अनुनाद

अनुनाद

सफेद धुआं बन जाने से पहले, वह जी लेना चाहता हो हर रंग/  रंजना जायसवाल की कविताऍं


      सेमल का फूल   

 

  चैत के महीने में

 

बिखरे घमाते

 

 सेमल के फूल

 

 अलसाये उनींदे

 

फिर भी मुस्कुराते

 

सेमल के फूल

 

लाल इतने

 

मानो

गोरी के गालों

 

पर उतरा रंग

 

नवविवाहित की हथेली

 

पर लिखा

 

प्यार का कोई छंद

 

पश्चिम में डूबता

 

दिन का अवसान

 

मानो दूर कहीं

 

थक कर

 

फागुन करता आराम

 

सड़क की

पथरीली धूप में

 

बिछा अपनों के इंतजार में

 

मानो खोली हों आँखें

 

किसी नवजात ने

 

सफेद धुआं बन जाने से पहले

 

वह जी लेना चाहता हो हर रंग

 

शायद इसलिए समेट लेता है

 

वह बादलों को अपने आगोश में

 

गाड़ियों का कोलाहल

 

तेजी से गुजरते

 

राहगीरों का हुजूम

भागती जिंदगियाँ

फिर भी क्षण भर

 

रुकती, तकती

 

भरती उस रंग को

 

अपनी आँखों में

 

और बढ़ जाती

 

 अपनी मंजिल की ओर

 

और रह जाता

 

बस सेमल का फूल

***

      औरतें नहीं जानती थी   

 

   औरतें नहीं जानती थी

 

उनके घर के पुरुष

 

 उनसे कितना प्रेम करते हैं

 

 वह बुनती रहे

 

 उनके साथ जीवन बिताने के सपनें

 

 गुनती रही एक सुनहरे भविष्य को

 

 कोख में पालती रही उनके वंश को

 

और वह खर्च करते रहे

 

छोटे-बड़े झगड़ों में

 

उनके नामों को

वह सड़कों पर

 

घसीटी जाती रही

 

 हर छोटी-बड़ी बातों पर

 

 किसी ना किसी रूप में

 

वे खर्च करते रहे

 

उनके वजूद को

 

हर तिराहे, चौराहे और मुहल्ले पर

 

और देते रहे

 

 अपने पुरुष होने का परिचय!

 

सचमुच! औरतें नहीं जानती थी

 

उनके घर के पुरुष

उनसे कितना प्रेम करते हैं?

***

 

    स्‍त्री मन   

 

 चूल्हे की धधकती

 

हुई आंच में रखा

 

एक पतीला

 

मानो मन हो स्त्री का

 

जिसे कसकर ढक दिया हो

 

समाज के रीति-रिवाजों से

 

मन की इच्छाएँ, सपनें और अरमान

 

खदबदाते हैं

 

निकल जाना चाहते हैं

तोड़ कर बंदिशों की गिरहों को

 

पर सधे हुए हाथ

 

 उतनी ही तेजी से ढक देते हैं

 

उस पतीले को

 

मानो चेताना चाहते हैं उसे

 

घुटती, कसमसाती,तड़पती

 

 स्त्री का मन छलक आता है

 

 पतीले की कोर से

 

और बिखर जाती है

 

 उसकी सोंधी खुशबू

 

 सारी फ़िजा में

 सधे हुए हाथ

 

फिर से लकड़‍ियाँ

 

ठूस देते हैं चूल्हे में

 

और छोड़ देते हैं उसको

 

 उसकी तपिश में तपने के लिए

 

और उसके अरमानों की राख

 

 वही दम तोड़ देती।

***

     कठपुतलियां   

 

 

सुर्ख गोटेदार कपड़ों में

 

वो नाचती

 

और दम्भ से

 उन नचाने वाले हाथों के

 

 चिथड़े में लिपटे तन को देखती

 

उनका वजूद कहीं…

 

उसकी उंगलियों में समाहित हो जाता

 

महीन धागों से वो

 

 उसे जैसा चाहता नचाता

 

नहीं जानता था वो…

 

 नचा तो उसे भी रहा था कोई

 

बस धागे अलग थे

 

 और हाथ भी

 

वो हाथ

फेंके हुए उन सिक्कों की

 

चमक से चमकदार हो जाते

 

पर काठ की उन बुतों की

 

बड़ी-बड़ी कजरारी आँखों में

 

 अनदेखे आँसू भर आते

 

खेला दिखाकर

 

बन्द कर दी जाती वो

 

सन्दूकों में

 

स्याह अंधेरे के बीच

 

पर नहीं जानती थी

 

बाहर का अंधेरा

अंदर से ज्यादा गहरा है।

 

आज कठपुतलियाँ चुप थीं

 

चुप थे वे धागे भी

 

और उन धागों को

 

 उंगलियों में लपेटने वाले हाथ भी

 

क्योंकि…

 

उन धागों को

 

खींचने वाले हाथों की डोर…

 

 बेरहमी से खींच लिए थे

 

 उस अदृश्य शक्ति ने

 

आज मृत्यु सिर्फ

 एक की नही हुई थी…

 

पर सफर यहीं खत्म नहीं होता

 

कठपुतलियाँ फिर नाचेंगी

 

बस उनके कपड़े बदले हुए होंगे

 

और नचाने वाले वो हाथ भी

 

पर जो नहीं बदलेगा वो होंगे वो धागे

 

क्योंकि…

 

 उनकी नियति यही है।

***

      पुरूष कंजूस
होते हैं
   

पुरुष कंजूस होते हैं

 

सही सुना आपने

पुरूष कंजूस होते हैं

 

खर्च नहीं करते

 

वो यूँ ही बेवज़ह

 

अपने आँसुओं को

 

क्योंकि उन्हें बताया जाता है

 

बचपन से

 

तुम मर्द हो

और मर्द को कभी दर्द नहीं होता

 

वे खर्च नहीं करते

 

अपने जज्बातों को

क्योंकि उन्हें सिखाया जाता है

 

तुम कमजोर नहीं हो

 

क्योंकि ये काम है औरतों का

 

वे टूट नहीं सकते

 

जिंदगी की जद्दोजहद से

 

क्योंकि उन्हें सिखाया जाता है

 

ये काम है कायरों का

 

सहेज लेते हैं

 

वो अपनी आँखों में

 

छिपा देते हैं मन की किसी दराजों में

 

क्योंकि वे बेवज़ह खर्च नहीं करते

 

अपने अहसासों को

सचमुच…

 

पुरूष बहुत कंजूस होते हैं।

***

 

               

 

 

 

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