानने से इनकार न कर दे। 

कहीं वो यह न पूछ बैठे
कि क्या लेने आये हो इतने दिनों के बाद। 

और बड़े दिनों के बाद
अगर कहीं किसी को न पहचान पाया
तो डरता हूँ-
कि वो मेरे बारे में क्या सोचेगा?

जब मेरे कुछ अपने
मुझे वहां नहीं दिखेंगें
तो किससे पूछूँगा उनका पता ठिकाना?

नये रास्तों पर चलना
हो सकता है पहले से कुछ आसान हो गया हो
किन्तु डरता हूँ-
कि कहीं रास्ता न भटक जाऊं। 

एक अरसे के बाद
अकेले, चुपचाप
जब अपने ही आंगन में खड़ा होऊंगा
तो डरता हूँ-
कि कहीं वहाँ से गुजरने वाला कोई
यह न पूछ लें-
कि “कौन हो तुम”?
“तुम्हें पहले तो कभी नहीं देखा।” 

***

परिचय 

मूलतः : जिला चम्बा हिमाचल प्रदेश.
वर्तमान पता: म.न.-17, पाकेट-5, रोहिणी सेक्टर-21 दिल्ली-110086
सम्प्रति: दिल्ली के सरकारी स्कूल में गणित के अध्यापक के पद कार्यरत
प्रकाशित संग्रह: “मेरे पास तुम हो” बोधि प्रकाशन से, हिमतरू प्रकाशन हि०प्र० के साँझा संकलन “हाशिये वाली जगह” में कविताएँ प्रकाशित.
इसके अतिरिक्त: युवासृजन, प्रेरणाअंशु, नवचेतना, छत्तीसगढ़ मित्र, कथाबिम्ब, हंस, वागर्थ, कृति बहुमत, ककसाड़, विपाशा, में कवितायेँ प्रकाशित, आजकल में कविताएँ स्वीकृत.
हस्ताक्षर, साहित्यिकी, साहित्यकुंज, समकालीन जनमत, अविसद,पोषम पा,  इंद्रधनुष और साहित्यिकी डॉट कॉम वेब पोर्टल पर कवितायेँ प्रकाशित.
संपर्क: 9015538006
ईमेल: akgautama2@gmail.com

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